इतिहास भी एक भौतिक वस्तु है। मैं तो यही मानता हूं। मतलब यह कि इतिहास का निर्माण खुद-ब-खुद नहीं होता। इतिहास बनाना पड़ता है। ठीक वैसे ही जैसे हम कोई वस्तु बनाते हैं। अंतर यह होता है कि हमें इतिहास को दर्ज करना/करवाना पड़ता है और वह भी अपने हिसाब से। तब जाकर इतिहास बनाना पड़ता है। इसके साथ ही महत्वपूर्ण यह भी कि इतिहास इस बात की गारंटी नहीं लेता कि पीढ़ियां किसी घटना को अथवा किसी व्यक्ति को उसी रूप में याद करेंगीं, जिस रूप में उसे दर्ज किया गया था।
मैं तो कल के दिन यानी 6 दिसंबर के बारे में सोच रहा हूं। कल के दिन ही 1768 में इतिहास से संबंधित एक महत्वपूर्ण पहल की शुरुआत हुई थी। यह पहल थी– एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका का प्रकाशन। इसी दिन इसका पहला संस्करण प्रकाशित हुआ था। लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा कि इतिहास निरपेक्ष नहीं होता। वह सापेक्ष होता है। मैं तो फिनलैंड के बारे में सोच रहा हूं, जिसने रूस से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की थी। साल था 1917। वह समय बेहद खास था। साम्राज्यवादी ताकतें अपने-अपने स्वार्थ में मर-कट रही थीं। भारत में एक अलग तरह का इतिहास अंकुरण के दौर में था। यह इतिहास डॉ. आंबेडकर से जुड़ा था।
दरअसल, इसकी शुरुआत मेरे हिसाब से 1916 से होती है जब डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपना शोध प्रबंध दुनिया के सामने रखा। शीर्षक था– भारत में जातियाँ: उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास। इसके पहले विवेकानंद को याद किया जाता है, जिन्होंने अमेरिका के ही शिकागो में 11 सितंबर, 1893 को हुए विश्व धर्म सम्मेलन में भारतीय संस्कृति का बखान किया था। वही भारतीय संस्कृति, जिसकी धज्जियां 1916 में डॉ. आंबेडकर उड़ा दी थीं। अपनी शोध में उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव के बारे में विस्तार से चर्चा की। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे हिंदू धर्म जो कि असल में उन ब्राह्मणों का धर्म है, जो बाहर से भारत आए, ने भारतीय समाज में जाति का जहर फैला रखा है। उन्होंने इसके पूरे इतिहास और अलग-अलग कालखंड में हुए इसके स्वरूप में परिवर्तनों की सुसंगत व्याख्या की।
[bs-quote quote=”6 दिसंबर, 1956 को डॉ. आंबेडकर के निधन के बाद दलित-बहुजन दृष्टिकोण से इतिहास सृजन की दिशा ही बदल गयी। हालांकि इसका प्रयास भी बहुत पहले शुरू हो गया था और इसकी जड़ में भी डॉ. आंबेडकर ही थे। मैं तो 1916 को ही प्रस्थान वर्ष मानता हूं जब डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत किया था और भारत में अछूत आंदोलन की नींव पड़ी। इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि ब्राह्मणों को आरएसएस का गठन करना पड़ा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो जब डॉ. आंबेडकर ऐसा कर रहे थे, तब वे एक इतिहास का निर्माण कर रहे थे। यह इतिहास ही था कि महार जाति, जो कि अछूत जाति थी (आज भी ब्राह्मण वर्ग दलितों को अछूत ही मानता है), से एक नौजवान अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यलय में जाकर भारत के बहुसंख्यक समाज की पीड़ा को प्रस्तुत कर रहा था। मैं तो यह मानता हूं कि यदि भारत में अंग्रेज नहीं होता और ब्राह्मणों का राज होता तो डॉ. आंबेडकर को राजद्रोह के जुर्म में फांसी की सजा दे दी गयी होती। वे तो अंग्रेज थे, जो साम्राज्यवादी होने के बावजूद न्यायप्रिय थे। उन्होंने भारत में न्याय की बुनियाद रखी थी।
सचमुच क्या हम इसकी कल्पना कर सकते हैं कि यदि अंग्रेजी हुकूमत नहीं होती तो अमेरिकी महिला पत्रकार कैथरीन मैयो को भारत आने की अनुमति दी जाती और उसे मदर इंडिया जैसी किताब लिखने के बाद जिंदा छोड़ दिया जाता। 1927 में अपनी किताब में मेयो ने अपनी निगाह से भारतीय समाज को देखा जो कि बिल्कुल वैसा ही था जैसा डॉ. आंबेडकर ने अपने पहले शोध प्रबंध में बताया था। मेयो को विवेकानंद का भारत एक ऐसे भारत के रूप में नजर आया, जो समाज के बड़े हिस्सेदार को हाशिए पर रखता था। आधी आबादी यानी महिलाओं को तो दोयम दर्जे की नागरिकता भी हासिल नहीं थी। वे अमेरिकी दासों से भी बुरी हालत में रह रही थीं।
तो यह सब एक तरह से इतिहास के निर्माण के जैसा ही था। पहले 1916 में डॉ. आंबेडकर और फिर 1927 में कैथरीन मेयो ने भारतीय इतिहास लेखन के प्रोस्पेक्टिव को बदलकर रख दिया था। हालत यह हो गयी कि इसका काट करने के लिए लाला लाजपत राय को अनहैप्पी इंडिया लिखने को विवश होना पड़ा।
लेकिन, अंग्रेज भारत में बसने नहीं आए थे। उन्हें वापस जाना ही था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैसे भी उनकी हालत पतली हो चुकी थी। जापान, जर्मनी और इटली आदि देशों ने बड़े साम्राज्यवादी देशों को बता दिया था कि हथियारों का जखीरा केवल उनके पास नहीं है और ताकत किसी की बपौती नहीं। हालांकि बड़े साम्राज्यवादी देशों को जीत जरूर मिली। परंतु ब्रिटेन को अपने अनेक उपनिवेशों को मुक्त करने के लिए बाध्य होना पड़ा। यह मेरा मानना है कि यदि अंग्रेज पचास और भारत में रह जाते तो भारत में सामाजिक न्याय की तस्वीर दूसरी होती।
खैर, मेरा यह अनुमान मात्र है। लेकिन मैं अब भी मानता हूं कि इतिहास को बनाया जाता है। भारत ने भी इतिहास का निर्माण किया। वह भी अपने तरह का इतिहास। मैं तो यह देख रहा हूं कि 6 दिसंबर, 1956 को डॉ. आंबेडकर के निधन के बाद दलित-बहुजन दृष्टिकोण से इतिहास सृजन की दिशा ही बदल गयी। हालांकि इसका प्रयास भी बहुत पहले शुरू हो गया था और इसकी जड़ में भी डॉ. आंबेडकर ही थे। मैं तो 1916 को ही प्रस्थान वर्ष मानता हूं जब डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत किया था और भारत में अछूत आंदोलन की नींव पड़ी। इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि ब्राह्मणों को आरएसएस का गठन करना पड़ा। इसका उद्देश्य ही भारत में डॉ. आंबेडकर के प्रभावों को न्यून करना था। मतलब यह कि दलित-बहुजन जो डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में नया भारत बनाने को अग्रसर हो रहे थे, उन्हें आरएसएस के जरिए कट्टर हिंदू बनाने की कोशिशें शुरू हो गयी थीं।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि आरएसएस ने 1992 को ऐन डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर ही अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद को गिरा दिया।
बहरहाल, आरएसएस अपने मिशन में कामयाब हो गया है। उसने एक इतिहास रचा है। एक ऐसा इतिहास जिसे आनेवाली पीढ़ियां काला इतिहास ही कहेंगीं।
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नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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