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सोहराई पोरोब और हम आदिवासी (डायरी 5 नवंबर, 2021) 

धर्म और मनुष्य के बीच का संबंध जड़ नहीं होता। धर्म भी बदलता है और मनुष्य भी बदलते हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि मनुष्य अपनी सुविधाओं के हिसाब से धर्म में बदलाव करता है। इसके अनेकानेक कारण होते हैं, लेकिन सभी कारणों के मूल में होता है वर्चस्ववाद। असल में धर्म […]

धर्म और मनुष्य के बीच का संबंध जड़ नहीं होता। धर्म भी बदलता है और मनुष्य भी बदलते हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि मनुष्य अपनी सुविधाओं के हिसाब से धर्म में बदलाव करता है। इसके अनेकानेक कारण होते हैं, लेकिन सभी कारणों के मूल में होता है वर्चस्ववाद। असल में धर्म से संबंधित दो तरह के लोग होते हैं। एक वे, जो धर्म को मानते हैं और दूसरे वे जो, धर्म का निर्धारण करते हैं। दोनों तरह के लोग महत्वपूर्ण हैं। मैं यह बात केवल भारतीय समाज के संबंध में नहीं कह रहा। यह विश्व के सभी धर्मों और समाजों के मामले में लागू होता ही है। भारतीय समाज का संदर्भ इसलिए कि मेरा जन्म इसी धर्म को माननेवाले परिवार में हुआ। मेरा परिवार भी जड़ परिवार नहीं है। मेरे परिवार ने भी समय के साथ खुद को बदला है। यही हाल मेरे गांव-समाज का भी है। कुछ भी जड़ नहीं है।

दरअसल, आज कल से मेरे मन में सवाल है कि दीवाली हमारे समाज में कब आई? चूंकि हमारे समाज में दीवाली मनाने की परंपरा नहीं थी। यह तो एकदम हाल की घटना है। हाल की घटना कहने का मतलब मेरे जन्म के बाद की घटना। मैं जबतक किशोर था तब तक दीवाली को सोहराई कहा जाता था। यह शब्द कितना महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि मेरे एक बहनोई का नाम ही सोहराई राय है। वहीं दूसरी ओर झारखंड में आज भी सोहराई पर्व मनाया जाता है। मैं हेमंत सोरेन का ट्वीट देख रहा हूं, जो उन्होंने करीब 22 घंटे पहले जारी किया है। उन्होंने लिखा है– आपे सानामको दीपावली, छठ, काली पूजा और सोहराय पोरोब रेयाक आडी-आड़ी सागुण।

मुझे लगता है कि धर्म और मनुष्य के बीच के अंतर्संबंध को समझने के लिए हेमंत सोरेन का यह ट्वीट सबसे बेहतर उदाहरण हैं। उन्होंने ट्वीटर पर अपने परिचय में लिखा है कि वे झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। इसके बाद उन्होंने जिक्र किया है कि वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। इसके अलावा उन्होंने उन्होंने लिखा है कि वे बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू और बाबा साहब के अनुयायी हैं।

[bs-quote quote=”हम दीवाली नहीं, सोहराई मनाते हैं। जैसा कि हेमंत सोरेन ने अपने ट्वीट में लिखा है। लेकिन उन्होंने सोहराई को अंत में जगह दिया है। यह इस बात का प्रमाण है कि झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में भी हिंदूवादियों ने अपना प्रभुत्व बढ़ाया है। यदि ऐसा नहीं होता तो सोरेन सबसे पहले सोहराई पोरोब का उल्लेख करते।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अब इसके आधार पर भी समझा जा सकता है कि सोहराई का महत्व दीवाली की तुलना में कैसे घटा है। कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि वर्तमान में आरएसएस के निशाने पर वे समुदाय हैं, जो हिंदू धर्म को अपना नहीं मानते हैं। इनमें आदिवासी पहले नंबर पर हैं। ईसाईयों पर निशाना साधने के पीछे आरएसएस का कारण भी यही है कि ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों को सबसे अधिक प्रभावित किया है। चूंकि आरएसएस एक वर्चस्ववादी संगठन है और उसकी मूल विचारधारा में हिंदुत्व है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिंदुत्व के मूल में वर्चस्ववाद है। यह वर्चस्ववाद कैसे काम करता है, यह सोहराई बनाम दीवाली के आधार पर समझा जा सकता है।

मैं अपने बचपन को याद करता हूं तो मेरी जेहन में दीवाली जैसा कोई पर्व नहीं आता। दीवाली वैसे भी बहुत हाल का पर्व है और हिंदुत्व की अवधारणा चूंकि भ्रमों पर आधारित होता है, तो हिंदुत्ववदियों ने दीवाली को स्थापित करने के लिए अनेक भ्रमों का उपयोग किया है। यह ठीक वैसे ही है जैसे इन दिनों राम को हर पर्व-त्यौहार से जोड़ा जा रहा है। दशहरा को राम के साथ कनेक्ट करने में हिंदूवादी सफल हो चुके हैं। दुर्गा साल-दर-साल उत्तरोत्तर महत्वहीन होती जा रही है। ऐसा ही हाल दीवाली के साथ किया जा रहा है। वैसे तो इस पर्व के मौके पर लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं, जिसे हिंदू धर्मग्रंथों में धन की देवी व विष्णु की पत्नी के रूप में बताया गया है। इसी दीवाली से काली की पूजा का चलन भी है। खासकर बंगाल के आसपास के राज्यों में। बिहार में भी काली पूजा का महत्व रह है।

लेकिन मैं जबतक अविवाहित था, मेरे घर में न तो काली की पूजा होती थी और ना ही लक्ष्मी की। राम का तो नाम भी नहीं लिया जाता था। मेरी शादी के बाद पत्नी जब हमारे घर में आयी तो वह अपने संग इन सभी को लेकर आयी। लेकिन बाद में वह भी समझ गयी कि हमारे घर में इन सभी का कोई खास महत्व नहीं। हमारे घर में कुलदेवता का फलसफा है जो कि एक पिंडी के रूप में होते हैं। यह मेरे घर में इस कदर महत्वपूर्ण है कि जबतक कुलदेवता की पूजा नहीं होती, तबतक किसी दूसरे देवता के बारे में सोचा तक नहीं जाता। यह आज भी होता है। पहले यह और दृढ़तापूर्वक किया जाता था।

[bs-quote quote=”सोहराई के गीतों में यह रहस्य भी है कि कैसे इस आदिवासी परंपरा को खत्म किया गया। मतलब यह कि मेरे पापा जो सोहराई गाते हैं, उनमें आधे से अधिक तो पेड़, पहाड़, खेत, नदी, और मवेशियों से संबंधित हैं, परंतु कुछेक गीत हैं जो कि हिंदू धर्म के मिथकों के बारे में हैं। इनके बारे में पूछने पर पापा बताते हैं कि यह तो एकदम हाल की बात है। उनके हिसाब से 1970 के बाद की। पहले सोहराई में कबीर की बातें होती थीं। लेकिन धीरे-धीरे वे गीत खत्म हो गए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हम दीवाली नहीं, सोहराई मनाते हैं। जैसा कि हेमंत सोरेन ने अपने ट्वीट में लिखा है। लेकिन उन्होंने सोहराई को अंत में जगह दिया है। यह इस बात का प्रमाण है कि झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में भी हिंदूवादियों ने अपना प्रभुत्व बढ़ाया है। यदि ऐसा नहीं होता तो सोरेन सबसे पहले सोहराई पोरोब का उल्लेख करते।

खैर, सोहराई हमारे लिए महत्वपूर्ण रहा है। सोहराई की पूर्व संध्या पर हम अपने घरों को रौशन करते हैं। इसे हिंदूवादियों ने राम, कृष्ण और पांडवों से जोड़ा है। उनका एक तर्क है कि राम के अयोध्या वापस लौटने की खुशी में दीये जलाए गए। उनका दूसरा तर्क है कि जब कृष्ण ने नरकासुर को मार दिया तब दीये जलाए गए। तीसरा तर्क है कि महाभारत में पांडवों की जीत के बाद दीये जलाए गए। लेकिन कहना पड़ेगा कि राम ने कृष्ण और पांडवों को पछाड़ दिया है। कल ही अयोध्या में करीब साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए की लागत से दीये जलाए जाने की बात सामने आयी है।

लेकिन मेरे बचपन में कोई राम नहीं था (महत्व तो आज भी नहीं है)। सोहराई के दिन हम सुबह-सुबह उठते और सबसे पहले अपनी भैंसों को धोते। यह काम पापा की देख-रेख में होता। पापा तब भैंसों के लिए नया पगहा आदि तैयार करते तो मैं और मेरे बड़े भाई कौशल किशोर कुमार भैंसों को धोने के बाद उनके शरीर पर करूआ तेल लगाते। करूआ तेल लगाने के बाद उनका काला रंग और निखर उठता था। एक बार पापा ने बताया कि सोहराई के मौके पर हम भैंसासुर की पूजा करते हैं। इसलिए घर में जो खीर, दाल पूड़ी और आलूदम बनता, उस पर पहला अधिकार भैंसों का होता था। फिर हमारे कुलदेवता को यही चढ़ाया जाता और फिर हम सब खाते।

बचपन में सोहराई गायन भी खूब सुनने को मिलता था। मेरे पापा उस मंडली के सक्रिय सदस्य थे जो सोहराई गायन करते थे। अभी तीन साल पहले उन्हें गाते हुए मेरे परिजनों ने रिकार्ड भी किया। उन्हें गाते हुए यहां देखा जा सकता है–

दरअसल, सोहराई के गीतों में यह रहस्य भी है कि कैसे इस आदिवासी परंपरा को खत्म किया गया। मतलब यह कि मेरे पापा जो सोहराई गाते हैं, उनमें आधे से अधिक तो पेड़, पहाड़, खेत, नदी, और मवेशियों से संबंधित हैं, परंतु कुछेक गीत हैं जो कि हिंदू धर्म के मिथकों के बारे में हैं। इनके बारे में पूछने पर पापा बताते हैं कि यह तो एकदम हाल की बात है। उनके हिसाब से 1970 के बाद की। पहले सोहराई में कबीर की बातें होती थीं। लेकिन धीरे-धीरे वे गीत खत्म हो गए।

बहरहाल, सोहराई आज भी आदिवासियों का पर्व है और चूंकि यह मेरे घर में आज भी मनाया जाता है तो मेरे पास एक संबंध सूत्र है, जो मुझे अपने पुरखों के साथ जोड़ता है। और मुझे इससे खुशी मिलती है।

काश कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सोहराय का महत्व समझते और उसे प्राथमिकता देते। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुझे इसकी अपेक्षा नहीं है। वजह यह कि वे अब पूरे तौर पर ब्राह्मणों के गुलाम हो चुके हैं।

खैर, आप सभी को सोहराई पर्व की हार्दिक बधाई।

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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