मैं किसी का विरोध नहीं करता, प्रतिवाद या प्रतिरोध नहीं करता क्योंकि ये इंडियन सोसाइटी की कमी (या कहें खूबी को बखूबी पहचानते थे) है… इंडियन सोसाइटी बास्टर्ड सोसाइटी है क्योंकि यह न किसी को इनाम देती है न सजा। मुझे नहीं पता कि तस्लीमा नसरीन ने ऐसा क्या लिख दिया और मैंने नहीं लिखा।
ऐसा असंतोष और गुस्सा जाहिर करते हुए ग्लानि और ताकत दोनों महसूस करने वाले इस संवेदनशील कवि विद्रोही ने उक्त बात अपनी फिल्म मैं तुम्हारा कवि हूँ में कही। साथ ही उन्होंने इस बात को भी स्वीकार किया कि उनकी रचनाओं में वे कितने डरावने और भयानक हो गए हैं। यह बात उन लोगों को अच्छी तरह समझ में आ गई थी इसीलिए उनकी धारदार कविताएँ, जिनमें समाज के बुर्जुवा और शोषक वर्ग पर घोर प्रहार हुआ है, को पूरे साहित्यिक और बुद्धिजीवी वर्ग ने सुनते-पढ़ते हुए भी नजरअंदाज़ किया। लेकिन विद्रोही ने हार नहीं मानी ।
विद्रोही की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे उन पर बनी एकमात्र डाक्युमेंट्री मैं तुम्हारा कवि हूँ देखने का मन हुआ और देखने के बाद सच कहूँ, मैं बहुत ही भावुक हो गई। देखकर लगा वास्तव में इन जैसे बड़े कवि के साथ सिस्टम ने हर जगह अन्याय किया लेकिन ज़िद्दी और अकडू स्वभाव के इस जीवट वाले कवि ने अंत तक अपनी अकड़ बनाए रखी। अधिकतर लोग स्वांत: सुखाय के लिए कलाकार और रचनाकार होते हैं। लेकिन जिनके सरोकार बड़े होते हैं और जो जनता की आवाज बनकर जीते हैं, उनके लिए रचनाकर्म करते हैं, वे ही जनता के कवि-लेखक-कलाकार होते हैं। वैसे देखा जाए तो सामाजिक-राजनीतिक सरोकार रखने वाले रचनाकार हमारे देश में विलुप्तप्राय प्रजातियों में आ गए हैं। कुछ ही हैं, जिनके लेखन में आग है। उनमें विद्रोही जी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। 1980 से लेकर जीवन की आखिरी साँस तक वे जेएनयू में रहे। जेएनयू ही उनका घर था। घर कहने का मतलब कोई ऐसा नहीं कि दो-तीन कमरे का घर, जहाँ सोने-बैठने का कमरा और खाना पकाने की रसोई हो। विद्रोही का घर कहना याने किसी पेड़ के नीचे एक चादर बिछाकर और दूसरी ओढ़कर निश्चिंत भाव से सो जाना और जरूरत पड़ने पर वहीं कहीं बैठकर आराम कर लेना, प्लास्टिक की दो-तीन थैलियों में उतरन और बेढंगे कपड़े पेड़ की शाखाओं लटके हुए दिख जाते। स्वाभिमान और बेपरवाही उनके स्वभाव का अहम हिस्सा रही और शायद यही इनकी पूँजी थी, जो उन्हें अन्य लोगों से अलग करती थी। हममें से किसी को भी यदि एक रात ट्रेन का इंतजार करते हुए रेलवे प्लेटफॉर्म पर गुजारना पड़े तो कितना भारी और कष्टकारी मालूम होता है लेकिन इस शख़्स ने अपनी ज़िंदगी के 34 वर्ष इसी कैंपस में खुले आसमान के नीचे गुजार दिए क्योंकि उस व्यक्ति को जेएनयू से लगाव था, फिल्म में भी उन्होंने जेएनयू को शुक्रिया कहा जबकि वहाँ से कई बार अपमानित करके उन्हें निकाले जाने का नोटिस मिला लेकिन छात्र-छात्राओं के बीच लोकप्रिय होने की वजह से जेएनयू में हर बार उन्हें रोक लिया गया। दिल्ली में उनका ठिकाना नहीं था, ऐसा नहीं था। उनका अपना घर-परिवार है, बेटी-बेटा और पत्नी हैं पर उन्हें तो जुनून था जेएनयू का। प्रकृति से प्रेम और उस पर भरपूर भरोसा था। इसी वजह से खुले में जंगल में सोते हुए कभी डरे नहीं। पूरी फिल्म में सिस्टम के अलावा किसी से कोई शिकायत करते नजर नहीं आए। पूरे मगनराम और संतुष्ट। उनकी चिंता खुद की रोटी और छत नहीं बल्कि फक्कड़ होते हुए भी उनकी चिंता के केन्द्र में दुनिया का इतिहास, राजनीति, धर्म, इंसानियत, किसान, समाज और समाज में विशेषकर स्त्रियाँ हैं। और कोई होता तो शायद अपनी कविताओं को छपवाकर, बेचकर स्थापित हो चुका होता और दो-चार-दस पुरस्कार बटोर लिया होता। लेकिन विद्रोही के भीतर जलती हुई आग ने उन्हें इतना चतुर और जुगाड़ू नहीं बनने दिया।
इसके पहले मैंने 2015 में उनके नहीं रहने पर फेसबुक पर शेयर की गई कविताएँ पढ़ी थी। न उसके पहले, न उसके बाद। लेकिन जब किसी के लिखे का ज़िक्र बार-बार होने लगे तो जरूर उसे पढ़ने का मन होता है। इधर अगोरा प्रकाशन से आने वाली किताब विद्रोही होगा हमारा कवि को तैयार करते समय लोगों के लेख पढ़ने का मौका मिला। सच कहूँ, कविता पढ़ना वैसे तो मुझे खास पसंद नहीं लेकिन विद्रोही की कविताओं और उनके संघर्ष ने मुझे भीतर तक झंझोड़कर रख दिया और फिल्म मैं तुम्हारा कवि हूँ देखने के बाद लगा कि इस कवि के व्यक्तित्व का दायरा विस्तृत आकाश तक फैला हुआ है। पूरी दुनिया के इतिहास, भूगोल, राजनीति से वे अच्छी तरह वाकिफ़ थे और उस पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी। कविताओं में आए रूपक और संदर्भ इस बात के प्रमाण हैं।
पहली नज़र में पागल और साधारण से दिखने वाले, एक हड्डी की देह वाले, बेतरतीब फैले बाल, बढ़े हुए नाखून और खिचड़ी दाढ़ी रखने वाले औसत कद के विद्रोही के व्यक्तित्व की बेतरतीबी और बिंदासी ही उनके प्रति आकर्षण पैदा करती है। कपड़े उनके नाप से बड़े और पुराने लेकिन वे उनमें से एक थे जो कपड़ा मात्र तन ढँकने के लिए पहनते और खाना शरीर की जरूरत को पूरा करने के लिए खाते थे। उनकी अपनी दुनिया थी जिसमें वे डूबे दिखाई देते थे। कहने का तात्पर्य यह कि वे बाहर होते हुए भी भीतर तक डूबे रहते थे। पहली बार अनेक लोग उन्हें पागल समझ बैठते। कविता पढ़ते हुए बिलकुल एक बच्चे-सा उत्साह उनमें दिखाई देता। एक कविता को जब यूट्यूब में देखा तो उनके अंदाज़ के क्या कहने! सुनकर लगा कि जैसे आज ही तैयार कर पहली बार पढ़ रहे हैं। आवाज़ में कमाल का बेस। फिल्म में उनकी आँखों को देखकर लगा कि आँखें कुछ देख नहीं रहीं बल्कि सोच रही हैं। और उनकी चाल में गज़ब की ठसक थी। जब शान से चलते तो लगता कि पूरा आत्मविश्वास उनके कदमों में आ गया हो। अपनी लंबी कविताओं को एक साँस में बिना रुके और भूले पढ़ जाते थे। कभी उन्होंने अपनी कविताएँ किसी डायरी या पन्ने पर लिखकर तैयार नहीं की। किसी सभा या आन्दोलन में कविता कहते हुए देखकर महसूस होता कि वे बहुत ऊँचे वैचारिक स्तर के आशुकवि हैं। जेएनयू कैंपस में आन्दोलन में हमेशा उनकी भागीदारी दिखाई देती। यह व्यक्ति शायद बना ही दूसरों की आवाज उठाने के लिए था। विद्रोही केवल जन-आंदोलन में भाग लेने, कविता कहने, पढ़ने और सुनाने के लिए ही पैदा हुए थे और अपनी शर्तों पर जीवन जीते हुए उन्होंने कविता में अपनी बात कहते हुए अपनी जिम्मेदारी बेहतरीन तरीके से पूरी की।
कभी भी किसी अन्य कवि या साहित्यकार ने इनकी कविताओं पर कभी कुछ नहीं कहा – लिखा बल्कि नज़रअंदाज किया। इसके बाद भी वे बेपरवाह रहते हुए रचनाकर्म में लगे रहे। जेएनयू बड़े-बड़े साहित्यकारों का अड्डा रहा है। लोगों को मालूम था कि उन पर कुछ कहना या लिखना साहित्य की दुनिया में उन्हें और मजबूती से स्थापित करना होगा। लेकिन सच यह है कि जातिवादी, वर्णवादी और वर्गवादी समाज में पिछड़ी जातियों के लोगों को आगे बढ़ते देखना बहुत ही कष्टदायी होता है। विद्रोही ने कभी इसकी शिकायत नहीं की है। उन्होंने अनेक बार अन्य कवियों के साथ मंच पर कविताएँ पढ़ीं लेकिन लोगों ने कविता के किसी तज़किरे में विद्रोही को शामिल नहीं किया। सच बात यही है कि तथाकथित प्रतिभाशाली और प्रगतिशील समाज भयानक रूप से पोंगा और ढोंगी है। उसे हमेशा अपने वर्चस्व के खोने का खतरा महसूस होता है इसलिए वह कभी भी खुली प्रतियोगिता में नहीं उतरता। बल्कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी की कमजोरी पर प्रहार करके उसे खत्म करने का षड्यंत्र करता है। पिछड़े समाजों के अपने से मजबूत लोगों को कम आँकते हुए अपने बीच जगह देने से डरता है। जबकि विद्रोही अच्छी तरह से बड़ी लाइन खींचना जानते थे और इसी कारण वे आज बड़े रेंज के कवि हुए।
बहरहाल, यह सब दिखाई देने वाला सच है लेकिन हर किसी के मन में यह सवाल उठना लाजिम है कि विद्रोही की हर कविता में इतना आक्रोश और विद्रोह क्यों दिखाई देता है? ऐसा नहीं कि यह आक्रोश जेएनयू में हुए अन्याय की परिणति भर था बल्कि जेएनयू में आने से पहले गाँव में रहते हुए अवधी में लिखी गई कविताओं में भी यही आक्रोश देखने को मिलता है। एक बात उन्हें अच्छी तरह समझ में आ गई कि शिक्षा के मठ में बैठे मठाधीश आज भी पिछड़े वर्ग को पढ़ने और आगे बढ़ने से रोकने की योजना में लगे हुए हैं। इसी वजह से उन्होंने जेएनयू में उनकी नाक के नीचे रहते हुए उनकी छाती पर मूँग दलने का काम आखिरी साँस तक किया। यह उन्हीं के बस का था। और कोई होता तो प्रवेश परीक्षा में अयोग्य कर दिए जाने के बाद इसे अपनी नियति मानकर चुपचाप किसी अन्य जगह काम खोजकर सामान्य जीवन जीने का प्रयास करता। समाज की असमानता को उन्होंने कभी बर्दाश्त नहीं किया। उनकी हर कविता समाज के प्रति हुए अन्याय को व्यक्त करती हैं। जैसे उनकी कविता जन-गण-मन में आई एक पंक्ति कि मुझे बिठा दिया गया है प्यास के पहाड़ों पर कि मेरी आँखों में टाँग दिया गया है भूख का भूगोल। यह विडंबना ही है कि भूख का भी भूगोल इन भाग्य विधाताओं ने बना दिया है। स्वयं को पराजित योद्धा मानते हुए भी जन-गण-मन अधिनायक के मरने की बद्दुआ करते हुए भारत भाग्य विधाता के अपने से पहले मरने की दिली चाहना करते हैं क्योंकि देश का भाग्य-विधाता भाग्य विधाता नहीं है इसके उलट भाग्य-नाशक है।
सिस्टम से त्रस्त और पस्त विद्रोही थके और हारे नहीं बल्कि उसे गरियाते हुए उन औरतों की बातें करते हैं, जिन्हें इतना सताया गया कि उन्होंने कुएँ में कूदकर और जलकर आत्महत्या कर ली। उन्हें लेकर उनके भीतर इतना क्रोध है कि उन औरतों को ज़िंदा कर देश की न्याय व्यवस्था पर अविश्वास जाहिर करते हुए कहते हैं कि उसे पूरी तरह खारिज कर खुद की अदालत में हर उस अपराधी को तलब करेंगे जिन्होंने औरतों की हत्या को आत्महत्या कहा। इस कृत्य के लिए माफ न करते हुए वे उसे सजा देंगे। वे इतिहास में औरतों पर किए गए ज़ुल्मों के लिए भी न्याय करना चाहते हैं। मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी शीर्षक कविता में कहते हैं कि हर सभ्यता में जलाई गई औरतों की लाश है। चाहे वह प्राचीन सभ्यता मेसोपोटामिया, सीथिया, रोमन या ब्रिटिश, अमरीकी या बंगाल से लेकर दुनिया की कोई भी सभ्यता हो। औरतों को सताने और मारने की प्रवृत्ति प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक इतिहास तक में शामिल है। पितृसत्ता की ख़िलाफत उन्होंने अपनी हर उस कविता में की जिसके केन्द्र में स्त्री है। इतना गुस्सा है कि स्पार्टाकस की तरह युद्ध कर गुलामों को शोषण और दमन से मुक्त करना चाहते हैं। ऐसा वही कवि सोच और लिख सकता है जिसके अंदर समाज में फैली अव्यवस्था से बहुत गहरी नाराजगी हो।
उनकी कविता धर्म में कहा गया है कि लोगों के मन में धर्म को लेकर कूड़ा भरा है। धर्म में की गई लीपा-पोती ही सूअरों को भगवान मानने को बाध्य करती है, और लोग मानते हैं। इतना कि धर्म के नाम पर शंबूक वध और एकलव्य के अँगूठे की दक्षिणा को जायज ठहराया जाता है। जहाँ धर्म देह के विज्ञान को दरकिनार कर खीर खाकर बच्चे पैदा करता है। कवि थोपे गए ब्राह्मणवादी कुसंस्कार को अपनाने से इनकार करता है। मतलब विद्रोही ने समाज और धरती के लिए धर्म को कतई बेमतलब माना है।
फिल्म में नानी कविता को सुनते हुए लगा कि इस कविता में आया मेटाफर बहुत ही अद्भुत है, जिसमें एक बच्चा याद्दाश्त में बसे ननिहाल को जीते हुए नानी के वैभव का बखान तो करता है लेकिन यह कहते हुये कि जब ननिहाल का जीवित इतिहास नानी ज़िंदा है तो उसके आगे ननिहाल का बखान नहीं करना चाहिए। जब तक नानी है तब तक ननिहाल है। उसके बाद तो ननिहाल यादों और सपने में ही आता है। हर बच्चे को अपनी नानी और हर नानी को अपने नाती से विशेष लगाव होता है। वह अपनी नानी की सुंदरता का बखान निख-शिख की उपमा से नहीं करते हुए उससे भी शानदार तरीके से करता है। नाती, जो नानी के प्यार को इतने नजदीक से महसूस करता है। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए दुनिया के ऐतिहासिक विकास क्रम के साथ-साथ प्रकृति की सादृश्यता को रेखांकित करता है। नानी की आँखें देखो तो जैसे लगता है कि इस स्त्री की आँखें इतिहास के तमाम मोड़ों से गुजरते हुए दुनिया भर के व्यवहार, अनुभव, संस्कृति और मनुष्यता भरी हुई हैं।
इस कविता में जिन रूपकों का इस्तेमाल विद्रोही ने किया है वे लोकल न होकर ग्लोबल हैं। सोचिए, उनकी समझदारी और सोच का दायरा कितना विस्तृत है? यह कविता नानी के स्वभाव, उनके काम और अहीर किसान औरत की मेहनत की गहरी पड़ताल करती है। विद्रोही उनसे पूछते हैं कि ऐ बुढ़िया! तू इतना घमंड से अकड़कर चलती है, लोगों को इतना डाँटती है, तू इतना काम करती है, मेहनत करती है, निर्भीक रहती है ये तो बता कि तू आदमी है या आदमियत का पेड़ है? इस सवाल का जवाब विद्रोही खुद ही देते हुए कहते हैं कि मेरी नानी आदमियत का पेड़ थी। जिस जगह शोषण नहीं है, गुलामी नहीं है वह आदमियत का सबसे बड़ा मेयार है। और वे खुद को इस पेड़ का एक पत्ता बताते हैं। वे कहते हैं कि मेरी नानी मरी नहीं है। देह भले न हो उनकी लेकिन वे यादों में जीवित हैं। उन्होंने बड़े-बड़े सादृश्यों से नानी के वैभव को शानदार ढंग से सामने रखा और यह नानी अकेले उनकी नानी नहीं है। वह मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी पर अपनी खोई हुई चाबी खोजते हुए अपनी एकमात्र साड़ी सुखाती है। नहाने के बाद आधी धोती सुखाते हुए आधी धोती से देह को ढँका है। यहाँ गरीबी, बदहाली और अभाव के साथ-साथ मनुष्य होने की आजादी है। आजादी किसी वर्ग या सत्ता की मोहताज नहीं है क्योंकि गरीब व्यक्ति भी आजाद रहना चाहता है और जिसने इसे खो दिया वह कितना भी संसाधनयुक्त हो जाए तब भी उसका कोई महत्व नहीं है। इसके विपरीत आजाद खयाल व्यक्ति कितनी भी गरीबी में रहे वह गुलामी की मानसिकता में नहीं रह सकता।
नानी, जो चाबी साड़ी के कोने में बाँधती है वह आखिरी सीढ़ी पर कहीं सुखाते हुए खो गई है और नानी उसे बेसब्री से खोजती है। यह चाबी क्या है? दरअसल यह चाबी आजादी की चाबी है, व्यक्तित्व की चाबी है। वजूद की चाबी है। विद्रोही अपनी नानी के बहाने उन स्त्रियों की बात कर रहे हैं जिनकी ज़िंदगी को कहीं और कभी भी दर्ज नहीं किया गया। और कहते हैं कि जो वह जानती है मैं नहीं जानता। यह आजादी बहुत बड़ी आजादी है। इस कविता की सबसे मार्मिक बात श्रमजीवी परिवार के उस कौशल से है जहाँ नानी सिर पर दही की डलिया के रूप में दुनिया का बोझ उठाते हुए हाथ हिलाते हुए, संतुलन बनाए हुए चल रही है। एक स्त्री ने जिस व्यवस्था के तहत जिन वस्तुओं का उत्पादन किया उसी में खत्म हो गई। उसी में चली जा रही है। गाय जो एक अहीर के जीवनयापन का एक महत्वपूर्ण संसाधन है, मेरी नानी ने उसे हिमालय के खूंटे से बाँध दिया है। यहाँ हिमालय भारत देश के सम्मान का रूपक बन गया है और नानी उसकी छाती पर मूँग दल रही है। मतलब उसे परेशानी में डाल देना चाहती है अर्थात देश में अपनी आजादी और बराबरी की माँग कर रही है। विद्रोही कहते हैं कि मैं चाहता हूँ कि वह न जाए। उसको पकडूँ, उसको बुलाऊँ लेकिन बुला नहीं पा रहा हूँ जैसे मेरे मुँह में दही जम गई है। मैं उसे पकड़ना चाहता हूँ लेकिन मैं उसे पकड़ ही नही पा रहा हूँ। मेरी देह एक सूखे पत्ते की तरह काँप रही है। मेरी मजबूरी है। बुला नहीं पा रहा हूँ। लग रहा है कि अब गिरा कि तब गिरा, पता नहीं क्या होगा? ऐसी थी मेरी नानी!
यह कविता एक ऐसी अव्यक्त औरत की कहानी है जिसकी कहानी, जिसका जीवन, जिसका संघर्ष कहीं दर्ज़ नहीं किया गया। ऐसी औरत जो बूँद की तरह है लेकिन उसे समुद्र की तरह देखा है विद्रोही ने। उसे इतने बड़े रूपक में बाँधा कि वह एक महान चरित्र बन गई और उस पर लिखी गई कविता एक यादगार कविता बन गई। यह इस कविता का छोटा-सा पर्याय है लेकिन हम इस कविता के माध्यम से नानी के विशाल, श्रमशील और संघर्षशील स्त्री के व्यक्तित्व से परिचित होते हैं।
विद्रोही की फिल्म में जो स्थिति दिखाई गई है वह तो वाकई उनके दुर्धर्ष व्यक्तित्व और जीवट को बताती है। वे अपने दौर, अपने देश के सांस्कृतिक मानस, ब्राह्मणवाद, जाति व्यवस्था, धार्मिक पोंगापंथ और जड़ता के खिलाफ बहुत बड़ी चुनौती हैं। इस चुनौती से पार पाना आसान नहीं है!
वास्तव में विद्रोही जी बिलकुल अलग धारा के बेबाक और निर्भीक कवि थे जिन्होंने सिस्टम के आगे झुकना या उससे समझौता करना कबूल नहीं किया और अन्याय, शोषण के खिलाफ और स्त्रियों के पक्ष में अपनी रचनाएं सृजित की। वे आधुनिक दौर के मौखिक परंपरा के ऐसे बिरले और बेजोड़ कवि थे जिनकी मिसाल ढूंढे से नहीं मिलती है। उनकी कविताएं अग्निपुंज के समान है जिसे सुनते गुनते हुए बिना आंच और ताप का अनुभव किए बचा रहना मुश्किल है। आधुनिक दौर के एक ऊर्जावान और ईमानदार कवि जिसे आलोचकों, जेएनयू सहित तमाम अन्य विश्विद्यालयों के स्वनामधन्य हिंदी प्रोफेसरों ने कभी भी नोटिस में नहीं लिया क्योंकि वह उनके आभिजात्य वर्ग का न होकर एक पिछड़ी जाति से आता था। अगोरा प्रकाशन ने श्री संतोष अर्श के संपादन और रामजी यादव जी के संयोजन/मार्गदर्शन में “विद्रोही होगा हमारा कवि” शीर्षक से बेहद पठनीय और संग्रहणीय किताब प्रकाशित की है। यह किताब वास्तव में रमाशंकर विद्रोही के अवदान के प्रति सच्ची और समीचीन आदरांजलि और श्रद्धांजलि है। आपका यह आलेख उनसे जुड़ी तमाम बातों/kathyon/तथ्यों को बड़ी सटीकता और कुशलता से विश्लेषित और विवेचित करता है। बधाई।
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