एक थीं रानी रासमणि!

चौधरी लौटनराम निषाद

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भारतीय सभ्यता और संस्कृति के शिल्पियों में एक यशस्वी महिला का नाम जुड़ा है, जिनका नाम था रानी रासमणि। इनका जन्म एक मल्लाह परिवार में सन् 1793 ई० में बंगाल के 24 परगना जिला में हुआ था। आपके पिता का नाम हरिहर दास और माता का नाम रामप्रिया था। इनके दो भाई रामचन्द्र और गोविन्द थे। इनका विवाह कलकत्ता के एक अत्यन्त धनाढ्य जमींदार रामचन्द्र दास के साथ बंगला 1211 में शताब्दी वैशाख की आठवीं तिथि को हुआ था। 25 लाख मुद्रा की लागत से कलकत्ते में स्कूल स्ट्रीट पर बने महल में रासमणि ने 1831 में गृह प्रवेश किया। 1823 में इनके पिता का तथा 1836 में इनके पति का स्वर्गवास हो गया। अतः रानी रासमणि 43 साल की आयु में ही विधवा हो गयीं। रानी की 4 पुत्रियाँ थी। उनके दामादों का नाम हरीराम चन्द्र, प्यारे मोहन चौधरी तथा मथुरा नाथ था। सन् 1831 में करूणामयी के देहावसान के कारण रानी की चौथी पुत्री जगदम्बा का विवाह मथुरा नाथ के साथ ही कर दिया गया था।

रानी रासमणि बचपन से ही धार्मिक स्वभाव वाली न्यायप्रिय, निर्भीक एवं स्वाभिमानी महिला थीं। इनमें राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। एक बार सन 1838 में रानी ने अपने कुल देवता रघुनाथजी का चांदी का रथ बनवाने का निश्चय किया। जिसको मथुरा बाबू ने एक विदेशी जौहरी हेलिलटन से बनवाने का प्रस्ताव रखा, किन्तु रानी ने इसे एक भारतीय कारीगर से ही बनवाना उचित समझा। इस रथ में एक लाख बीस हजार पन्द्रह रुपये खर्च हुए थे। एक दूसरी घटना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। एक बार दुर्गा पूजा के दिन गंगा स्नान के लिए लोग गाजा बाजा के साथ जा रहे थे, उन्हें अंग्रेजों ने निकलने से रोक दिया था। इस बात की सूचना मिलने पर रानी ने उस जुलूस को और अधिक गाजे-बाजे के साथ निकलवाया। अंग्रेजों ने रानी पर शान्ति भंग का आरोप लगाकर पचास रुपये का जुर्माना लगा दिया, जिसे रानी ने अदा कर दिया। परन्तु अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने जाम बाजार से बाबू घाट तक का रास्ता उनके लिए बन्द कर दिया। गोरी सरकार के विरोध करने पर उन्होंने कहलवाया कि अपनी जमीन पर सब कुछ करने का उन्हें अधिकार है। रानी द्वारा उठाए गये इस कठोर कदम के आगे अंग्रेजी सरकार ने घुटने टेक दिये और 50 रूपये का जुर्माना वापस कर क्षमा मांगा।

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रानी ने बहुत से धार्मिक एवं जनकल्याणकारी कार्य किये। एक बार नदी में तूफान आने पर बहुत से गरीब लोगों के घर द्वार उजड़ गये। उन सबों के घर को रानी ने स्वयं अपने पैसे से बनवाया। कोना गांव में उन्होंने स्थानीय लोगों की सुविधा के लिए घाट तथा विश्राम स्थल आदि बनवाया तथा मधुमती नदी को नहर के द्वारा नवगंगा से जोड़कर सिंचाई की व्यवस्था करवायीं। सोनाई बलिया घाट, भवानीपुर तथा कालीघाट मुहल्लों का निर्माण रानी द्वारा ही कराया गया था। वर्तमान कलकत्ता नगर हुगली नदी के किनारे जिन तीन स्थानों को मिलाकर बसाया गया था, उनके नाम कालीकाता, गोविन्दपुर तथा सूताघाटी था और यह सम्पूर्ण भूमि निषाद रानी रासमणि की सम्पत्ति थी। रानी अन्य धर्म के अनुयायियों की भी सहायता किया करती थीं। उन्होंने बहुत से बौद्ध मठों का निर्माण करवाया था।

एक बार अंग्रेजी सरकार ने कलकत्ता में जान्हवी नदी में मछली मारने पर कर लगा दिया, जिससे गरीब निषाद मछुआरों पर आर्थिक संकट आ पड़ा। इस बात की सूचना जब निषाद रानी रासमणी को मिली तो उन्होंने नदी के समस्त क्षेत्र को पट्टे पर ले लिया तथा चारों तरफ से जंजीर खिंचवाकर अंग्रेजों के जहाज के आवागमन को रोक दिया। अंग्रेजों का जहाज अब न कलकत्ता पहुँच सकता था और न वहाँ से जा सकता था। इससे अंग्रेजों में जबरदस्त खलबली मच गयी। अन्ततोगत्वा अंग्रेजों ने रानी से समझौता किया तथा जलकर समाप्त कर दिया। आज भी निषाद रानी रासमणि केवट जी व अंग्रेजों के बीच हुए समझौते के कारण बंगाल में मत्स्याखेट व शिकारमाही के लिए नदियों की नीलामी नहीं होती है।

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दक्षिणेश्वर में रानी ने एक भव्य काली के मन्दिर का निर्माण करवाया, परन्तु इस मन्दिर में कोई भी ब्राह्मण पुजारी के कार्य को करने के लिये तैयार नहीं हुआ। क्योंकि रानी रासमणि मल्लाह जाति की थीं। ऐसी सामाजिक व्यवयस्था निःसन्देह दु:खद थी। विशेषकर निषाद रानी रासमणि के लिए जिन्होंने धर्म की स्थापना के लिए बंगाल में बड़े-बड़े कार्य किए। अंग्रेजी सरकार से मुठभेड़ लेने की किसी में ताकत नहीं थी। जबकि रानी रासमणि ने एक छोटी जाति की महिला होते हुए भी अंग्रेजों को कई मौके पर घुटने टिकवा दिये। राष्ट्रभक्त एक साहसी एवं धार्मिक महिला पर बंगाल के उच्च वर्ग को गर्व करना चाहिए था। उनके बनवाये हुए मन्दिर के पुजारी पद के लिए ब्राह्मणों में होड़ लग जानी चाहिए थी। परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। उत्साही मथुरा बाबू के प्रयासों के फलस्वरूप पास के क्षेत्र से रामकृष्ण का पता लगा, जो छोटी उम्र के एक गरीब ब्राह्मण थे तथा पुजारी बनने के लिए राजी थे। निषाद रानी रासमणी के मन में किसी भी समाज के प्रति विद्वेष की भावना नहीं थी । अतः रामकृष्ण को उन्होंने अपने मन्दिर का पुजारी ही नहीं बनाया बल्कि उनकी हर प्रकार से सहायता भी कीं।

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भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का सारे विश्व में धूम मचाने वाले स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा उन्हीं के समतुल्य उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द को स्थापित कर निषाद रानी रासमणी ने स्वयमेव भारतीय गौरव की प्रतीक तथा मानव को सद्भावना एवं विश्व बन्धुत्व की ओर ले जाने वाली शौर्य बन गयीं। रानी रासमणि द्वारा स्थापित आदर्श आने वाली पीढ़ी को युग-युग तक प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। हमें इस ममतामयी माँ पर गर्व है तथा हम सब उनके कदमों में नतमस्तक हैं।

लेखक व संकलनकर्ता निषाद ज्योति पत्रिका के सम्पादक व निषाद इतिहास लेखक हैं

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