आप इस बात से भलीभाँति अवगत हैं कि जब भी लोकसभा चुनाव होता है, 2007 में वजूद में आए आपके संगठन ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) की ओर से हर बार चुनाव में सम्यक निर्णय लेने के लिए आपके समक्ष अपील जारी की जाती रही है। अतः उस परम्परा का पालन करते हुए आजाद भारत के सबसे निर्णायक चुनाव में आप के समक्ष एक बार फिर अपील की जा रही है।
भाइयों और बहनों! 2024 का लोकसभा चुनाव यह फैसला करने जा रहा है कि भारत बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के संविधान से चलेगा या मनु के विधान से, सरकारी उपक्रमों, स्कूल,कॉलेज, हॉस्पिटलों इत्यादि पर नियंत्रण राष्ट्र का रहेगा या यह सब निजी हाथों में चला जायेगा। कुल मिलाकर यह लोकतंत्र और संविधान बचाने का चुनाव है, जिसमें आपको अपने विवेक का सम्यक उपयोग करने का कातर निवेदन किया जा रहा है। बीडीएम के निवेदन पर विचार करने के पहले जरा भारतीय समाज के अतीत और वर्तमान पर नजर दौड़ा लें। भारतीय समाज विश्व का सर्वाधिक विषमतापूर्ण समाज है, जिसके लिए जिम्मेवार रही है वर्ण– व्यवस्था। धर्म के आवरण में लिपटी वर्ण-व्यवस्था सदियों से ही शक्ति के स्रोतों के वितरण-व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही है। स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था कहा जाता है। हिन्दू-आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक सिर्फ अपर कास्ट के लिए आरक्षित्त रहे। हिन्दू आरक्षण के कारण ही देश में सदियों पूर्व सामाजिक अन्याय की धारा प्रवाहमान हुई। इस कारण ही उच्च वर्ण जहां चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए। लेकिन दुनिया के दूसरे गुलामों की तुलना में भारत के गुलामों की स्थिति इसलिए बदतर हुई, क्योंकि उन्हें वर्ण-व्यवस्था उर्फ़ हिन्दू-आरक्षण में आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से पूरी तरह बहिष्कृत रखा गया था। ऐसा दुनिया में और कहीं नहीं हुआ। दुनिया के किसी भी देश के गुलामों को शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों से पूरी तरह महरूम नहीं किया गया।
आंबेडकरी आरक्षण ने दलितों के लिए प्रशस्त किया शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी का मार्ग
भारत के गुलामों में सबसे बदतर स्थिति दलितों (अस्पृश्यों) की रही। ये गुलामों के भी गुलाम रहे। भारत के अन्य गुलाम समुदायों की भांति इन्हें भी शक्ति के समस्त स्रोतों से तो बहिष्कृत किया ही गया, पर, इनके साथ अस्पृश्यता जुड़ी होने के कारण उच्च वर्णों के साथ-साथ वर्ण-व्यस्था के गुलाम पिछड़े(ओबीसी) तक इनकी मानवी सत्ता को अस्वीकृत करने के साथ इनके स्पर्श से दूरी बरतते रहे। इन्हें अच्छा नाम रखने और अपने दुःख मोचन के लिए मंदिरों में प्रवेश कर ईश्वर की कृपा लाभ तक का अधिकार नहीं था। इनके जैसे अधिकार-विहीन मानव समुदाय की विद्यमानता पूरी दुनिया के किसी भी अंचल में कभी भी नहीं रही। इन अधिकारविहीन लोगों को मानवेतर में तब्दील कर दिया गया था। इन्हीं गुलामों के गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती डॉ. आंबेडकर के समक्ष आई, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया।
अगर जहर की काट जहर हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट किसी वैकल्पिक आरक्षण से ही हो सकती थी, जो आंबेडकरी आरक्षण से हुई। आंबेडकर के संघर्षों से पूना पैक्ट से जो आरक्षण वजूद में आया तथा परवर्तीकाल में जिसकी भारतीय संविधान में स्थाई व्यवस्था हुई, उस आरक्षण के फलस्वरूप जिन मानवेतरों के लिए विगत कई हजार सालों से कल्पना करना दुष्कर था। वे झुण्ड के झुण्ड एमएलए, एमपी, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, आईएएस-आईपीएस इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे. आंबेडकरी आरक्षण से उनका हजारों साल से चला आ रहा शक्ति के स्रोतों से बहिष्कार का दूरीकरण होने लगा।
कांग्रेस राज में हुआ दलित- आदिवासी लेखकों का उभार
सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि आजादी के बाद कांग्रेस राज में स्थापित सैकड़ों सरकारी कंपनियों; लाखों स्कूल-कालेजों और अस्पतालों के साथ शासन-प्रशासन में आरक्षण पाकर दलितों में एक ऐसा मध्यम वर्ग उभरा जिसने दलित समाज की शक्ल काफी हद तक बदल कर रख दी। कांग्रेस के जमाने में उभरे इसी मध्यम वर्ग के आर्थिक सहयोग से दलितों के बसपा जैसी कई राजनीतिक पार्टियों और बामसेफ सहित हजारों संगठनों का उदय हुआ। कांग्रेस द्वारा स्थापित संस्थानों में जॉब करते हुए ही दलित लेखकों की विशाल फ़ौज वजूद में आई जो आज हजारों साल के पारम्परिक ज्ञान को चुनौती दे रही है।
लेखन के लिए जैसा आर्थिक-सामाजिक परिवेश चाहिए, वह भारत में हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग को तो हजारों साल से सुलभ रहा, पर दलितों को नसीब हुआ 1980 के बाद, जब इस दौर में एक मध्यम वर्ग आकार लेने लगा। तब इस वर्ग के कुछ लोग घर-गृहस्थी की बुनियादी समस्याओं से मुक्त होकर लेखन-चिन्तन की दिशा में अग्रसर हुए। 80 के बाद के दशक में यह सिलसिला बुद्ध शरण हंस, ओमप्रकाश वाल्मीकि, एसके बिस्वास, डॉ. नवल वियोगी, डॉ. यू.एन.बिस्वास, ए.के.बिस्वास, कँवल भारती, कुसुम वियोगी, डॉ.जय प्रकाश कर्दम, सूरज पाल चौहान इत्यादि से जो शुरू हुआ, वह डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, सुदेश तनवर, शीलबोधि, विपिन बिहारी, ईश कुमार गंगानिया, विमल थोराट, सुशीला टाकभोरे, अनीता भारती, अजय नावरिया इत्यादि से बढ़ते हुए आज रंजू राही, डॉ.जन्मेजय कुमार, बच्चालाल उन्मेष, प्रो. रतनलाल , डॉ. कौशल पंवार इत्यादि के रूप में विस्तार पाते जा रहा है। आज सैकड़ों दलित अपने लेखन से देश और समाज को समृद्ध किये जा रहे हैं। जिस तरह सरकारी जॉब करते हुए दलितों में ढेरों लोग लेखन लायक माहौल पाकर दलित साहित्य को समृद्ध किये, वैसा ही सुखद संयोग आदिवासी साहित्य के साथ हुआ।
उन्होंने लिखा है’अस्पृश्य और आदिवासियों को स्वतंत्रता पूर्व ही शिक्षा का अधिकार दे दिया गया था, लेकिन क्या दलितों को महाविद्यालयों,विश्वविद्यालयों में शिक्षक नहीं बनना चाहिए था? इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान दिया, जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पदों पर आरक्षण के लिए सहमति दी। इसके आगे दलित शिक्षा में गुणवत्ता के सम्बन्ध में श्रीमती गांधी ने उसी समयावधि में केन्द्रीय विद्यालयों में अनुसूचित जाति/ जनजाति के बच्चों को आरक्षण देने का निर्णय लिया। आपातकाल के दौरान ही उनके लिए आई.आई.टी. के द्वार खुले। इसी समय में ठोस दलित मध्यम वर्ग की जड़ें गहरी हुईं. अन्य मुद्दों जैसे न्यायालयों में उच्च स्तर पर अनुसूचित जाति/जनजाति के न्यायधीशों की नियुक्ति की समस्या को इंदिरा गांधी ने ही सुलझाया। हम तबतक आगे नहीं बढ़ सकते जब तक हम भारत के जटिल सामाजिक ढांचे में दलितों को उचित स्थान दिलाने वाले नेताओं के प्रयासों का सम्मान नहीं करेंगे और इस सत्य को नहीं समझेंगे. जब हम ऐसे नेताओं की चर्चा करते हैं तो इंदिरा गाँधी का नाम प्रमुखता से उभरता है। दुर्भाग्य से जब हम इंदिरा गांधी का स्मरण करते हैं तो दलितों के प्रति उनके दृष्टिकोण को भूल जाते हैं.(स्रोत:चंद्रभान प्रसाद, भोपाल घोषणापत्र: 21 वीं सदी में दलितों के लिए नई रणनीति, पृष्ठ :7-8)।
सोनिया एरा में पनपी : उद्योगपति और व्यापारी बनने की चाह
आज भूमंडलीकरण के दौर में सृजित अवसरों में जिन दलित- आदिवासी युवाओं को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल रहा है, वे मुख्यतः दलित-आदिवासियों के उसी मध्यम वर्ग की संतानें है, जिनका निर्माण कांग्रेस काल में हुआ। लेकिन बीसवीं सदी में कांग्रेस सृजित अवसरों से अगर दलित, आदिवासी सर्वाधिक लाभान्वित हुए तो इक्कीसवीं सदी में वह सोनिया एरा में थोड़ा और आगे बढ़ा है। सोनिया एरा में 2002 में ऐतिहासिक भोपाल सम्मलेन से निकली डाइवर्सिटी की आइडिया दलित-आदिवासी समाज में चमत्कार घटित करने जा रही है। भोपाल घोषणापत्र से नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार, पौरोहित्य इत्यादि अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों में हिस्सेदारी की जो चाह पनपी है, उससे लगता है आने वाले सालों में भारत में क्रान्तिकारी आर्थिक परिवर्तन होकर रहेगा। क्रांतिकारी भोपाल घोषणा के अतिरिक्त सोनिया युग में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में ढेरों ऐसे कार्य हुए जो दलित एवं सामाजिक न्याय की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण रहे। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए विशेष प्रयास; जातिवार जनगण का निर्णय; राजीव गांधी राष्ट्रीय फेलोशिप; एससी-एसटी को एमएसएमइ के प्रोडक्ट के सप्लाई में आरक्षण; 23 पीएसयू की स्थापना और महज 3 का निजीकरण; बड़ी संख्या में केन्द्रीय विद्यालय और आईआईटी के निर्माण से ज्यादा लाभान्वित एससी/एसटी वर्ग ही हुआ। उसमें हाल के दिनों में पुरानी पेंशन व्यवस्था की बहाली को जोड़ दिया जाय तो साफ़ नजर आएगा कि सोनिया युग में भी सर्वाधिक लाभान्वित होने वाला तबका दलित और आदिवासी वर्ग ही है।
कांग्रेस-राज में दलितोत्थान होते देख आरक्षण के खात्मे की परिकल्पना में जुटे : हिंदुत्ववादी!
बहरहाल कांग्रेस राज में सृजित अवसरों से दलित, आदिवासी समाजों से जब भूरि-भूरि लेखक, डॉक्टर, इंजीनियर्स, प्रोफ़ेसर इत्यादि निकलने लगे तो यह हिंदुत्ववादी भाजपा को रास नहीं आया। क्योंकि हिन्दू धर्म शास्त्रों में जिन दलितों के लिए लोहे के गहनों, जूठे-भोजन, दूसरों के छोड़े फटे-पुराने वस्त्रों पर जीवनयापन करना ही धर्म बताया गया है। जिनके लिए मंदिरों में प्रवेश व हथियार स्पर्श के साथ शिक्षा-ग्रहण दंडनीय अपराध व अधर्म घोषित किया गया, वैसे समाज के लोग जब आजादी के बाद कांग्रेस-राज में आंबेडकरी आरक्षण के जरिये एमएलए-एमपी, डॉक्टर प्रोफ़ेसर, इंजीनियर, आईएएस- पीसीएस,लेखक इत्यादि बनने लगे, तब हिंदुत्ववादी संघ और जनसंघ से भाजपा बना उसका राजनीतिक संगठन ‘आरक्षण’ को हिन्दू धर्म पर हमले के रूप में लेने लगे। आरक्षण से हिन्दू धर्म की ऐसी हानि होते देख हिंदुत्ववादी मन ही मन घुटते तथा सही मौके की तलाश में लगे रहे. और 7 अगस्त ,1990 को अंततः मंडल रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद उन्हें उस आरक्षण के खात्मे का अवसर मिल गया, जिस आरक्षण से दलित-आदिवासी अपना उत्त्थान कर हिन्दू धर्म-शास्त्र और भगवानों को भ्रांत प्रमाणित करने लगे थे. बहरहाल आरक्षण के खात्मे के प्रयोजन से शुरू किये गए राम मंदिर आन्दोलन जरिये सत्ता में आकर संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्री वाजपेयी आरक्षण के खात्मे के जुनून में देश बेचने लगे और आज इस मामले में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी को भी बौना बना दिया है।
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए व्यर्थ किया जा रहा है – आंबेडकर का संविधान!
वाजपेयी के बाद मोदी जिस संघ से प्रशिक्षित होकर प्रधानमन्त्री की कुर्सी तक पहुंचे, उस संघ का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना रहा है, यह राजनीति में रूचि रखने वाला एक बच्चा तक जानता है। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का मतलब एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें देश आंबेडकर के बनाये संविधान से नहीं, उन हिन्दू धार्मिक कानूनों द्वारा देश चलेगा, जिसमें दलित, आदिवासी , पिछड़े अधिकारविहीन नर-पशु एवं शक्ति के समस्त स्रोतो से पूरी तरह बहिष्कृत रहे। संघ के एकनिष्ठ सेवक होने के नाते मोदी हिन्दू राष्ट्र से अपना ध्यान एक पल के लिए भी नहीं हटाये और 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही अपनी समस्त गतिविधियां इस के निर्माण पर केन्द्रित रखे। सत्ता में आने के बाद मोदी जिस हिन्दू राष्ट्र को आकार देने में निमंग्न हुए, उसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा रहा संविधान! संविधान इसलिए बाधा रहा क्योंकि यह शुद्रातिशूद्रों को उन सभी पेशे/ कर्मों में हिस्सेदारी सुनिश्चित कराता है, जो पेशे/कर्म हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु-जंघे) से उत्पन्न लोगों के लिए आरक्षित रहे. संविधान के रहते इनका शक्ति के स्रोतों पर वैसा एकाधिकार कभी नहीं हो सकता, जो अधिकार हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा उन्हें दिया गया था। किन्तु संविधान के रहते हुए भी हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे अपर कास्ट के लोगों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार हो सकता है, यदि सारी चीजें निजी क्षेत्र में शिफ्ट करा दी जाएं। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही मोदी जिस दिन से सत्ता में आए, उपरी तौर पर संविधान के प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित करते हुए भी, लगातार इसे व्यर्थ करने में जुटे रहे।
संविधान को व्यर्थ करने के लिए ही मोदी तमाम सरकारी कम्पनियां निजी क्षेत्र में देने के लिए जिस हद तक मुस्तैद हुए। उससे खुद भाजपा के आरक्षित वर्गों के सांसद तक खौफजदा होकर दबी जबान में निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठाने लगे हैं। बहरहाल मोदी सरकार देश को पूरी तरह निजीकरण के सैलाब में डुबोने के लिए किस हद तक आमादा है, इसका अनुमान खुद वित्त मंत्री सीतारमण के इस घोषणा से लगाया जा सकता है। उन्होंने संसद में उठाये गए एक सवाल के जवाब में दिसंबर, 2021 में बताया था कि ये 36 सरकारी कम्पनियां निजीकरण के लिए चुन ली गयी हैं-: 1- प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट इंडिया लिमिटेड; 2- इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट (इंडिया) लिमिटेड; 3- ब्रिज और रूफ कंपनी इंडिया लिमिटेड; 4- सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (CEL) ;- 5- बीईएमएल लिमिटेड; 6- फेरो स्क्रैप निगम लिमिटेड (सब्सिडियरी); 7- नगरनार स्टील प्लांट ऑफ एनएमडीसी लिमिटेड; 8- स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया की यूनिट्स (एलॉय स्टील प्लांट, दुर्गापुर स्टील प्लांट, सालेम स्टील प्लांट, भद्रावती स्टील प्लांट); 9- पवन हंस लिमिटेड;10- एयर इंडिया और इसकी 5 सब्सिडियरी कंपनियां;11- एचएलएल लाइफकेयर लिमिटेड; 12- इंडियन मेडिसिन्स फार्मास्युटिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड; 13- भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड; 14- द शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड; 15- कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड; 16- नीलांचल इस्पात निगम लिमिटेड; 17- राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड 18- आईडीबीआई बैंक
एडमिनिस्ट्रेटिव मंत्रालयों ने इन कंपनियों के लिए निजीकरण के ट्रांजेक्शन को कर दिया प्रोसेस
19- इंडिया टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन लिमिटेड की तमाम यूनिट; 20- हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड; 21- बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड
याचिकाओं के चलते रुका हुआ है इन कंपनियों के निजीकरण का ट्रांजेक्शन
22- हिंदुस्तान न्यूजप्रिंट लिमिटेड (सब्सिडियरी); 23- कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड; 24- हिंदुस्तान फ्लोरोकार्बन्स लिमिटेड (सब्सिडियरी); 25- स्कूटर्स इंडिया लिमिटेड; 27- हिंदुस्तान प्रीफैब लिमिटेड; 28- सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड की यूनिट्स
इन कंपनियों के निजीकरण का ट्रांजेक्शन हो गया है पूरा
29- हिंदुस्तान पेट्रोलियन कॉरपोरेशन लिमिटेड; 30- रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉरपोरेशन लिमिटेड;;31- एचएससीसी (इंडिया) लिमिटेड; 32- नेशनल प्रोजेक्ट्स कंसट्रक्शन कॉरपोरेशन लिमिटेड; 33- ड्रेजिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड; 34- टीएचडीसी इंडिया लिमिटेड; 35- नॉर्थ ईस्टर्न इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड; 36- कमरजार पोर्ट लिमिटेड- (स्रोत :नवभारत टाइम्स,21 दिसंबर,2021). ऐसी ढेरों अन्य सरकारी संस्थान हैं जिन्हें मोदी सरकार बेच चुकी है और 2024 में सत्ता में आने पर सारा कुछ निजी हाथों में सौंप देगी,ऐसा ढेरों बुद्धिजीवियों का मानना है।
बहरहाल मोदी सरकार देश को निजीकरण के सैलाब में डुबोने पर इस तरह आमादा है कि 1969 में जिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इंदिरा गांधी ने राष्ट्र की अर्थव्यवस्था सुरक्षित करने के साथ लाखों लोगों को रोजगार का सम्मानजनक अवसर सुलभ कराया, उनका भी निजीकरण करने का मन बना लिया है। इसका संकेत वित्तमंत्री सीतारमण ने 2021 का बजट पेश करने के दौरान दो बैंकों के निजीकरण के एलान के जरिये दे दिया था। वित्त मंत्री की घोषणा के बाद इसके लिए मोदी सरकर को बाकायदे नीति आयोग के तरफ से 15 जुलाई , 2022 को सुझाव भी दे दिया गया , जिसमे कहा गया था कि सरकार स्टेट बैंक को छोड़कर बाकी बैंक बेच दे। ये तथ्य बतलातें हैं कि मोदी सरकार संविधान को पूरी तरह ध्वस्त करने का मन बना चुकी और अगर वह तीसरी बार सत्ता में आती है तो संविधान पूरी तरह व्यर्थ हो जायेगा।
कांग्रेस की पांच न्याय और 25 गारंटियां : मिटा देंगी हजारों साल की गैर बराबरी!
बहरहाल एक ऐसे समय में जबकि दलित,आदिवासी और महिलाओं सहित 90% आबादी ही संविधान को बचाने तथा सरकारी कंपनियों और संस्थाओं को निजी हाथों में जाने से रोकने के लिए कमर कस चुकी है। राहुल गांधी हमारे बीच सामाजिक न्याय के ऐसे नए आइकॉन के रूप में उभरे हैं,जो 2024 के चुनाव को उस सामाजिक न्याय पर केंद्रित करने जा रहे हैं, जिस पर भाजपा कभी पार ही नहीं पा सकती। राहुल गांधी का यह नया अवतार फरवरी 2023 में रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन से सामने आया, जहां पार्टी ने पहली बार सामाजिक न्याय का पिटारा खोला। रायपुर अधिवेशन के बाद जब मई 2023 में राहुल गांधी कर्नाटक विधानसभा चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित करते हुए भाजपा को ऐतिहासिक शिकस्त दिए। सामाजिक न्यायवादी नेता के रूप में उनकी छवि चटखदार हो गई! उसके बाद उन्होंने जातिवार जनगणना कराने तथा धन और संपदा के न्यायपूर्ण बंटवारे का मुद्दा उठाते हुए, जिस तरह ‘जितनी आबादी – उतना हक’ का उद्घोष करना शुरू किया, उससे उनकी छवि सामाजिक न्याय के नए मसीहा के रूप में स्थापित हो गई। बाद में जब उन्होंने ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में पांच न्याय और 25 गारंटी का जो सूत्र दिया, उससे गांधी, आंबेडकर, नेहरू इत्यादि के सपनों के भारत निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो गया! पांच न्याय और 25 गारंटियों के विषय में राहुल गांधी का कहना है : ‘हम पांच न्याय का संकल्प लेकर किसानों, युवाओं, श्रमिकों, महिलाओं और वंचितों के बीच जायेंगे और सीधे तौर पर लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दों पर चुनाव लडेंगे।
अगर बहुसंख्य वंचित वर्ग मोदी सरकार को हटाकर इंडिया को सत्ता में लाने में कामयाब हो जाता है, तब तो उम्मीद की जा सकती है कि भारतीय संविधान भारत के लोगों को नए सिरे से इसकी उद्देश्यिका में उल्लिखित तीन न्याय- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक- सुलभ कराने में समर्थ हो उठेगा तथा देश में जिसकी जितनी सख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी का कांशीराम का सपना भी पूरा हो जायेगा। अगर हिन्दुत्ववादी भाजपा सरकार फिर सत्ता में आती है तो संविधान का जनाजा निकलने के साथ आप दलित, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुंचना तय सा हो जायेगा।
(संस्थापक अध्यक्ष, बहुजन डाइवर्सिटी मिशन, दिल्ली )