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ग्राउंड रिपोर्ट

विद्रोही ऐसे कवि थे जो अपने गलत चित्रण का हमेशा विरोध करते थे

विद्रोही पर लेख लिखने की शुरुआत उन पर बनी फिल्म मैं तुम्हारा कवि हूँ देखने के बाद हुई। फिल्म देखने के बाद लगातार 2-3 दिन तक डिस्टर्ब रही, और लगातार उनके और उनकी कविताओं में आए आक्रोश बारे में रामजी से बातचीत होती रही। उनके जीवन संघर्ष, उनकी दृढ़ता और कभी हार न मानने वाले […]

विद्रोही पर लेख लिखने की शुरुआत उन पर बनी फिल्म मैं तुम्हारा कवि हूँ देखने के बाद हुई। फिल्म देखने के बाद लगातार 2-3 दिन तक डिस्टर्ब रही, और लगातार उनके और उनकी कविताओं में आए आक्रोश बारे में रामजी से बातचीत होती रही। उनके जीवन संघर्ष, उनकी दृढ़ता और कभी हार न मानने वाले शख्स के रूप में उनकी जीवनकथा कमाल की है और विलक्षण भी। पेड़ पर टंगी उनके कपड़ों की थैलियों का दृश्य दिल चीर देने वाला था।

क्या दुनिया का कोई कवि ऐसे हालात में भी जी सकता है? लेकिन इस बीच उनकी बेटी अमिता कुमारी से फोन पर बात हुई और बात करने के दौरान जब मैंने विद्रोहीजी के जीवन के बारे में चर्चा की, जैसा कि फिल्म में देखा था, तो तुरंत उन्होंने ऑब्जेक्शन किया और बताया कि विद्रोही जी वैसे नहीं थे जैसा फिल्म में दिखाया गया और बहुत अफ़सोस के साथ कहा कि उन्हें अहिराने में नहीं दिखाया गया बल्कि मस्जिद में दिखाया गया, आन्दोलनकर्ता के रूप में न दिखाकर फिल्मकार ने एक ऐसे कवि के रूप में चित्रित किया है जैसे उन्हें समाज और दुनिया से कोई सरोकार न हो। और इसके बाद उन्होंने मुझे उनका एक आॅडियो भेजा जो विद्रोहीजी ने इस फिल्म को लेकर ही अवधी बतकही में रिकॉर्ड करवाया था। इस फिल्म को लेकर उन्हें बहुत ही निराशा और नाराजगी थी जो उनके हर वाक्य से जाहिर हो रही है। मैंने उसका शब्दांकन कर लिया है और वह इसी लेख के साथ छप रहा है।

अमिता जी ने यह भी बताया कि ‘पेड़ के नीचे कभी नहीं सोए बल्कि वे हॉस्टल के कमरे में रहते थे लेकिन टीआरपी का चक्कर क्या न करवा ले।’ यह सही है कि उन पर बनी फिल्म में उनकी कविताओं और उनके अंदाज से आप और हम वाकिफ हो सकते हैं। फिल्म देखकर उनके चलने-बोलने के अंदाज और कविता पढ़ने के तेवर से प्रभावित हो सकते हैं, जैसा कि मैं भी उनके अंदाज से बहुत प्रभावित और इस बात पर चकित हुई कि फिल्म में पेड़ की टहनी से लटकती दो-तीन पॉलीथिन में टंगे कपड़े, जेएनयू के जंगलों में जमीन पर सोते हुए दीन-दुनिया से बेखबर रहते हुए इस कवि ने इतनी शानदार कविताएँ कह डालीं। जबकि ऐसा था नहीं। बकौल अमिता वे दीन-दुनिया से बेखबर तो थे लेकिन यह बेखबरी दुनियावी मोह-माया से थी।

इसके उलट समाज, शिक्षा के अधिकार के लिए आवाज बुलंद करने में और सत्ता में हो रहे गलत निर्णयों के खिलाफ झंडा उठाने में वे हमेशा आगे थे। खुद को उन्होंने मूवमेंट्री आदमी कहा और बताया कि जेएनयू में या जंतर मंतर पर होने वाले प्रोटेस्ट में, भाषण देने में, नारा लगाने और झंडा लेकर चलने वालों में वे सबसे आगे रहते थे। जेएनयू में उनके रहने का बेस यही है। उन्होंने बताया कि इस प्रकार वे आन्दोलन के शीर्ष में रहते हैं। साफ-साफ उन्होंने कहा कि विद्रोही की जो सोहबत है उसे फिल्म में नहीं दिखाया गया है। केवल मार्किट के लिए फिल्म बनाए हैं और जो भी सीन फिल्म में क्रिएट किया गया है उनका विद्रोही के स्वभाव से कोई लेना-देना नहीं है। सही कहा उन्होंने।
वास्तव में ये विद्रोही वे विद्रोही नहीं हैं जिन्होंने जीवन भर सत्ता के खिलाफ पंगा लिया। जिन्होंने जेएनयू के हर आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद किया, भाषण दिया, नारा लगाया, रैलियों का हिस्सा बने। कभी किसी प्रोफेसर से डरे नहीं। आखिर वे कैसे डरते? जब पढ़ने गए थे और उन्हें ओनली बी किया गया था तब भी उन्होंने डंके की चोट पर कहा था कि मेरा एग्ज़ाम मौखिक ले लीजिए तब कहिएगा कि मुझमें योग्यता नहीं है लेकिन शायद वहाँ के प्रोफेसरों को मालूम था कि भैंस चराने वाले इस व्यक्ति के दिमाग में गोबर नहीं बल्कि भरपूर बुद्धि और तर्क भरा हुआ है और उन्हें तरज़ीह देना और परीक्षा में पास करने का मतलब खुद के लिए खतरा पैदा कर लेना था।

विद्रोही जी जीवन के 34-35 वर्ष जेएनयू परिसर में रहे और संघर्ष करते रहे और अपनी कविताओं में जिन मुद्दों को केंद्र में रखा उनमें समाज और सत्ता के प्रति गुस्सा था। हर स्थिति के बाद भी वे हारे नहीं, टूटे नहीं, चुप नहीं रहे, पागल नहीं हुए और न कभी आत्महत्या की कोशिश की। कहने का मतलब यह है कि उनमें जीवन को लेकर अत्यधिक सकारात्मकता थी, उम्मीद थी और संघर्ष करने का जज़्बा और जुनून था।
यह सोचने वाली बात है कि क्यों इतने बड़े कवि को समाज और साहित्यिक लोगों द्वारा मान्यता और जगह नहीं मिली जबकि वे इसके लिए बहुत ज्यादा डिज़र्व करते थे। हालाँकि अपनी बात में उन्होंने साफ कहा कि जितने वे छापे गए हैं उतना कोई कवि छपा नहीं होगा। लोगों के दिमाग में जातिवाद का जो कीड़ा घुसा हुआ है वैसे में किसी पिछड़ी और शूद्र जाति की प्रतिभा को कैसे मौका मिलेगा? लेकिन बेजोड़ योग्यता वालों को आगे आने से कोई रोक भी नहीं सकता है।
मैंने अवधी बतकही में विद्रोहीजी द्वारा कही गई बातों को लिखा ताकि उनकी कही बात एक दस्तावेज़ के रूप में यहाँ दर्ज़ हो जाए। उनकी बातचीत की अवधि एक घंटा बीस मिनट है जिसमें आरम्भ में बातचीत है और उसके बाद अवधी कविताओं का पाठ और उस पर बातचीत है। मैंने आरंभिक बातों को ही लिखा है, अवधी कविताओं को नहीं, क्योंकि मेरा मकसद फिल्म के प्रति उनकी राय को जानना था। इस किताब के लिए एक लेख मैंने फिल्म देखने के बाद लिखा था जो उनकी बातचीत सुनने से पहले का था, जिसे देखकर हर किसी के मन में उनके लिए एक अलग सहानुभूति और संवेदना पैदा होगी जैसा कि मेरे मन में भी हुई। लेकिन चूँकि उस फिल्म में एक पक्षीय और संकुचित क्षेत्र के विद्रोही को फिल्माया गया। इसलिए उनका पक्ष मानना जरूरी था। वह जस का तस दिया जा रहा है। उनकी बातचीत पढ़िए।

अपने ऊपर बनी फिल्म को लेकर असंतुष्ट विद्रोही का कहना था 
मूवमेंट्री आदमी है विद्रोही.. ये तो… ये डाक्यूमेंट्री क्या है? इस डाक्यूमेंट्री के आधार पर मैं भी पूछ रहा हूँ कि विद्रोही के व्यक्तित्व को समझा जा सकता है? एक कविता भी यहाँ से वहाँ तक पहुँची नहीं है। चार-छ: कविता कोट हुई है? कोई भी कविता पूरी तरह कोट नहीं हुई है…। एक जगह कोट नहीं हुई है। हुँ…। तब उसके बाद कितना वो दिखा पाया है। कुल मिलाकर कैसा केरक्टर पेश किया है?
विद्रोही ने मोहनजोदड़ो पर कविता लिख दी तो विद्रोही मोहनजोदड़ो में थोड़ी रहता है, रहता तो जेएनयू में ही है न…तो जेएनयू में कहाँ दिख रहा है, जेएनयू उसमें कहाँ दिख रहा है…वहाँ तो कुतुबमीनार दिख रहा है, खंडहर दिख रहे हैं..आँय..जामा मस्जिद दिख रही है..आँय…आँ…कब्रिस्तान दिख रहा है..बावड़ी दिख रही है..सूरजकुंड दिख रहा है..जेएनयू कहाँ है? जंतर-मंतर कहाँ है? है तो ..बहुत कम है..है तो वह तो होगा ही…ज्यादा न…जितना ज्यादा रहता है, विद्रोही जेएनयू में उतना तो कोई प्रोफेसर भी नहीं रहता है…न कोई स्टूडेंट रहता है न कोई कर्मचारी रहता है। और वो जेएनयू कितना है इन फिल्मों में? कितना है?

तो ये तो जंगल तलाश रहे हैं..ये तो कयास पैदा कर रहे हैं..ये तो फिलिम बना रहे हैं न ..विद्रोही थोड़ी बना रहे हैं। लेकिन विद्रोही इससे भी बनेगा। विद्रोही रिकॉर्ड में बन रहा है। विद्रोही गीत में बन रहा है। चाहे जिधर से बात कर लो। विद्रोही और भी जगहों पर बन रहा है। बेसिकली तो विद्रोही एकेडेमिक्स में बन रहा है। सारा संघर्ष तो वहाँ है। विद्रोही किताब में बन रहा है ..आँय…जीवन में बन रहा है….सारा संघर्ष तो यहाँ पर है न आगे…के लोग विद्रोही पर सोचेंगे, विचार करेंगे, तो वो ये देखेंगे कि जो विद्रोही वास्तव में करता है और जहाँ पर विद्रोही वास्तव में रहता है, वो कितना इन रचनाओं में आया, इन फिल्मों में आया है, इनके लेखों में आया है वो क्या है? उसका नाम नहीं लेना चाहते वो खतरनाक बात है, विद्रोही सबसे ज्यादा क्या करता है जेएनयू में? विद्रोही जेएनयू में जिन्दाबाद..मुर्दाबाद करता है भई! विद्रोही मूवमेंट्री आदमी है। विद्रोही डायरेक्ट मूवमेंट का हिस्सा है, यही उसके यहाँ रहने का बेस है।

जेएनयू में विद्रोही के रहने का बेस यही है कि वो आन्दोलन का एक आवश्यक हिस्सा बन चुका है, आन्दोलन के शीर्षस्थ पर रहता है यार..पिछवा नांय है कि जिंदाबाद मुर्दाबाद..आगे बढ़कर जो माइक पकड़ता है…जो बोलता है…जंतर मंतर पर बोलता है….पब्लिक प्लेसेस पर बोलता है पीक पैलेस पर बोलता है, उनकी सभाओं को ..उनकी मीटिंगों को इनीशियट करता है, ये जो… ये जो काम करता है विद्रोही और इसके साथ विद्रोही की जो सोहबत है वो इन फिल्मों-विल्मों में कहाँ कुछ दिखाई पड़ रहा है?….वो तो मार्किट दिखा रहे हैं …वो दिल्ली की मीना बाजार लिए….क्या आप कह रहे हैं .. मैंने कुछ मुस्लिम समर्थन में कविताएँ लिखीं … मेरी कुछ शब्दावलियाँ हैं तो लोगों को लगता है मैं जुलहटे में से आता हूँ या किसी पठानटोला से आता हूँ, वहाँ मेरा घर है..वहाँ शोभा ही नहीं पाता जहाँ मेरा घर है अहीरी के अहिराने में…अहिरी के अहिराने में… अब वो कहत हयन कि तुमार घर नाँय ठीक बा भई। तोहके तो …एके तो हमीरपुर में होए के चाहत रहा।
अब इस तरह की स्केच करने की कोशिश …एक वल्गराइजेशन कह लीजिए… एक व्यक्तित्व को इस रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये हिंदू न सही, मुस्लिम कम्युनल था। भई विद्रोही का घर किसी मुसलमान के एरिया में रहा होगा।
विद्रोही का कंसर्न मंदिर से न रहा हो मगर मस्जिद से था। ऐसा स्केच बना रहे हैं। समझे भैया…
वो तो वही कि साँपनाथ हटे नागनाथ .. (वाक्य अधूरा रह गया ..विद्रोही बोल पड़े )
वो हो…यही तो प्रतिस्थापित हो रहा है, कोशिश करके … मेहनत करके.. कि जहाँ विद्रोही कभी नहीं गया होगा…मसलन…मीना बाजार, मसलन जामा मस्जिद जहाँ कभी नहीं विद्रोही गया होगा …फिलम में वही चीज लाएन हैं.. वो चीज लाएँगे … लेकिन हम कह रहे हैं कि… डोंट वरी…
अब हमारा एक मजबूत आधार हो गया तिवारी जी..वो क्या कि हमारा एक अपना प्रकाशन संस्थान है,उसको कहते हैं समकालीन प्रकाशन। ये करने में विद्रोही कामयाब रहा। हमारा एक समकालीन प्रकाशन संस्थान है वहीं सब जाकर इकट्ठी हो जाएँगी…फिलिम की बात, इलिम की बात किलिम की बात..गिलिम की बात, वो हवाला … ये हवाला, दस हवाला, पचास हवाला, सौ हवाला.. सब वहीं जा कर के सेंट्रलाइज्ड हो जाएगा। तो रिकॉर्ड के रूप में वो चीजें रहेंगी। आगे लोग उसका तज़्करा करेंगे जिसको करना होगा।
तो चाहे इधर से बात कर लो चाहे उधर से बात कर लो, चाहे जिधर से बात कर लो, एक मेन सेंट्रल लाइन हमारे पास है जहाँ से आप नली…आप वाले पाइप में जोड़ देंगे, वो जुड़ जाएगा…ठीक है…तो इस रूप में हम अपनी फिल्मों वगैरह के रूप में देखते हैं न तो उसको एक उपलब्धि मानते हैं…वरना …अगर फिल्म ही होती …ये जो दिखा रहे हैं,वो विद्रोही नहीं पेश कर रहे हैं विद्रोही का विद्रूपीकरण पेश कर रहे हैं, ये वही तो बता दिया न…वो कोशिश कर रहे हैं कि अगर हमने मोहनजोदड़ो पर कविता ही लिख दिया तो लगा जैसे मैं किसी मोहनजोदड़ो में रहता हूँ..आँय… अब उनको मोहनजोदड़ो जैसा माहौल चाहिए, मोहनजोदड़ो जैसा तालाब चाहिए… मुर्दाघाट चाहिए .. श्मशान चाहिए … कब्रिस्तान चाहिए … श्मशान न सही … क्योंकि शमशान से हिन्दूवाद …अँ… हिन्दुत्व का बोध होगा तो फिर वो क्या कहते हैं कब्रिस्तान चाहिए…ये तो विद्रोही के साथ ..विद्रोही के व्यक्तित्व के साथ कब्रिस्तान चिपका रहे हैं। ठीक है …तो ये विद्रोही नहीं…विद्रोही का विद्रूपीकरण है लेकिन विद्रोही की एक ओरिजिनल टनाटन फर्स्ट.. जिसको कहते हैं कि प्रथम कॉपी जिसको कहते हैं..पहली कॉपी के रूप में विद्रोही प्रकाशित हो चुका है। उसका एक प्रकाशन संस्थान है।
अब वहाँ से लोग कविताएँ लेकर के अपने-अपने ढंग से..अपने हॉफ ट्रूथ तिहाया ट्रूथ या फोर्थ ट्रूथ या उसके साथ इस तरह की सच्चाई, उस तरह की सच्चाई अपना चिपका रहे हैं, तो उनको मना भी नहीं किया जा सकता, लोगों की अपनी एक सोच है, अपना आर्ट है, चिपकाओ आप, आँय…हमें वो नुकसान नहीं करेगा, अब वो फायदा ही करेगा, नहीं ज्यादा करेगा…तो कुछ तो करेगा, करो …नुकसान का खतरा गया..वरना ये नुकसान कर रहे हैं।
अगर हम सचमुच में एक हीरो होते, वो जो मालेगाँव का हीरो…हाँ…मालेगाँव का चैंपियन या हीरो नाम की फिल्म बनाए हैं..अगर हम वो होते…तो भैया लोग ..हमारा तो काम किए बैठे हुए हैं।
इनकी फिल्म तो इंटरनेशनल में जीत रही है..लेकिन विद्रोही को फिर तो कोई हीरो बनाने वाला है नहीं आगे चलकर कोई माई-बाप, क्योंकि विद्रोही ससुरा इस मार्किट का हीरो ही नहीं है… वो तो बियाँबानों में रहता है। है…ना…तो वो बात नहीं है …नहीं लेकिन अब वो बियाँबानों से भी निकल आएगा, मार्किट से भी निकल आएगा क्योंकि उसका भी अपना एक संस्थान है, उसका भी अपना एक प्रकाशन संस्थान है, वहीं जाकर चीजें एडिट होती रहती हैं …तो ये भी काम कर जाएगा और वो भी काम कर जाएगा ,वर्ना बात को मेरे को मत समझाइए कि तू जितने से बात को समझ जाब्या कि जो सबसे ज्यादा विद्रोही है वो कितना कम है और कितना कोशिश भरा है ये भी नहीं देखेगा, उसकी लालसा कितनी ज्यादा विद्रोही की है, कितना दबाव उसने बनाया होगा अपने फिल्मकारों के ऊपर, जरूर बनाया होगा वो उस फिल्म से लग जाएगा क्योंकि चंद्रशेखर वाली जो तस्वीर है जो ऌउछ के फर्स्ट फ्लोर पर रखी हुई थी

बस जंगल वोंगल का सीन दिए रहे हैं
हाँ …. तो एक भी सीन जंतर-मंतर का नहीं है कि विद्रोही कुछ वहाँ कविता पढ़ रहा है कि बोल रहा और लोग जो हैं … आँय …
और एक ये चीज नहीं है कि आपके बारे में किसी से पूछें… राय लें …
हाँ …विद्रोही जो प्रेक्टिकली कर रहा है … विद्रोही जहाँ पर है जो कर रहा है …. विद्रोही यही रोज करता है… रोज मीटिंग जॉइन करता है रोज सम्मेलनों में जाता है… भाषण देता है… बात करता है… अपनी बात को रखता है…. (ये हम बोल रहे हैं वह सब नोट हो रहा है?… अच्छा… जरा सुना दीजिए मुझे तभी संतोष होगा।)

(साभार – अवधी के अरघान यूट्यूब चैनल में इसके संचालक के साथ विद्रोही जी की जस की तस बातचीत अपर्णा ने लिपिबद्ध किया है)

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