Saturday, April 20, 2024
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बेअदबी और ईशनिंदा की आड़ में दलितों के खिलाफ जातिगत पूर्वाग्रहों को छिपाने की गंदी कोशिश

मूलतः पाकिस्तान में दलितों में चूड़ा समुदाय से सम्बंधित है जो सफाई पेशे से जुड़े हुए है और सामंती जातिवादी समाज के अपमान का शिकार है। उन्होंने पाकिस्तान में ईसाई धर्म अपनाया था ताकि जाति के अपमान से बच सके और भारत में इसी कारणवश आर्य समाज के प्रचारक अमीचंद शर्मा द्वारा १९२५  स्वच्छता और हाथ से मैला ढोने में लगे समुदायों के लिए 'बाल्मीकि' नाम लगा दिया गया था ताकेि उन्हें ईसाई होने से बचाया जा सके।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सिख धर्म वास्तव में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और अंधविश्वास के खिलाफ एक विद्रोह था। गुरुग्रंथ साहब शायद एकमात्र पवित्र पुस्तक है जिसमें विभिन्न धर्मों के साथ-साथ कबीर, रविदास, बाबा फरीद और अन्य सहित विभिन्न सूफी संतों के बहुत से दोहे और उक्तियाँ भी शामिल हैं। सिख धर्म का उद्देश्य एक समतावादी समाज का निर्माण करना था लेकिन क्या ऐसा संभव हो पाया? पंजाब भारत के कई अन्य राज्यों की तुलना में एक ऐसा राज्य है जहां दलितों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा होती है। पंजाब के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे की ऊपरी परत के नीचे  वास्तविकताएँ कुछ और भी हैं जो दर्शाती हैं कि समानता और भाईचारे का संदेश हर जगह नहीं पहुँचा है और पंजाब में मजहबी और रविदासी समुदाय दोनों ही जातिवादी ताकतों के अत्याचार का सामना करते हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि बेअदबी के लिए किसे दोषी ठहराया जा रहा है और वास्तव में यह है क्या ?

क्या बेअदबी के नाम पर इस्लामिक देशों के ईशनिंदा कानून के लिए अल्पसंख्यकों पर हिंसा के समान ही भारत में दलितों को निशाना बनाया जा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर बहुत कठिन नहीं है। दक्षिण एशिया में जाति एक हकीकत है। चाहे वह भारत हो या पड़ोस के पाकिस्तान अथवा बांग्लादेश हों, दलितों पर धर्म के नाम पर हिंसा जारी है। आइए पहले पता करें कि अपवित्रता या ईशनिन्दा क्या हैं ?

अपवित्रता या ईशनिन्दा

शब्दकोश में अपवित्रीकरण का अर्थ मूल रूप से ‘ऐसा व्यवहार है जो किसी पवित्र स्थान या वस्तु के लिए बहुत अनादर दिखाता है’। पूजा स्थल से चोरी को अपवित्र माना जाता था। ईशनिंदा को भी अपवित्रता का पर्याय माना जाता है। इसका उपयोग अक्सर ऐसे इस्लामिक देशों में किया जाता है जहां इस्लाम राजधर्म है। उनकी परिभाषा में ईशनिंदा पवित्र कुरान या पैगंबर या इस्लाम को नीचा दिखाने का कार्य या प्रयास है। इस्लामिक शासन के तहत, ऐसे विशिष्ट कानून हैं जो ईशनिंदा के लिए विशिष्ट दंड प्रदान करते हैं और ज्यादातर मामलों का अंत मृत्युदंड के रूप में होता है।  सवाल यह है कि क्या ईशनिंदा और बेअदबी (अपवित्रता) एक ही है ? अगर हम इन कानूनों और विशेष विचारों के माननेवालों द्वारा उत्पीड़ित लोगों का इतिहास देखें तो पता चलता है कि मुख्यत: वह हाशिये के समाज अथवा अल्पसंख्यकों से सम्बंधित है। जैसे पाकिस्तान में ईशनिंदा क़ानून के तहत सबसे ज्यादा प्रताड़ित दलित हैं, जिन्हें बहुत चालाकी से ईसाई बताकर उनके साथ छुआछूत की घटनाओं को छुपाया जाता है। दूसरे नंबर पर अहमदी समुदाय के लोग और फिर शिया या अधिकतर हाज़रा लोग  हैं। पंजाब में पिछले कुछ वर्षों में बेअदबी के लिए दलितों को ही निशाना बनाया गया है। इन सभी के विषय में हम आगे विश्लेषण करेंगे।

हम सभी ‘पवित्र’ ग्रंथों और ‘आकृतियों’ या मूर्तियों का सम्मान करते हैं। मनुष्य उन चीजों को अपने पूर्वजों के दृष्टिकोण से देखता है और यह हमेशा अच्छा होता है कि लोग उन चीजों का सम्मान करते हैं जो बड़ी आबादी की भावनाओं को आहत नहीं करती हैं बल्कि यह भी समझने की आवश्यकता होगी कि धार्मिक ग्रंथों की आलोचना को अवैध नहीं ठहराया जा सकता है। हर ‘धार्मिक पुस्तक’ में हर जगह अनेक दोष रेखाएं और खलनायक हैं। दुनिया भर में लड़ाई लोगों के दो समूहों के बीच थी या कई हो सकती है और जिन्होंने चालाकी और धूर्तता  से लड़ाई जीती वे स्टार बन गए, जबकि अधीन बना दिए गए लोगों ने अपनी ‘पहचान’ खो दी और केवल ‘खलनायक’ के रूप में बने रहे। एक और मुद्दा है। सभी धर्मगुरु, गुरु या भक्त सोचते और प्रचार करते हैं कि उनके देवता सर्वश्रेष्ठ और सबसे शक्तिशाली हैं। वे यह भी सोचते हैं कि उनकी पवित्र पुस्तक ईश्वरीय है और इसलिए उन्हें बदला नहीं जा सकता और न ही उन पर सवाल उठाया जा सकता है। आधुनिक दुनिया में, जब हमने तय किया कि हमारा लिखित संविधान होना चाहिए, तो यह महसूस किया गया कि इसे परिस्थितियों और आवश्यकतानुसार बदलने के लिए लचीला होना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि भारत जैसे देश में 1950 के बाद से अभी तक लगभग 105 संवैधानिक संशोधन हुए हैं। ये संशोधन वास्तव में लोगों की जरूरतों और इच्छाओं की समझ के साथ किए गए हैं जो समय के साथ बदलते हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने महसूस किया था कि जैसे-जैसे भारत बढ़ेगा, जैसे-जैसे शिक्षा आएगी और नए आविष्कार होंगे, लोगों की ज़रूरतें और अपेक्षाएँ अलग होंगी और हमें अपने राष्ट्र के जीवन और समय के अनुसार अपने कानूनों की आवश्यकता होगी। हम यह नहीं सोच सकते कि इतने साल पहले लिखी या डिजाइन की गई कोई चीज ‘परम सत्य’ होगी, जिस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है, लेकिन इंसान इतने कुख्यात और कठोर होते हैं कि वे आपको तथाकथित धर्म या ‘पर्वित्र ग्रंथों’ के बारे में एक साधारण सवाल भी नहीं पूछने देते। आप इन ग्रंथों में कॉमा या फुलस्टॉप भी नहीं बदल सकते। हम इस विचार पर कैसे आए हैं कि जो कुछ भी हजारों साल पहले लिखा गया था वह शाश्वत सत्य है? सिर्फ सत्तर साल के इतिहास वाले संविधान को कितनी बार संशोधित किया गया है और सभी ‘धर्म’ ‘ और मठों के लोग अपनी जरूरतों के अनुसार इसे करने के लिए कहते हैं लेकिन वही लोग अपने धर्म की आलोचना सुनने के लिए तैयार नहीं हैं।

हर धर्म ने कुछ ‘नायकों’ को बनाया है जिन्हें वे महान कहते हैं और जिन पर वे आरोप लगाते और गाली देते हैं उन्हें खलनायक सिद्ध करते हैं।  जब हर समुदाय सवाल पूछ रहा है, इतिहास बना रहा है और उसका विश्लेषण भी कर रहा है, तो हर किसी के लिए चीजें समान क्यों होंगी? ज़ाहिर है नहीं होंगी। यदि कुछ लोग किसी एक ‘देवता’ या ‘शक्तिपुरुष’ का महिमामंडन करते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि हम सभी उनके लिए ताली बजाएं और हां कहें। ऐसे लोग भी हैं जो इन तथाकथित पवित्र ग्रंथों के शिकार हुए हैं और वे निश्चित रूप से सवाल पूछेंगे। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि विश्व स्तर पर इन ईशनिंदा या बेअदबी कानूनों या नैतिकता के शिकार अधिकांश अल्पसंख्यक, हाशिए पर रहने वाले समुदाय और महिलाएं हैं।

पाकिस्तान में अहमदी और दलित

आसिया बीबी

ईशनिंदा कानून के तहत आरोपित एक ईसाई महिला आसिया बीबी की कहानी कुछ वर्ष पूर्व सुर्खियों में आई थी। यह पाकिस्तान की घटना है। इस मामले में यह कहा गया था कि उसने इस्लाम या कुरान के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की थी जिसे कथित तौर पर कुछ महिलाओं ने सुना था जिन्होंने उसके खिलाफ शिकायत की थी। अदालत को इन ‘शिकायतों’ में ‘पर्याप्त’ सामग्री मिली और ईशनिंदा की आरोपी महिला को मौत की सज़ा सुनाई गई। ईसाई समुदाय से संबंधित एक अन्य दंपति शफाकत इमैनुएल और शगुफ्ता कौसर को 2014 में मौत की सज़ा सुनाई गई थी, हालांकि लाहौर उच्च न्यायालय ने उनकी सज़ा को पलट दिया था और उन्हें फरवरी 2021 में रिहा कर दिया गया था। गौरतलब है कि आसिया बी, शफाकत इमैनुएल और शगुफ्ता, जो सभी पाकिस्तान में ‘ईसाई’ समुदाय से ताल्लुक रखते थे, वे मूलतः पाकिस्तान में दलितों में चूड़ा समुदाय से सम्बंधित हैं जो सफाई पेशे से जुड़े हुए हैं। चूड़ा समुदाय सामंती-जातिवादी समाजों के अपमान का शिकार है। उन्होंने पाकिस्तान में इसलिए ईसाई धर्म अपनाया था ताकि जाति के अपमान से बच सकें। भारत में आर्य समाज के प्रचारक अमीचंद शर्मा द्वारा 1925 स्वच्छता और हाथ से मैला ढोने में लगे समुदायों के लोगों के नाम के साथ ‘बाल्मीकि’ लगा दिया गया था ताकेि उन्हें ईसाई होने से बचाया जा सके।

शफाकत इमैनुएल और शगुफ्ता कौसर

मामलों की सावधानीपूर्वक जांच करने से आपको तुच्छ आरोप के उद्गम का पता चल जाएगा। आसिया बी को उच्च जाति की मुस्लिम महिलाओं द्वारा अपमानित किया गया था। (इस तथ्य को अब तक पाकिस्तानी अभिजात वर्ग द्वारा बहुत चतुराई से नकारा गया है जो जाति और दलित मुद्दे को सिर्फ हिंदुओं से संबंधित मानते हैं) आसिया का दोष सिर्फ इतना था कि वह प्यास लगने के कारण उस घड़े से पानी पी रही थी जिससे ऊँची जातियों के लोग पानी पीते थे और जब उन्होंने असिया बी को घड़े को छूते देखा तो उसका अपमान किया और उसके जवाब देने पर उस पर ईशनिंदा का आरोप लगा दिया। यह मानी हुई बात है कि जिन देशों में इस्लाम राजकीय धर्म है वहाँ अल्पसंख्यकों या दलितों की ऐसी हिमाकत कभी नहीं बर्दाश्त की जा सकती कि वे इस्लाम के विषय में कुछ कह भी सकें। शफाकत और शगुफ्ता पूरी तरह से अनपढ़ थे और एक चर्च के परिसर में रह रहे थे। एक मुस्लिम मौलवी ने उन पर पैगंबर मोहम्मद का अपमान करने वाला व्हाट्सएप संदेश भेजने का आरोप लगाया। चौंकाने वाली बात यह है कि अनपढ़ दंपति पर अंग्रेजी में तथाकथित अपमानजनक संदेश भेजने का ‘आरोप’ लगा दिया गया। यह एक और विडंबना है कि शफाकत व्हीलचेयर से बंधे हुए व्यक्ति हैं जिनके शरीर का निचला हिस्सा 2004 में एक दुर्घटना में पूरी तरह से लकवाग्रस्त हो गया था। उनके चार बड़े बच्चे हैं। ईशनिंदा अदालत ने आरोपों को ‘साबित’ पाया और 2014 में उन्हें मौत की सज़ा सुनाई लेकिन अब उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया है और सबूतों के अभाव में उन्हें बरी कर दिया है।

पाकिस्तान में कई ऐसे लोग हैं जो धार्मिक अभिजात वर्ग के हाथों से पीड़ित हैं, क्योंकि वे दलितों और अहमदियों को निशाना बनाने के लिए ईशनिंदा का उपयोग करते हैं। यह एक गंभीर सवाल है जिस पर पाकिस्तान में ज्यादा बहस नहीं होती है। यह अपने ‘राष्ट्रीय’ और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रचार के लिए भारत के खिलाफ दलित कार्ड का इस्तेमाल करता है जबकि पाकिस्तान में दलितों की स्थिति को पूरी तरह से अनदेखा करता है। पाकिस्तानी अभिजात वर्ग का पाखंड इतना अधिक है कि वे अम्बेडकर जयंती ‘जश्न’ मनाते हैं और चाहते हैं कि भारतीय ‘बुद्धिजीवी’ उनके पास जाएँ और भारत में जाति व्यवस्था के बारे में ऐसे बोलें जैसे उनका अपना ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा हो। वे पाकिस्तान की जातीय सामंती इतिहास को नकारते हैं। दरअसल पाकिस्तान के विभाजन के पीछे भी यही सामंती-जातिवादी सोच थी जो बंगाली मुसलमानों को केवल झाडू-पोंछा लगाने वालों के रूप में देखती थी। पाकिस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष और उसके पहले कानून मंत्री जोगेंद्रनाथ मंडल के त्यागपत्र को फिर से पढ़ने की जरूरत है। इसका जवाब देना चाहिए कि जोगेंद्रनाथ मंडल को पाकिस्तान में संविधान लागू होने के एक साल बाद ही भारत लौटने के लिए मजबूर क्यों किया गया था? क्या पाकिस्तानियों ने कभी उन सवालों का जवाब दिया है? पाकिस्तान में ईशनिंदा कानूनों के शिकार कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुये आप पाएंगे कि उनमें से ज्यादातर चूड़ा समुदाय से हैं। यह भेदभाव केवल जातिगत कारण से है क्योंकि पाकिस्तान में चूड़ों के लिए स्वच्छता का काम ‘आरक्षित’ है। यह भी गौर करने की बात है कि पाकिस्तानी कभी भी पसमांदा समुदाय के सवाल पर नहीं बोलेंगे। न ही इस विषय में कि बांग्लादेश क्यों अस्तित्व में आया? सिवाय इस तथ्य के कि वे इसके लिए भारत को दोषी ठहराते हैं।

पंजाब में जाति व्यवस्था

हमारी तरफ लाहौर की सीमावाला पंजाब है। यहां ईशनिंदा का एक नया नाम सैक्रिलेज बेअदबी  हो गया है और मारे गए या आरोपित लोगों में ज्यादातर दलित हैं। दिल्ली के पास सिंघु बॉर्डर पर सरोपा की बेअदबी का आरोप लगाने वालों ने भूमिहीन लखबीर सिंह पर  जो क्रूरता दिखाई उसके उदाहरण तालिबान जैसी जगहों पर ही मिलते हैं। सबसे शर्मनाक और खतरनाक बात यह है कि यह घटना वहां पर हुई जहां किसान पिछले 10 महीनों से अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं।

सिखों को आमतौर पर एक बहुत ही प्रगतिशील समुदाय माना जाता है। हमने सिखों की शक्ति और प्रतिबद्धता देखी है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि लगभग सभी सिख गुरु खत्री समुदाय से निकले हैं। महान अम्बेडकरवादी विद्वान भगवानदास ने मुझे लगभग 15 साल पहले दिए एक साक्षात्कार में बताया था, ‘सिख धर्म के बारे में मेरी राय बहुत खराब है। मैं उसके करीब इसलिए आया क्योंकि मैं दो सिख बच्चों को पढ़ा रहा था। छात्रों में से एक के पिता डॉक्टर थे, जो मुझे गुरुद्वारे में आमंत्रित करते थे। मैं वहां जाता था। फिर एक त्योहार था जिस पर उन्होंने गुरुद्वारे में लंगर (सामुदायिक भोजन) किया। एक आदमी ने डॉक्टर से पूछा, ‘तुम हमें चूड़ा और चमारों के साथ खिला रहे हो।’ गुरुद्वारे में मेरे लिए यह एक चौंकाने वाला अनुभव था। इसके बाद मैंने सिख धर्म का अध्ययन किया और पाया कि उनके 10 गुरु थे और सभी खत्री जाति के थे। किसी ने भी अपनी पैतृक जातियों के बाहर शादी नहीं की और चौथे गुरु ने गुरु ग्रंथ साहिब में रविदास, कबीर और अन्य संत-कवियों की शिक्षाएँ शामिल की थी, लेकिन व्यवहार में सिख धर्म हिंदुत्व से अलग नहीं है। यदि कोई धर्मांतरित कारपेंटर समुदाय से आता है, वह रामगढ़िया है, यदि वह मेहतर से धर्मांतरित हैं तो वह मजहबी है, यदि वह शराब विक्रेता से धर्मांतरित है तो अहलूवालिया है। कहां गई जाति व्यवस्था? कोई बदलाव कहाँ हुआ अगर कोई सामने के दरवाजे से जाता है और खिड़कियों से वापस आता है। उन्होंने जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए कभी भी आंदोलन शुरू नहीं किया। उस घटना के बाद मैं कभी किसी गुरुद्वारे में नहीं गया।’

इंग्लैंड में जाकर भी जाति की चिंता

बिशनदास बैंस एक प्रसिद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और यूके में वॉल्वर हैम्प्टन के पूर्व मेयर भी थे, जो 1980 के दशक के मध्य में उस पद पर पहुंचने वाले पहले दक्षिण एशियाई हैं। मुझे दिए एक साक्षात्कार में वे कहते हैं कि उनके चुनाव अभियान के दौरान अधिकांश दक्षिण एशियाई, अफ्रीकियों और अन्य राष्ट्रीयताओं ने पूरे दिल से उनका समर्थन किया लेकिन उच्च जाति के सिखों ने अपने निर्वाचन क्षेत्र से ‘चमार’ को किसी भी कीमत पर न जीतने देने के लिए जोरदार प्रयास किया जो सफल नहीं हो पाया और उनके कड़े विरोध के बावजूद उन्होंने जीत हासिल की। वह कहते  है : ‘1979 का चुनाव इंग्लैंड में मेरे राजनीतिक जीवन के इतिहास की सबसे यादगार घटना है। इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन, मुख्य रूप से पंजाबी जाट सिखों का नेतृत्व और वर्चस्व के बावजूद साठ और सत्तर के दशक के दौरान एक बहुत मजबूत राष्ट्रीय संगठन था। उन्हें इस तथ्य को पचा पाना और इस तथ्य से समझौता करना बेहद मुश्किल था कि निचली जाति का व्यक्ति परिषद का निर्वाचित सदस्य हो सकता है। इसके बाद, जातिगत पूर्वाग्रह और धार्मिक घृणा की गंदी भारतीय राजनीति ने परिषद के एक निर्वाचित सदस्य के रूप में मेरी स्थिति को कमजोर करने के लिए अपना सिर उठाया। उन्होंने मुझे लेबर पार्टी द्वारा अचयनित कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी और मुझे अपनी ही जाति के एक व्यक्ति से बदल दिया। अपने असफल प्रयासों के बाद, उन्होंने मेरे खिलाफ सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष को मैदान में उतारा। चुनाव के दौरान उन्होंने मेरा नाम खराब करने और मेरी सार्वजनिक प्रतिष्ठा को बदनाम करने के लिए एक बदनाम अभियान शुरू किया। उनके पास पूरे दिन मेरे निर्वाचन क्षेत्र की सड़कों पर घूमने वाले, निवासियों को परेशान करने और डराने, साहित्य छापने और वितरित करने वाले कार्यकर्ताओं की फौज थी। यह अभियान के रूप में सबसे कठिन चुनावों में से एक था क्योंकि मुझे कई भेदभाव और पूर्वाग्रहों को दूर करना है। भारतीय जाति और धार्मिक पूर्वाग्रह के अलावा, एक ब्रिटिश नेशनल पार्टी (दूर दक्षिणपंथी संगठन) और अन्य दो दल थोड़ा कम नस्लीय थे। अंत में पाकिस्तानी समुदाय के ठोस समर्थन के साथ, कुछ स्वदेशी और अन्य लोगों के सहयोग से मैं भारी बहुमत के साथ सीट जीतने में सफल रहा।’

वह आगे मुझे देशी गोरों के रवैये के बारे में बताते है जिन्होंने उसे रोकने के लिए भी काम किया। स्थानीय लेबर पार्टी के पास पिछले कई वर्षों से एक स्थापित रिवाज और प्रथा थी जो अगले वर्ष के लिए मेयर के उम्मीदवार का चुनाव करती थी। एक विशेष बैठक में दो नाम प्रस्तावित किए गए और गुप्त मतदान कराया गया, और प्रथा के अनुसार प्रतियोगिता का विजेता अगले वर्ष के लिए उम्मीदवार बन जाता है, और उपविजेता आमतौर पर नामांकित होता है और अगले वर्ष चुना जाता है।

मैं यहां यह उल्लेख करना चाहता हूं कि कई वर्षों तक परिषद के साठ निर्वाचित सदस्यों में से मैं अकेला गैर-श्वेत था, और शेष सभी उनतालीस गोरे थे। शुरू में मुझे शहर का मेयर बनने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन कुछ वामपंथी सलाहकार थे जो चाहते थे कि मैं अपने अधिकार के लिए आवाज उठाऊँ। मेरा नाम दो वर्षों तक लगातार प्रस्तावित और अनुमोदित किया गया था और मैं दोनों बार प्रतियोगिता हार गया था। इसका मतलब है कि पिछले कई वर्षों से स्थापित प्रथा और रिवाजों का पालन किया जा रहा था, जिसका उल्लंघन अंतर्निहित नस्लीय पूर्वाग्रह के अलावा किसी अन्य कारण से नहीं किया गया था। इतना ही नहीं, यह राष्ट्रीय लेबर पार्टी की अवसर की समानता की नीति के विपरीत था। इस स्थिति में मेरे पास परिषद के निर्वाचित सदस्य और पार्टी के सदस्य के रूप में अपनी स्थिति पर गंभीरता से विचार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मैंने चुपचाप न चलने का फैसला किया, बल्कि वापस लड़ने और नस्लीय पूर्वाग्रह के उनके व्यवहार को सार्वजनिक रूप से उजागर करने का फैसला किया। मैंने लेबर पार्टी में अंतर्निहित नस्लीय पूर्वाग्रह की पूरी सच्चाई को सार्वजनिक करने का फैसला किया।

अब सवाल महापौर पद के लिए नामांकन पाने का नहीं था, बल्कि अवसर और न्याय की समानता के लिए लड़ने का था। मैंने लेबर पार्टी के भीतर अंतर्निहित नस्लीय भेदभाव को उजागर करते हुए एक प्रेस वक्तव्य जारी करने का निर्णय लिया। यह एक बहुत ही विवादास्पद और निश्चित रूप से एक साहसी कदम था, जिसने मेरे लिए बहुत अधिक जन समर्थन जुटाया। इसके विपरीत मेरे साथी श्रम पार्षदों में भारी असंतोष था। मुझे कारण बताओ नोटिस दिया गया और आलाकमान के नेतृत्व के साथ बैठक की गई। मैंने बैठक में अपने कार्यों को सही ठहराया और लेबर पार्टी के निर्वाचित सदस्यों के बीच आपसी संबंधों में सामंजस्य स्थापित करने का निर्णय लिया ।’

मैंने ब्रिटेन में जाति व्यवस्था के विभिन्न पीड़ितों से उनके और जाट सिखों के बीच मतभेदों के बारे में कई कहानियां सुनी और रिकॉर्ड की हैं। यह एक सच्चाई है कि पाकिस्तान में इस्लामिक और भारत में हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े लोगों को लगातार डराने-धमकाने का सिलसिला चल रहा है। ऐसा लगता है कि सिख इससे अलग नहीं हैं।

कौन हैं पंजाब में बेअदबी के शिकार?

लखबीर सिंह की कहानी अब तक अच्छी तरह से प्रचारित हो चुकी है क्योंकि यह एक सार्वजनिक स्थान पर हुई जहां किसान पिछले 10 महीनों से विरोध कर रहे हैं। भूमिहीन दलित लखबीर सिंह के शव को बेरहमी से काट दिया गया और विरोध स्थल के पास पोल पर लटका दिया गया। ऐसा क्या है कि सभी भी राजनैतिक दल, किसान आन्दोलन, सामाजिक आन्दोलन इस पर चुप्पी साधे हुए हैं? जहा निहंग खुलेआम इस पर गर्व महसूस कर रहे हैं और हत्यारों को सरोपा और पगड़ी पहना रहे है वहीं किसान आन्दोलन  की ओर से भी कड़ी निंदा नहीं होती है, सिवाय इस तथ्य के कि उनका निहंगों के साथ-साथ उन पीड़ितों से कोई संबंध नहीं है जिनकी वहां बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। बाकी पार्टियों का क्या कहना जो ‘कड़ी’ निदा करके चुप बैठ जाते है?

भारतीय राजनीतिक वर्ग परिवार से बात करने या इस क्रूरता की निंदा करने की जहमत नहीं उठाता। ठगों के इस आपराधिक कृत्य पर नेताओं के साथ-साथ कार्यकर्ता कायरतापूर्ण रूप से चुप क्यों रहे हैं, जो यह सुझाव देने में कोई शर्म नहीं महसूस करते हैं कि उन्होंने ऐसा किया और फिर से करेंगे। यदि यह एक मुस्लिम द्वारा की गई हत्या होती, तो अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इसे एक अंतर्राष्ट्रीय हेडलाइन बना दिया होता और हमने इस्लाम की क्रूरता और इंसानियत को लेकर काफी तीखी बहस देखी होती लेकिन इस मुद्दे पर सभी चुप हैं। बेशक, भारत में ब्राह्मण-बनिया मीडिया हिंदुत्व के गुंडों द्वारा मॉब लिंचिंग पर चुप रहते हुए एक आंदोलन को बदनाम करने के लिए इसे उजागर करेगा। यह केवल यह दर्शाता है कि कैसे विचारधारा सभी के लिए सुविधा का विषय बन गई है और धर्म ने हम सभी को एक साथ अंधा कर दिया है। विवेक और तर्क की इन सभी आवाजों में सबसे बड़ी दुर्घटना।

लखबीर का मामला अचानक, नहीं बल्कि पंजाब में दलितों को डराने-धमकाने की एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा है। बच्चे भी इससे नहीं बचे हैं। जिस तरह इस्लामिक कट्टरपंथियों ने एक अनपढ़ दंपत्ति पर ‘ईशनिंदा’ का आरोप लगाते हुए ऐसा किया, उसी तरह पंजाब का यह पक्ष भी अलग नहीं है।

जून 2020 में, संगरूर जिले में मजहबी समुदाय की एक 10 साल की लड़की पर बेअदबी का आरोप लगाया गया क्योंकि वह एक गुरुद्वारे में ‘सेवा’ के लिए जाती थी। जब उस पर बेअदबी का आरोप लगाया गया तब सैकड़ों लोग उसे मारने-पीटने और उसकी हत्या करने के लिए एकत्र हुए थे। हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि भक्तों की भीड़ किसी का क्या कर सकती है। इस मामले में लोगों के उत्पीड़न और धमकी के बाद लड़की और उसके माता-पिता को अवैध रूप से गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। उसके बाद उस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 295-ए के तहत आरोप लगाया गया। यह प्रावधान ‘जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्यों का अपराधीकरण करता है, जिसका उद्देश्य किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं, उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करना है।’

पंजाब की एसआईटी की रिपोर्ट और अन्य रिकॉर्ड बताते हैं कि लड़की ने वास्तव में कोई अपवित्रता नहीं की थी। सच तो यह है कि मजहबी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली वह लड़की फर्श पर झाड़ू लगाने जाती थी और अनजाने में उसने एक कैलेंडर उठा लिया था और ‘पवित्र गुरुग्रंथ साहब को ढँकने वाले कपड़े’ को लिया था। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार सीसीटीवी फुटेज में लड़की को पवित्र पुस्तक फाड़ते नहीं दिखाया गया है। यह निश्चित रूप से अस्पृश्यता का मामला है और इसे जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर यह नेरेटिव बना दिया गया कि गरीब लड़की ने अपवित्रता की है। यह सवाल कोई भी पूछ सकता है कि कोई भी गरीब पुरुष-महिला या लड़की-लड़का, जो शक्तिशाली सिखों के दबदबे में रहने को मजबूर हैं, वे अपवित्रता कैसे कर सकते हैं। पाकिस्तान या बांग्लादेश में मुस्लिम या भारत में हिंदू आस्था या पंजाब में सिख मूल्यों को चुनौती देने की हिम्मत कौन करेगा? क्या यह संभव है?

एक गरीब सफाईकर्मी लड़की सिख धर्म या पवित्र ग्रंथ साहब के लिए ‘खतरा’ कैसे है? क्या यह लोगों के पाखंड को नहीं दिखाता है जब वे बेअदबी के लिए गरीब, भूमिहीन, असहाय व्यक्ति को दोषी ठहराते हैं? यह मामला आसिया बी या शगुफ्ता के मामले से कितना अलग था, जो भीड़ से बचने के बाद भी बेहतर स्थिति में थे। बेशक, अगर उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया होता, तो उनकी हत्य

क्रूरता हर जगह मौजूद है और हमें उस सत्ता के सामने सच बोलने का साहस करना होगा जो न केवल ‘राजनीतिक शक्ति’ है बल्कि सामाजिक-आर्थिक रूप से शक्तिशाली समुदाय और समूह है। वह हमारी ‘संस्कृति’ को नियंत्रित करते हैं। हम सभी अतीत में हुई घटनाओं को आसानी से भूल जाते हैं अन्यथा हम एक क्रांतिकारी गायक बंत सिंह के मामले में भी सवाल पूछ रहे होते, जिनके हाथ-पैर सामंती जमींदारों द्वारा काट दिए गए थे और उनकी बेटी के साथ दुष्कर्म कर मार दिया गया था। जनवरी 2006  की इस घटना के बाद कुछ समय तक शोर रहा होगा लेकिन आज कोई नहीं जानता कि बंत सिंह और उनके परिवार का क्या हाल है? सवाल पूछा जाना चाहिए कि कितने राजनीतिक नेताओं, सरकारी अधिकारियों ने जाकर उनसे बात की? उनके प्रति कितनी संवेदना व्यक्त की और उन्हें न्याय दिलाने के लिए क्या किया? अन्य जगहों की तरह पंजाब में दलितों के खिलाफ हिंसा नहीं हो सकती है, लेकिन दलित भूमिहीन किसानों और जाट कुलक किसानों की टसल कोई नई बात नहीं है। दलित किसानों के सामने भयावह संकट है जो आर्थिक तो है ही। हिंसा का खतरा भी बहुत बड़ा है।

संयुक्त किसान मोर्चा का पाखंड

क्या संयुक्त किसान मोर्चा यह कहकर अलग रह सकता है कि निहंग और लखबीर सिंह दोनों कभी उनसे जुड़े नहीं थे? यह कैसे हो सकता है कि सार्वजनिक स्थान के पास एक आदमी को बेरहमी से काटे जाने की चीखें किसी ने नहीं सुनीं। वास्तव में, यह भी उल्लेख किया गया था कि यह दलित बनाम सिख मुद्दा नहीं था क्योंकि हत्या निहंगों द्वारा की गई थी। कुछ ने यह भी सुझाव देने की कोशिश की कि यह दलित बनाम  दलित मुद्दा था। सवाल यह है कि कौन सी बात नेताओं को लखबीर के घर जाने और उनके परिवार को आर्थिक मदद देने से रोकती है? ताकतवर समाज का डर और चुनावी साल में हार का दुष्परिणाम ही इसके पीछे कारण है।

मैंने हमेशा यह कहा है कि भारत के किसानों ने पूंजीवाद के खतरों और विशाल कृषि क्षेत्र पर गुजराती क्रोनियों के वर्चस्व को सही ढंग से समझा है, लेकिन दुर्भाग्य से किसान आंदोलन ने पुरोहित वर्गों/जातियों  के खतरे को अभी तक यह नहीं पहचाना है। पुरोहितवाद भी पूंजीवाद की तरह भारत की विशाल बहुजन जनता के लिए एक बड़ा खतरा है और क्रांतिकारी ज्योति बा फुले ने इसे ‘सेठजी-भटजी’ गठबंधन के रूप में बहुत शानदार ढंग से समझाया है। पंजाब में पुरोहित वर्ग शक्तिशाली कृषि-समुदायों के प्रभुत्व के रूप में अत्यंत शक्तिशाली है और धार्मिक मूल्य प्रणाली को उनकी आवश्यकताओं और मार्गदर्शन के अनुसार परिभाषित किया गया है जिसमें दलितों के लिए कोई स्थान नहीं है।

अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने के लिए महान गुरुओं के मार्ग का अनुसरण करें

हमारे समुदायों और उनके नेताओं को समझना चाहिए कि निर्दोष लोगों, बच्चों आदि पर ईशनिंदा या बेअदबी का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।  यह भी उतना ही जरूरी है कि जिन समुदायों को धार्मिक ग्रंथों में विलेन बनाया गया है, वे उनसे सवाल करें कि कुछ लोग इसे पसंद करते हैं या नहीं।1927 में महाड़ में कार्यकर्ताओं द्वारा मनुस्मृति को बाबा साहेब अम्बेडकर की उपस्थिति में जला दिया गया था, जो इसे अन्याय की पुस्तक कहते थे। बेट्रेंड रसेल ने लिखा, मैं ईसाई नहीं हूं। किसी और ने लिखा, मैं मुसलमान क्यों नहीं हूं। तसलीमा नसरीन ने महसूस किया कि इस्लाम एक खतरा है, जबकि कई कार्यकर्ता और लेखक हिंदू धर्म के बारे में ऐसा ही महसूस करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग्रंथ साहब का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि इसमें विभिन्न धर्मों और सूफी संतों के महान वचन हैं। चाहे उनकी जाति और धर्म कुछ भी हो। यह इसका एक अनूठा गुण है। फिर भी यह एक तथ्य है कि पंजाब में जाति व्यवस्था है और दलित हाशिये पर हैं। अपना दबदबा बनाए रखने के लिए दलितों और अन्य लोगों के खिलाफ बेअदबी के नाम पर झूठे मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। यह वह समय है जब सिख बुद्धिजीवियों, राजनीतिक नेताओं को एक साथ काम करना चाहिए और समझना चाहिए कि पंजाब में जाति व्यवस्था के शिकार कई लोग उनकी समझ से असहमत हो सकते हैं। उन्हें गंदी जाति प्रथा को खत्म करना चाहिए और पंजाब को एक बेहतर जगह बनाना चाहिए। उनके गुरुओं ने मानवता की बहुत बड़ी सेवा की है और उनमें से किसी ने भी ऐसा बर्बरतापूर्ण काम नहीं किया होगा जैसा लखबीर सिंह या बंत सिंह के साथ हुआ था। सिख धर्म ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह था लेकिन जाति व्यवस्था यहां आई और यह एक वास्तविकता है कि शक्तिशाली जातियों की लॉबी आज सिख धर्म पर हावी है जो वास्तव में गुरु नानक देव  और अन्य गुरु साहेबों द्वारा समर्थित समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। इन क्रूर कृत्यों की निंदा करने और लखबीर के लिए न्याय की मांग करने का समय आ गया है। सिखों के बीच ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को अनुमति देने और उसके नाम पर लोगों को मारने से बड़ा कोई पाप नहीं है। संकट बेअदबी का नहीं बल्कि उन लोगों का है जो अंधविश्वास, जातिप्रथा और छुआछूत के खिलाफ बोलने वाले महान गुरुओं के मार्ग से भटककर अपना राजनीतिक भाग्य बनाना चाहते हैं। उच्च जाति के सिख यह अच्छी तरह जानते हैं कि पंजाब और अन्य जगहों पर इतना प्यार और स्नेह होता तो रविदासियों और मजहबियों को अपने गुरुद्वारे और मंदिर नहीं शुरू करने पड़ते। मुद्दे बहुत बड़े और शक्तिशाली हैं लेकिन समाधान विचारों की विविधता को स्वीकार करने में है जहां आप असहमत हो सकते हैं लेकिन किसी की हत्या को समर्थन नहीं दे सकते।

 

 

गाँव के लोग
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