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डॉ आंबेडकर के प्रति हिकारत के पीछे संघ-भाजपा की राजनीति क्या है

एक तरफ डॉ अंबेडकर ने जहां संविधान में समानता, बंधुत्व, स्वतंत्रता को शामिल किया, वहीं आरएसएस ने देश में हिंदुत्व को बढ़ावा देते हुए फासीवाद और ब्रह्मणवाद मार्का पर काम कर रहा है, जिसके बाद अम्बेडकरवादी विचारधारा पर लगातार हमला हो रहा है। 

डॉ आंबेडकर पर नफरती बयान देकर गृहमंत्री अमित शाह ने संघ-भाजपा को भारी संकट में डाल दिया है, देश भर में विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गए हैं। भाजपा का बाबा साहेब विरोधी चेहरा सामने आ गया है।
भाजपा का हिंदुत्व न केवल संविधान विरोधी है, बल्कि जातिवादी व ब्राह्मणवादी भी है,यह बात फिर से हवा में तैरने लगी है।
2014 से पहले,भाजपा आम तौर पर ब्राह्मण व बनिया समाज की पार्टी मानी जाती थी,पर 14 के बाद से यानि मोदी काल में भाजपा,अपनी पुरानी पहचान को बदलने में कामयाब होती गईं है।
कई वजहों से,और खासकर विकास व राहत की आकांक्षा व एंटी मुस्लिम कैम्पेन के बढ़ते असर के चलते,अति पिछड़ा व अति दलित समाज,भाजपा से जुड़ता गया है।
थोड़ा राम थोड़ा राष्ट्रवाद और फिर राशन राजनीति के बल पर संघ-भाजपा ने अपने असली चेहरे को 2019 दौर में भी और उसके बाद भी छुपा के रखा।
10 सालों तक भाजपा ने अपनी संविधान विरोधी, आरक्षण विरोधी, ब्राह्म्णवादी व कारपोरेट समर्थक कार्यवाहियों को भी जारी रखा और एक हद तक सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय की चैंपियन भी बनी रही।
2024 में इस परियोजना को धक्का लगा, संघ-भाजपा का वास्तविक चेहरा सामने आने लगा।
जब खुद नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव में 400 पार का नारा दिया और कई भाजपा प्रत्याशियों ने खुलेआम 400 पार के नारे को,संविधान बदलने से जोड़ दिया।
पूरे देश में ये डर फ़ैल गया कि भाजपा के फिर से आने का मतलब बाबा साहेब के विचार, संविधान व सामाजिक न्याय ख़तरे में पड़ेगा।
फिर क्या था, भाजपा 400 पार की बात तो छोड़िए, सामान्य बहुमत के आंकड़े से भी नीचे चली आयी। उत्तर प्रदेश, जिसे हिंदुत्व का गढ़ माना जा रहा था,वह लगभग ढह सा गया।
इस चुनाव के बाद भाजपा फिर से अपर कास्ट पार्टी की पहचान की ओर बढ़ने लगी है, एक बार फिर भाजपा को यू टर्न लेना पड़ रहा है, भाजपा को बार-बार रक्षात्मक मुद्रा में रहना पड़ रहा है। सामाजिक लोकतंत्र के सवाल पर व उससे जुड़े सांविधानिक प्रावधानों पर भी बार-बार उसे सफाई देनी पड़ रही है।
दरअसल समानता, स्वतंत्रता व बंधुता जैसे विचारों से वैचारिक घृणा के चलते भी,सारी सावधानी के बावजूद संघ-भाजपा के नेताओं के अंदर की ब्राह्मणवादी घृणा अक़्सर सामने आ जाती है।
अमित शाह द्वारा दिए गए, बाबा साहेब के प्रति हिकारत भरे बयान को, इस तरह से भी समझा जा सकता है।
असल में अमित शाह, कांग्रेस को निशाने पर लेना चाहते थे, उन्हें संविधान विरोधी, बाबा साहेब विरोधी साबित करने की कोशिश कर रहे थे, पर इस पूरी प्रक्रिया में,’जय श्रीराम’ वाली वैचारिक कोटि की, डॉ आंबेडकर के प्रति जो सनातनी घृणा है, वह बाहर आ गई।
जल्दी ही भाजपा के नेतृत्वकारी दायरे को समझ में आ गया कि भारी नुक्सान हो गया है। तुरत-फुरत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक्स हैंडल पर सफाई देता हुआ बयान आ गया, अमित शाह भी जल्दी ही प्रेस के सामने आए और उल्टे कांग्रेस पर ही आरोप मढ़ दिया.।
एक्स हैंडल को भी नियंत्रित करने की कोशिश की गई, जिस पर अमित शाह का संसद में दिया हुआ बयान वायरल हो रहा था, पर एक्स ने बयान को अपने हैंडल से हटाने से इंकार कर दिया और उसे वायरल होने दिया।
इस तरह से संघ-भाजपा की सामाजिक न्याय विरोधी जो छवि, लोकसभा चुनाव से ही निर्मित होनी शुरू हुई थी, उसे अमित शाह ने अपने बयान के जरिए एक अंजाम तक पहुंचा दिया है।
देखना अब ये है कि संघ-भाजपा फिर से आयी इस चुनौती से कैसे निपटती है और यह भी कि उसके सामने बार-बार ऐसी नौबत क्यों आ जा रही है।
वह कौन सी वैचारिक-राजनीतिक फंसान है जिसके चलते हिंदुत्व की राजनीति का संकट बढ़ता ही जा रहा है
भारतीय राजनीति के केंद्र में आते डॉ आंबेडकर और हिंदुत्व की राजनीति पर बढ़ता संकट….
संघ-भाजपा का नेतृत्व, भारतीय संविधान को,हिंदू राष्ट्र की स्थापना में, सबसे बड़ी बाधा के बतौर देखता रहा है।
संविधान में समानता, स्वतंत्रता व बंधुत्व जैसे प्रगतिशील विचार, हर पल ब्राह्मणवादी,वर्णाश्रमी व पितृसत्तात्मक मूल्यों को कदम-दर-कदम नकारते रहते हैं।
इन्हीं वज़हो से जब बाबा साहेब के नेतृत्व में निर्मित संविधान का अंतिम मसौदा सामने आया तो सबसे ज्यादा ताकतवर विरोध आरएसएस की तरफ़ से ही आया।  नए-नए बने भारत के संविधान को आरएसएस ने अभारतीय घोषित कर दिया।
आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाइजर ने अपने संपादकीय में साफ-साफ लिखा कि ‘भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है, इसमें प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थानों,नामकरण और कहन शैली का कोई निशान नही है।’ आरएसएस यहीं नही रुका, उसने कहा कि हमारे पास एक अच्छा संविधान पहले से ही मौजूद है।
घनघोर वर्णाश्रमी जातिवादी मनु संहिता को, दुनिया का बेहतरीन संविधान बताया गया और नए बनते भारत पर इसी मनु संहिता को आरएसएस, अंत-अंत तक बड़ी बेशर्मी से थोपने की कोशिश करता रहा। आज वही कोशिश और ज्यादा बड़े स्तर पर जारी है।
 डॉ आंबेडकर, हिंदुत्व व हिंदुत्व की राजनीति के सामाजिक, आर्थिक पहलू के साथ-साथ, राजनीतिक पहलू को भी अच्छी तरह से जानते-पहचानते थे। उनके पास हिंदुत्व की एक मुकम्मल आलोचना अपने समय में ही मौजूद थी, जो आज़ हिंदुत्ववादी फासीवादी दौर में,और ज्यादा प्रासंगिक होती जा रही है।

डॉ आंबेडकर हिंदुत्व की वैचारिकी का फासीवादी कनेक्शन तलाशते हैं और हिंदुत्व की तुलना नीत्शे के दर्शन से करते हैं, जिसने कभी हिटलर को आर्यश्रेष्ठता का सिद्धांत दिया था, जिस पर चलते हुए उसने यहूदियों का कत्लेआम कराया था।

बाबा साहेब यह प्रमाण भी देते हैं कि नीत्शे ने अपनी किताब ‘एंटी क्राइस्ट’ में मनुस्मृति की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है और यह कि नीत्शे की रचना ‘दस स्पेक जरथुस्त्र’, मनुस्मृति का ही नया रूप है।
फासीवादी पहलू को ध्यान में रखते हुए ही डां आंबेडकर कहते हैं कि ‘अगर हिन्दू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए भारी ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के एक ख़तरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’
आज़ भारतीय मार्का फासीवाद, जिसका बेहद ख़तरनाक तत्व ब्राह्मणवाद है, के सामने आंबेडकरी विचारधारा ने भारी चुनौती पेश कर दिया है।
संघ-भाजपा के सामने संकट यह है कि इस चुनौती का सामना किए बग़ैर, उनकी फासीवादी परियोजना को एक क़दम भी आगे नही बढ़ाया जा सकता है।
हालांकि संघ-भाजपा नेतृत्व, बार-बार इस चुनौती से निपटने की छिपी कोशिश तो कर रहा है पर उसे झटके लग जा रहे हैं, इसीलिए जब भी वह संविधान की समीक्षा या आरक्षण की समीक्षा, सामाजिक लोकतंत्र को सीमित करने का प्रयास करते या बाबा साहेब के प्रति हिकारत दिखाते हुए दिखते हैं।
जनता की तरफ से ताकतवर प्रतिवाद हो जाता है, भाजपा का संकट और बढ़ जाता है। आज़ यह बात समूचा विपक्ष भी समझने लगा है कि हिंदुत्व की जितनी मुकम्मल आलोचना आंबेडकरी धारा के पास है, वह अभी और जगहों पर विकसित होना बाकी है।
यह भी सच है कि आज़ भी भारतीय समाज पर, ताकतवर ब्राह्मणवादी जकड़न बना हुआ है। कारपोरेट व फासीवादी निज़ाम को मूल ताकत यहीं से मिलती है। इस मूल ताक़त से निपटने के लिए बार-बार बाबा साहेब के जाना पड़ेगा।
यह अच्छा है कि लगभग समूचा विपक्ष इस दिशा बढ़ता हुआ दिख रहा है। हालांकि यह देखना अभी बाकी है कि विपक्ष इस दिशा को क्या केवल चुनावी रणनीति तक सीमित रखता है या भारतीय फासीवाद से मुकम्मल लड़ाई की दिशा में बढ़ता है।
मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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