Friday, April 19, 2024
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भारत के अतिविशाल भूतकाल और असीमित भविष्यकाल के बीच सेतु थे राजा राममोहन राय

सामाजिक परिवर्तन में राजा राममोहन राय एक बड़ा नाम थे, जिन्हें कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद आज स्त्री शिक्षा से लेकर, सती हो जाने की कुप्रथाओं को रोकने के लिए इन्हें याद किया जाता है।

राजा राममोहन राय की 251वीं जयंती के उपलक्ष्य में 

आज भारत के पुनर्जागरण के पुरोधाओं में से एक राजा राममोहन राय (22 मई, 1772) की 251वीं जयंती पर उन्हें विनम्र अभिवादन! प्लासी की लड़ाई के पंद्रह वर्ष पहले इनका जन्म हुआ था। मतलब अंग्रेजी राज की शुरुआत हो चुकी थी।

23 जून, 1757 यानी प्लासी युद्ध के बाद बंगाल में अंग्रेजी राज पूरी तरह से कायम हो गया था। भारत के अन्य हिस्सों में भी अंग्रेजों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे। अंग्रेजों ने इसके सौ साल बाद यानी 190 साल तक एकछत्र राज किया। अंग्रेजों के इसी समय के दौरान राजा राममोहन राय 22 मई (1772), महात्मा ज्योतिबा फुले (1827) और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर 26 सितंबर (1820) में पैदा हुए। इन लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद सामाजिक सुधार के कामों में अपना संपूर्ण जीवन न्योछावर कर दिया। राजा राममोहन राय अप्रैल 1831 में इंग्लैंड गए थे और 27 सितंबर, 1833 को लंदन के पास स्टेपल्टन हील में इस दुनिया को विदा कह दिया।

उस समय राजा राममोहन के पूर्वज मुर्शिदाबाद के नवाबों की सेवा में थे। महात्मा ज्योतिबा फुले 1857 के स्वातंत्र्य युद्ध के 30 साल पहले और पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर 37 साल पहले पैदा हुए। ज़िंदगी की बात की जाए तो राजा राममोहन राय 61 साल तक जिए, ज्योतिबा फुले 63 साल और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर 69 साल। देश में रहते हुए तीनों महानुभावों ने अपने शुरुआती जीवन के पंद्रह-बीस साल छोड़ हिंदू धर्म में सदियों से प्रचलित सड़ांध (सती प्रथा, महिला शोषण और जाति प्रथा) के खिलाफ काम किया। अन्यथा आज भी महिलाओं को चिता में जलाया जा रहा होता। चुल्हा, चौका और बच्चों को जन्म देने तक ही उनकी ज़िंदगी सीमित रही होती।

इतिहास के एक सिरे पर भारत के अतिविशाल भूतकाल और असीमित भविष्यकाल के बीच में राजा राममोहन राय एक मजबूत सेतु की तरह थे। एक तरफ सड़ी-गली पुरातन जाति-व्यवस्था, अंधश्रद्धा, सामंतशाही, रूढ़िवादी परंपरा के अनगिनत पहाड़ों के बीच में विकास की पारंपरिक कल्पना, अनेकेश्वरवाद की व्यवस्था थी तो दूसरी तरफ आधुनिक मानवतावाद, विज्ञानाभिमुखता, लोकतंत्र और एकेश्वरवाद को आगे बढ़ाने के इतिहासदत्त जैसे कार्य राजा राममोहन राय कर रहे थे। आज से सवा दो सौ साल पहले इस काम की शुरुआत करने की एकला चलो की कृती को तत्कालीन परम्परावादी, कर्मठ, कुपमंडुक लोगों के प्रखर विरोधों को सहन करते हुए ऐसे कार्य करना जिसे सोचकर ही मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ 1818 में पहला लेख लिखने के बाद तत्कालीन ब्रिटिश शासन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 1828 में सती प्रथा के खिलाफ कानून बनाकर उस पर पाबंदी लगा दी। यह राजा राममोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

) में 7 मई, 1861 को एकेश्वरवाद के लिए ब्रह्म समाज की स्थापना थी। यह कार्य राजा राममोहन राय ने आज से 203 साल पहले और रबिंद्रनाथ टैगोर के जन्म से 41 साल पहले किया था।

ब्रम्हो समाज के उद्देश्य और भूमिका खुद राजा राममोहन राय ने 5 जनवरी, 1830 को तैयार की। जिसके अनुसार, ‘विश्वस्त मंडल को यह जगह, इमारत, परिसर, यहाँ का सारा सामान, लोगों के रहने तथा आमोद-प्रमोद के कार्यक्रम हेतु किसी भी तरह के भेदभाव के बीना सभी को यानी जिनका, निर्गुण, निराकार, शाश्वत, अनादी-अनंत, ऐसे ईश्वर पर विश्वास है। ऐसे किसी भी धर्म के लोग इकट्ठा होकर यहाँ अपने कार्यक्रम कर सकते हैं।’ आगे जाकर राजा राममोहन ने अपने एक मित्र को कहा, ‘मेरी मृत्यु के बाद हिंदू, मुस्लिम और क्रिश्चन धर्म के लोगों ने मेरे पार्थिव शरीर पर अपना हक़ जताया तो मुझे बहुत खुशी होगी। क्योंकि मैं खुद को किसी भी धर्म का नहीं मानता हूँ। मैं खुद विश्व धर्म का हिमायती हूँ।’ यह देखकर महाराष्ट्र के एक तत्कालीन समाजसुधारक महादेव गोविंद रानडे ने कहा था कि ‘इन दस्तावेजों से अपने को असली अध्यात्मिकता तथा गहरी धार्मिकता और वैश्विक सहनशीलता का परिचय हो रहा है। इसका महत्व शायद कुछ शताब्दियों के बाद लोगों की समझ में आएगा।’ लेकिन भारत में गत चालिस साल से भी अधिक समय से जिस तरह धर्म के इर्द-गिर्द राजनीतिक स्थिति बनी हुई है, वह देखते हुए ऐसा लगता है कि मनुष्य की प्रगति का ग्राफ ऊपर-नीचे होता रहता है और वर्तमान में यह नीचे जा रहा है।

अठारहवीं शताब्दी के अंत में राजा राममोहन राय और उसकी शुरुआत में महात्मा ज्योतिबा फुले एवं पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों की भूमिका के ऊपर भी कुछ लोग उंगलियाँ उठाने वाले थे। हिंदुत्ववादियों के अलावा स्वघोषित क्रांतिकारी और अंतिम सत्य का दावा करने वाले लोगों का आरोप है कि ‘अंग्रेजों के खिलाफ इन लोगों ने क्या किया?’

यह बिल्कुल वाजिब सवाल है। हालांकि राजा राममोहन राय को राजा का खिताब दिल्ली के तत्कालीन बादशाह अकबर (द्वितीय) ने ही दिया था। राममोहन जीवन के आखिर समय (15 नवंबर, 1830) में जहाज से यात्रा पर निकल कर इंग्लैंड के किनारे पहुंचे थे। उस समय वह अकबर के प्रतिनिधि की हैसियत से ही गए थे। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने अकबर के छिने गए विशेषाधिकारों को बहाल करने और उनका सालाना भत्ता बढ़ाने की अर्जी दाखिल की थी। राममोहन के प्रयास से अकबर का सालाना भत्ता तीन लाख रुपये बढ़ा दिया गया।

जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है कि राममोहन का परिवार मुर्शिदाबाद के नवाब की नौकरी में था। सरसैयद अहमद के पूर्वज उस समय दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर की सेवा में थे। वह खुद अंग्रेजी न्याय व्यवस्था में जज के पद पर कार्यरत थे। वैसे ही महात्मा गाँधी के पिता करमचंद गांधी पोरबंदर के महाराज के दिवान थे। जवाहरलाल नेहरू के पूर्वज कश्मीर से आगरा में तत्कालीन बादशाह की सेवा में, स्थानांतरित हुए थे, लेकिन काल सापेक्षता का एक सिद्धांत है। उसके अनुसार ही इंसानों के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहिए।

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जैसा कि महाराष्ट्र में सत्तर के दशक में एक कम्युनिस्ट इतिहासकार ने छत्रपती शिवाजी महाराज को सामंतवादी राजा कहा था। उसी विचारधारा के कॉमरेड गोविंद पानसरेजी को सच्चा शिवाजी कौन नाम की पुस्तिका लिखकर प्रायश्चित करना पड़ा।

महात्मा गाँधी के ऊपर आरोप है कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के सवाल पर क्यों ध्यान नहीं दिया? गाँधीजी 1893 से 1914 तक बीस साल से भी अधिक समय दक्षिण अफ्रीका में रहे। ये उनके जीवन के निर्माणकारी वर्ष थे (मोहन से महात्मा का सफर)। इन वर्षों में ही उनके भीतर उन विविध-विचारों का विकास हुआ, जिनका बाद में न केवल भारत के इतिहास बल्कि सही अर्थों में पूरे विश्व पर गहरा असर पड़ा।

विडंबना यह है कि दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी के कार्यों पर संदेह व्यक्त किया गया कि उन्होंने भारतीय अप्रवासियों की समस्याओं को तो उठाया, पर अफ्रीकी अश्वेतों के लिए कुछ नहीं किया, क्योंकि वे वस्तुतः जातिवाद के विरुद्ध नहीं थे। दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी के संघर्ष की सीमा तथा महत्ता को समझने के लिए उन परिस्थितियों का संक्षिप्त अवलोकन महत्वपूर्ण होगा, जो उनके सामने थी। जब 1893 में एक भारतीय फर्म के दीवानी मुकदमे में कानूनी सलाहकार की हैसियत से काम करने के लिए वे मात्र तेईस वर्ष की आयु में नेटाल पहुंचे तो दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की समस्या के बारे में वह नहीं के बराबर जानते थे। यह समस्या उस समय से लगभग तीस वर्षों पहले पैदा हुई थी, जब भारत से गिरमिटिया मजदूरों को नेटाल के गन्ना, चाय और कॉफ़ी के बागानों में काम करने के लिए लाया गया था। सर डब्ल्यूडब्ल्यू हंटर के शब्दों में, ‘उन मजदूरों की स्थिति अर्द्धदासता वाली थी।’ उन्हें भारत के सबसे गरीब और घनी आबादी वाले जिलों से भर्ती किया जाता था। मुफ्त यात्रा, मुफ्त रहना-खाना, फिर पहले वर्ष दस शिलिंग का मासिक वेतन और उसमें प्रतिवर्ष एक शिलिंग की बढ़ोत्तरी तथा पांच वर्षों की सेवा के बाद भारत लौटने की मुफ्त सुविधा (विकल्प के रूप में उस देश में बस जाने की छुट)। इन सब प्रलोभनों में फंसकर हजारों गरीब और अनपढ़ भारतीय सुदूर नेटाल की ओर आकर्षित हुए।

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1890 तक लगभग चालिस हजार लोग गिरमिटिया मजदूरों के रूप में लाए जा चुके थे। गाँधीजी के पहुँचने के तीन साल पहले। हालांकि सभी यूरोपीय मालिक क्रुर नहीं थे, लेकिन दुर्व्यवहार के आधार पर मालिक बदलना आसान भी नहीं था। यदि कोई मजदूर पांच वर्षों के बाद अपना इकरारनामा पुनः नहीं करता था, तो उस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लागू किए जाते थे। बावजूद इसके इनमें से अनेक मजदूरों ने नेटाल में ही बस जाना अधिक पसंद किया, क्योंकि भारत में उनकी जड़ें खत्म हो चुकी थीं। उन्होंने जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े खरीदे और सब्जियों को उगाने लगे। वे बढ़िया जीवन जीने लगे, अपने बच्चों को पढ़ाने भी लगे। इस बात ने यूरोपीय व्यापारियों में ईर्ष्या को जन्म दिया। लिहाजा, उन्होंने आंदोलन शुरू कर दिया और मांग की कि इकरारनामे का नवीनीकरण न करने वाले हर भारतीय को वापस भेज दिया जाए। दूसरे शब्दों में, भारतीय मजदूरों को नेटाल में या तो अर्द्धदासों के रूप में रखा जा सकता था या बिल्कुल ही नहीं रखा जा सकता था।

1894 में नेटाल विधानसभा में एक विशेष कानून पारित और स्वीकृत किया गया, जिसके तहत लगभग दो सौ भारतीय व्यापारियों (जो वोट देने के हकदार बन चुके थे) को मताधिकार से वंचित कर दिया गया। भारतीयों के व्यापार और उनके अप्रवास की सुविधाओं में बड़ी रुकावटें खड़ी कर दी गईं। कोई भी अनुमति-पत्र के बीना नेटाल में व्यापार नहीं कर सकता था। किसी भी यूरोपीयन को व्यापार की यह अनुमति चाहने भर से मील जाती थी। वहीं, एक भारतीय अप्रवासी को यदि यह सुविधा मिलती भी थी तो कठिन प्रयास और काफी रुपये खर्च करने के बाद। देश में प्रवेश से पहले किसी भी यूरोपीयन भाषा की योग्यता को अनिवार्य कर दिया गया। इस तरह आयातित अर्द्धदास गिरमिटिया मजदूरों के सिवाय भारत से आने वाले अन्य समर्थ अप्रवासियों में से अधिकतर के लिए दरवाजा बंद हो गया। इन सब परिस्थितियों के मद्देनजर गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार में भारतीयों के खिलाफ इतनी अपमानजनक स्थिति को देखते हुए अपनी बैरिस्टर की अच्छी-खासी प्रैक्टिस छोड़कर वहीँ बंधुआ मजदूरों की हालत में दक्षिण अफ्रीका में जीने के लिए मजबूर थे। मजदूरों के ऊपर नए-नए कानून बनाकर (एनआरसी जैसे) उन्हें उनकी मुलभूत नागरिक अधिकारों से वंचित करने की कृती के विरोध में काम करने वाले थे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गाँधी।

अपने एक वर्षीय अफ्रीका प्रवास के शुरुआती एग्रीमेंट के खत्म होने के बाद विदाई समारोह में भारतीय मूल के लोगों के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका की सरकार के नए कानून की खबर, जो स्थानीय किसी अंग्रेजी अखबार में बहुत ही संक्षेप में थी। उसी कार्यक्रम में शामिल किसी भारतीय ने गाँधीजी का ध्यान आकर्षित कराया। गाँधीजी ने कहा कि इस कानून के अनुसार आप सबके विवाह गैरकानूनी करार किए जा रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका के नागरिकों के जैसा मतदान का अधिकार समाप्त किया जाएगा।’ (जो वर्तमान केंद्र सरकार ने एनआरसी के तहत भारत में आज करने का फैसला लिया है।) गाँधीजी के विदाई समारोह में शामिल लोगों के आग्रह पर उन्होेंने और कुछ दिनों के लिए दक्षिण अफ्रीका में रहकर भारतीयों के सवालों का मार्गदर्शन किया। इस अनुरोध पर एक साल के लिए गए आए बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गाँधी इक्कीस साल दक्षिण अफ्रीका में रहने के लिए मजबूर हुए।

इसी दरम्यान उन्होंने 1906 के अपने ऐतिहासिक सत्याग्रह की खोज की और दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों की लगभग सभी मांगों को लेकर बीस साल के उपर जो लड़ाई लड़ी और कामयाबी हासिल करने के बाद यानी 45 साल की उम्र पार करने के बाद भारत लौटे। उनके इस काम को देखते हुए दक्षिण अफ्रीका कांग्रेस ने अपने आदर्श के रूप में महात्मा गाँधी को नज़र के सामने रखकर ही रंगभेद के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया। दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के नेता नेल्सन मंडेला और अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी उन्हें अपने आंदोलन के आदर्श के रूप में देखते थे।

हमारे अपने ही देश के कुछ लोगों को गाँधी ने यह क्यों किया? वह क्यों नहीं किया? जैसी बाल के खाल निकालने के अलावा और क्या योगदान दिया है? फिर उनकी शारीरिक हत्या करने वाले लोगों में और आप में क्या फर्क रह जाता है? महात्मा गाँधी के कार्यशैली की खासियत थी कि वह जिस मुद्दे को लेकर काम करते थे उनमें अर्जुन जैसी क्षमता और एकाग्रता होती थी। इसलिए कई मुद्दों पर उन्हें यह क्यों नहीं किया? और वह क्यों नहीं किया? जैसे सवालों का सामना करना पड़ रहा है।

यही बात महात्मा ज्योतिबा फुले में थी जब उनकी उम्र तीस साल थी और समय था 1857 का युद्ध। उन्होंने 1857 की लड़ाई लड़ने वाले पुणे के पेशवाओं की 1818 में पेशवाई समाप्त होने, भीमा-कोरेगांव की लड़ाई में अंग्रेजों की जीत होने पर खुशी जाहिर की। डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने तो उसे महार रेजिमेंट के शौर्य दिवस के रूप में ही मनाने की शुरुआत कर दी थी।

क्योंकि पुणे के पेशवाई में दलित, महिला एवं पिछड़ी जातियों के लोगों के ऊपर जो अत्याचार थे, उनसे मुक्ति के रूप में अंग्रेजों के राज का समर्थन किया। कम-अधिक प्रमाण में हजारों सालों से, भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को शक, हूणों से लेकर आर्य, तुर्की, मुगलों से लेकर पर्शियन, डच, फ्रेंच, पुर्तगाली और अंग्रेजों तक, तथाकथित हिंदू कट्टरपंथियों के ओर से चलाई जा रही छुआछूत तथा जाति प्रथा के कारण (जिसमें अस्पृश्यों को गले में मटका और कमर में झाड़ू बांधकर चलने से लेकर उनकी छाया तक नहीं पड़नी चाहिए, जैसी अमानवीय बंधन थे ) यह मनुष्य के आत्मसम्मान की धज्जियाँ उड़ाने वाला समय था। इस समय किससे वफादारी की उम्मीद कर सकते हो? बहुसंख्यक आबादी को लगता होगा कि यह वर्तमान बर्बर सत्ताधारियों के बनिस्बत नया जो भी कोई आक्रमणकारी होगा, शायद बेहतर होगा। इस आशा में मुकदर्शक बने होंगे।’ मनुस्मृति के अनुसार पांच हजार वर्ष पुराने, आदर्श संविधान के अनुसार, क्षत्रियों को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के लोगों को, शस्त्रधारी होने की मनाही जो थी।

यह बात कुछ हद तक, मुस्लिम और अंग्रेजी राज में भी सही है, जिसके बारे में स्वामी विवेकानंद ने भी भारत में इस्लाम और क्रिश्चन धर्म के आगमन के कारणों के बारे में कहा है कि ‘ हमारे समाज में चली आ रही ऊँच-नीच और छुआछूत जैसी जाति-प्रथा के कारण हिंदू धर्म के कुछ लोगों ने मुक्ति के रूप में इस्लाम और क्रिश्चन धर्म स्वीकार किया है।’

इसीलिये राजा राममोहन राय, पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर, महात्मा फुले तथा महात्मा गाँधी को देखते हुए मैं समझ सकता हूँ कि उन्होंने कौन-सी बात को प्राथमिकता दी है। हालांकि, इन सभी महानुभावों ने अपने जीवनकाल में कुछ तो कृति कार्य किए हैं। लेकिन अनाम मूकदर्शक या मीर जाफ़र जैसे कुछ बेईमानी करने वाले लोगों के बारे में, आलोचकों की क्या राय है? दो-तीन सौ साल पहले इन लोगों ने अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी जीने के बजाय समाज सुधार का काम किया। कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद आज स्त्री शिक्षा से लेकर, सती हो जाने की कुप्रथाओं को रोकने के लिए इन्हें याद किया जाना चाहिए। या इन्होंने अंग्रेजी राज का समर्थन किया, यह बोलते-लिखने की बात कहाँ तक उचित है? सुना है कि ‘सती के आंकड़ों के बारे में राजा राममोहन राय ने अतिशयोक्ति की है।’ ऐसा भी तर्क कुछ लोग दे रहे हैं। तो मैं बताना चाहूँगा की तत्कालिन ईसाई मिशनरी विल्यम कैरी के अनुसार 1803 में कलकत्ता से चालिस किलोमीटर के दायरे में सती की 438 घटनाओं के रिकॉर्ड हैं। 1815-1818 के बीच में अकेले बंगाल में ही 438 जगह से 839 महिलाओं को सती पर चढ़ाए जाने का रिकॉर्ड हैं। इसी कारण से भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने बंगाल सती विनियमन 1829 को अधिनियम पारित किया। सती प्रथा के अलावा, हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह अधिनियम 1870 और सहमति अधिनियम 1891 लॉर्ड डलहौजी ने पारित किया। खैर, आँकड़े तो बहुत ही चौंकाने वाले हैं। वह बात दीगर है लेकिन पति के निधन के बाद एक भी औरत को चिता पर चढ़ने की घटना को मैं अमानवीय और बर्बरता के उदाहरण को सहने वालों की असंवेदनशीलता का लक्षण मानता हूँ।

अभी अस्सी वाले दशक में राजस्थान के देवरिया की रुपकँवर के सती हो जाने की बात के खिलाफ और समर्थन में प्रदर्शन हुए। उसके बाद देश के कुछ हिस्सों में सती मंदिर बनने की घटना मुझे याद है। उस समय अमरावती में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की तरफ से हम लोगों ने उस मंदिर निर्माण के खिलाफ प्रदर्शन भी किया था।

हालांकि, औरतों को जलाने का संबंध संपत्तियों को लेकर ही है और इसलिए राजा राममोहन राय ने उस समय औरतों को संपत्ति में कानूनी रूप से अधिकारो की भी मांग की। आज से दो सौ साल पहले 1823 में अखबारों के प्रतिबंध के खिलाफ भी राजा राममोहन राय, द्वारकानाथ टैगोर और प्रसन्न कुमार टैगोर के संयुक्त तत्वावधान में उस प्रतिबंध के खिलाफ याचिका दायर की। उस याचिका का लेखन खुद राजा राममोहन राय ने ही किया था।

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सरसैयद अहमद (17 अक्टूबर, 1817 – 27 मार्च, 1898 ) ने 1857 का युद्ध उम्र के चालीसवें साल में अपनी आँखों से देखा था और उसके बाद अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ जुल्मों को भी। उन्हें लगा कि इससे अंग्रेज संपूर्ण रूप से मुसलमानों का खात्मा कर सकते हैं। अंग्रेजी राज में जज रहते हुए 1875 में अलीगढ़ स्कूल की स्थापना करके अपनी कौम को आधुनिक शिक्षा व वैज्ञानिक सोच के लिए विशेष रूप से कोशिश किए। कुछ हद तक उन्हें अपने उद्देश्यों में कामयाबी भी हासिल हुई। आज वही अलीगढ़ स्कूल भारतीय उपमहाद्वीप में बेहतरीन शिक्षा का केंद्र के रूप में मान्यता प्राप्त है। उस समय के कट्टरपंथी मौलवियों ने हमेशा सरसैयद अहमद को अंग्रेजों के दलाल के रूप में देखते हुए उनका विरोध किया।

क्या राजा राममोहन राय या पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर, महात्मा फुले और महात्मा गाँधी को हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी लोगों की आलोचना नहीं सहनी पड़ी? यहां तक कि हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गाँधी की शारीरिक हत्या के बाद अब वैचारिक हत्या का प्रयास भी जारी है। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के नीग्रो के लिए क्या किया? हम यही सवाल करते रहेंगे? वैसे ही राजा राममोहन राय ने लॉर्ड बैंटिक की सहायता से सती प्रथा के खिलाफ कानून पारित नहीं किया होता तो अब तक भारत की आधी आबादी कही जाने वाली महिलाओं की स्थिति बद्तर हो गई होती। आज भी हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में किसी महिला के गर्भ में बेटी की जानकारी होने पर गर्भपात बदस्तूर जारी है। केरल छोड़कर भारत के सभी क्षेत्रों में लड़कियों का अनुपात कम होने की वजह क्या है? राजा राममोहन राय के साथ सामाजिक परिवर्तन करने वाले सभी महानुभावों की जयंती और पुण्य स्मरण मनाने के अलावा उनके उस काम को भी आगे बढ़ाना ही उनको सच्ची श्रद्धांजली हो सकती है।

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया इसी तरह से चलती रहती है। यह तारतम्यता की आवश्यकता है। आज राजा राममोहन राय के 251वें जन्मदिन पर  बंगाल के पुनर्जागरण के पुरोधा की स्मृति को विनम्र अभिवादन।

 

 

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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