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मौन रहकर भी मुखर होने का कौशल

नूतन ने 1995 के अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘मेरी दो मनपसंद की भूमिकाएं बंदिनी और सुजाता थीं। दोनों फिल्मों में ‘स्त्रीत्व’ के अनजाने पहलुओं को इतने सशक्त तरीके से दिखाया गया था कि मेरी अन्य फिल्मों में देखने को नहीं मिला।’ तो आज हम नूतन की फिल्म बंदिनी की बात करने जा रहे हैं। […]

नूतन ने 1995 के अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘मेरी दो मनपसंद की भूमिकाएं बंदिनी और सुजाता थीं। दोनों फिल्मों में ‘स्त्रीत्व’ के अनजाने पहलुओं को इतने सशक्त तरीके से दिखाया गया था कि मेरी अन्य फिल्मों में देखने को नहीं मिला।’

तो आज हम नूतन की फिल्म बंदिनी की बात करने जा रहे हैं।

बंदिनी 1963 में आई थी। पूरे करियर में 11 फिल्मफेयर अवार्ड और 6 नेशनल अवार्ड विजेता विमल राय की यह अंतिम फिल्म थी। अंग्रेजी में स्वान सांग नाम का शब्द है। किसी कलाकार का अंतिम और यादगार परफार्मेंस हो तो उसे ‘स्वान सांग’ कहते हैं। ग्रीक पौराणिक कथाओं में एक हंस (स्वान) की बात है, जो अन्य पक्षियों की तरह अपने गायन कला के लिए नहीं जाना जाता था, पर वह एक दुर्घटना में मरने के पहले एक अद्भुत गायन पेश कर लोगों को चकित कर देता है।

विमल राय की मौत तो 1966 में हुई, पर 1963 में उन्होंने बंदिनी के रूप में अपना ‘स्वान सांग’ पेश किया था। मात्र अवार्ड की ही बात करें तो ‘बंदिनी’ को 6 फिल्मफेयर अवार्ड (बेस्ट फिल्म, बेस्ट स्टोरी, बेस्ट एक्ट्रेस, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट सिनेमेटोग्राफी, बेस्ट साउंड) और बेस्ट हिंदी फिल्मों का नेशनल अवार्ड मिला था।

फिल्म उस साल बाक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर हिट गई थी। इतना ही नहीं, हिंदी सिनेमा प्रेमी आज भी इसे नूतन के करियर का बेस्ट परफार्मेंस, विमल राय का यथार्थवादी निर्देशन और सचिनदेव बर्मन के मधुर संगीत के लिए याद करते हैं।

[bs-quote quote=”गुलजार ने राधा-कृष्ण को ध्यान में रखकर अवधी भाषा में वह गाना लिखा था। इसके बाद विमल दा ने गुलजार से कहा कि ‘तुम्हारे लिए गैरेज काम करने की जगह नहीं है। मेरे पास आ जाओ। और उनकी अगली फिल्म काबुलीवाला से गुलजार गीतकार बन गए। आज भी यह गाना उतना ही ताजा और लाजवाब है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हमारे यहां एक कहावत है- शांत पानी गहरा होता है। हिंदी फिल्मों में मौन के महत्व को अलग-अलग रूप से दर्शाया गया है। परंतु ‘बंदिनी’ में नूतन ने अपनी मौन शक्ति का जिस तरह परिचय कराया था, वह अद्वितीय है। कल्याणी की उसकी भूमिका भी मौन रहने के लिए थी। अतीत में प्यार और पीड़ा के आवेश में आकर कल्याणी ने एक खून किया और उसी आवेश में उसने उस खून का इकरार भी किया था। इसकी सजा के बदले वह जेल में आजीवन सजा काट रही थी। (इसीलिए ही फिल्म का नाम ‘बंदिनी’ है)

फिल्म में कल्याणी का सफर जेल से शुरू होता है और फिर फ्लैशबैक में जाता है। इसकी कहानी स्वतंत्रता के पहले की 30 के दशक की बंगाल के गांव की है। गरीब पिता के साथ रहने वाली कल्याणी गांव के एक स्वतंत्र्य सेनानी युवक विकास (अशोक कुमार) के प्यार में पड़ जाती है। विकास वापस आने का वचन देकर शहर चला जाता है लेकिन वापस नहीं आता।

पिता और अपनी मुसीबतों से परेशान कल्याणी घर-गांव छोड़ कर शहर आ जाती है। यहां वह एक बीमार, विक्षिप्त महिला की देखभाल करती है। वह महिला विकास की पत्नी निकलती है। कल्याणी को पता चलता है कि उसकी खोज में शहर आए उसके पिता की दुर्घटना में मौत हो गई है। जीवन की इस कठिन परीक्षा से व्यथित कल्याणी आवेश में प्रेमी की पत्नी को जहर पिला देती है।

फिल्म बंदिनी में अभिनेता धर्मेन्द्र और अभिनेत्री नूतन

उसके इस अपराध के लिए उसे जेल में डाल दिया जाता है। जेल में वह सभी की मददगार बनती है, खासकर एक वृद्धा कैदी के इलाज में मदद करती है। कल्याणी की मानवता देखकर जेल के डाक्टर देवेन्द्र (धर्मेन्द्र) उसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। परंतु अपने अतीत की वजह से कल्याणी देवेन्द्र के प्यार को स्वीकार नहीं करती। कल्याणी के अस्वीकार के बाद देवेन्द्र नौकरी छोड़ कर घर चला जाता है।

देवेन्द्र के इफ्तीफे का कारण जानने के बाद जेलर कल्याणी को बुलाकर उसके अतीत के बारे में पूछता है। यहां से फिल्म फ्लैशबैक में जाती है। कल्याणी की सजा पूरी होने के बाद जेलर उसे देवेन्द्र की मां का पत्र देता है, जिससे उसे पता चलता है कि देवेन्द्र की मां ने तो उसे बहू के रूप में स्वीकार कर लिया था। अब वह देवेन्द्र के पास जाने की तैयारी करती है।

वह स्टेशन पहुंचती है तो वहां फिर एक बार विकास मिल जाता है। विकास बीमार है और वह अपना अंतिम समय गांव में बिताना चाहता है। कल्याणी दुविधा में पड़ जाती है। गांव में जिससे प्यार किया, उसके साथ रहे या जेल में जिसने उसे प्यार किया उसके पास जाए? अंत में वह विकास की देखभाल का निर्णय ले कर देवेन्द्र को भूल जाती है।

इस कहानी का एक सीधा सार यह है कि महिलाएं दीवारों में कैद नहीं होतीं, प्यार की जेल में बंद होती हैं। जिसने गांव छोड़ने को मजबूर किया, जिसने हत्या करने की ओर धकेला, जिसने उसे जेल पहुंचाया, जिसने उसकी अधिकांश जिंदगी बरबाद कर दी, उस विकास के प्यार को कल्याणी भुला नहीं सकी और अब उसी के प्यार के लिए देवेन्द्र के प्यार का बलिदान दे देती है। कल्याणी जेल से छूटने वाली होती है तो जेलर उससे कहता भी है कि ‘मेरी कैद से तो छुटकारा मिल गया, अब घर-गृहस्थी की जेल में कैद रहोगी।’

‘बंदिनी’ स्त्री के कैद की कहानी है। विमल राय ने जिस जमाने में यह फिल्म बनाई थी, उस समय पुरुष कितना भी बदमाश हो, स्त्री ने एक बार उसे मन का मीत मान लिया, फिर तो हर हाल में उसे उसी के साथ रहना है। आज इम्तियाज अली जैसा कोई निर्देशक अगर ‘बंदिनी’ फिर से बनाए तो कल्याणी को देवेन्द्र के पास भेजेगा, विकास के पास नहीं। महेश भट्ट ने अर्थ फिल्म में पूजा को दोनों पुरुषों से दूर भेज दिया था। प्रेमी या पति के बगैर स्त्री कैसे नहीं रह सकती? इस तरह का क्रांतिकारी सवाल भट्ट ने ‘अर्थ’ फिल्म में पूछा था।

‘बंदिनी’ के अंत में जब कल्याणी विकास के साथ जाती है तो बर्मन दा की आवाज में गाना बजता है, ओ रे माझी, ओ माझी, मेरे साजन हैं उस पार… ‘ इसमें गीतकार शैलेन्द्र ने कल्याणी की स्थिति को एक पंक्ति में आबाद व्यक्त किया था, ‘मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूं साजन की…’ यह उसकी दुविधा भी थी और स्वतंत्रता भी।

मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे… गाने का दृश्य

फिल्म में कुल सात गाने थे और ऊपर जो लिखा, उसके अलावा अन्य दो गाने भी उतने ही मशहूर हुए थे। एक था मुकेश की आवाज में, ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…’। जो कल्याणी घर-गांव छोड़ती है, तब बजता है। दूसरा था लता मंगेशकर की आवाज में, ‘मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे…’।

यह गाना गांव में कल्याणी के सुखी समय का गाना है। गाने के पहले उसके कानों में कृष्ण भगवान की कहानी पड़ती है कि राधा-श्याम दिखाई दे, इस तरह की गहरी भूरी साड़ी, भूरी चूड़ियां और श्याम काजल लगा कर अंधेरे में कृष्ण से मिलने जाती है, जिससे कोई उसे देख न ले। परंतु उसका गोरा वान अंधेरे में चमकता है, इसलिए वह प्रार्थना करती है कि उसका रंग श्याम हो जाए। बाद में कल्याणी विकास को याद करके गाती है कि  ‘मोरा गोरा रंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दइ दे…’।

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इस गाने के साथ गुलजार का हिंदी फिल्मों प्रवेश हुआ था। एक पुराने इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “बंदिनी बन रही थी, तब एसडी बर्मन और शैलेन्द्र के बीच किसी वजह से बोलचाल नहीं थी। विमल दा को तत्कालिक एक भक्ति गीत चाहिए था। गुलजार तब मुंबई में एक कार गैराज में कलर करने का काम करते थे और कविताएं व शायरी शौक से लिखते थे। प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन से जुड़े थे। इसलिए विमल राय ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। उन्होंने गुलजार को एसडी बर्मन के पास भेजा। बर्मन दा ने धुन और दृश्य समझाया। एक सप्ताह बाद गुलजार ने गाना दिया। बर्मन दा खुश हो गए और उन्होंने उन्हें विमल दा के पास भेजा। उन्हें भी वह गाना पसंद आ गया। गुलजार ने राधा-कृष्ण को ध्यान में रखकर अवधी भाषा में वह गाना लिखा था। इसके बाद विमल दा ने गुलजार से कहा कि ‘तुम्हारे लिए गैरेज काम करने की जगह नहीं है। मेरे पास आ जाओ। और उनकी अगली फिल्म काबुलीवाला से गुलजार गीतकार बन गए।

आज भी यह गाना उतना ही ताजा और लाजवाब है। आज जब महिलाओं की त्वचा को गोरी बनाने के लिए तमाम ब्यूटी प्रोडक्ट की कंपनियां चल रही हैं, तब आज से 60 साल पहले गुलजार ने एक ऐसा गीत रचा था, जिसमें श्याम रंग को सम्मान दिया गया था, गोरे रंग के लिए मना किया गया था।

वीरेंद्र बहादुर सिंह नोएडा स्थित पत्रकार हैं।

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