ओबीसी आरक्षण की सीढ़ी से सत्ता पर काबिज़ होने की जद्दोजहद

चौ. लौटनराम निषाद

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मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में असमान आरक्षण कोटा सामाजिक न्याय के प्रतिकूल

मध्य प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ओबीसी आरक्षण का मुद्दा गर्माया हुआ है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में अगले साल विधानसभा चुनाव होना है। मण्डल कमीशन के तहत ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण कोटा की बजाय मध्य प्रदेश, झारखण्ड में 14 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 13 व राजस्थान में 21 प्रतिशत ही आरक्षण की व्यवस्था है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण कोटा की अधिसूचना जारी की, पर उच्च न्यायालय ने रोक लगा दिया। ऐसा ही झारखण्ड में भी हुआ। मध्यप्रदेश में ओबीसी जनसंख्या 50.9 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 49 प्रतिशत व झारखण्ड में 50 प्रतिशत से अधिक है। बिना ओबीसी आरक्षण कोटा के मध्य प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव सम्पन्न हुआ, जिसको लेकर ओबीसी में काफी आक्रोश था। ओबीसी की जातियों ने बिना कोटे के भी अच्छी जीत हासिल की है। विधानसभा चुनाव में ओबीसी का आरक्षण मुद्दा काफी उलटफेर करेगा। 2003 से आजतक मध्य प्रदेश में ओबीसी के ही (कमलनाथ को छोड़कर) मुख्यमंत्री होने के बाद भी ओबीसी को सामाजिक न्याय नहीं मिल पाया। कमलनाथ की सरकार ने ओबीसी कोटा से बढ़ाकर 27 प्रतिशत किया, जिस पर न्यायालय का हथौड़ा चल गया।

मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव अगले वर्ष होने वाले हैं लेकिन राजधानी सहित पूरे प्रदेश में सियासी सरगर्मियां तेज होने लगी हैं। बीजेपी और कांग्रेस दोनों 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के सहारे सत्ता पर क़ाबिज़ होने की जुगत में है। तमाम राजनीतिक रस्‍साकशी के बीच फिलहाल प्रदेश में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का मामला कोर्ट में अटका हुआ है। लेकिन ओबीसी वर्ग को अपने पाले में लाने के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का दावा कांग्रेस और बीजेपी, दोनों कर रही हैं। वैसे बीजेपी से न्याय की आस लगाना अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा है। अगर भाजपा देना चाहती है तो देरी किस बात की।

राजनीति से इतर आरक्षण के मुद्दे को तय करते समय इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी होता है कि क्या राज्य विभिन्न समुदायों को आरक्षण देने के दौरान सरकार की संघीय ढांचे को बनाए रख रहे हैं या इसे नष्ट कर रहे हैं। समुदायों को आरक्षण देते समय प्रशासन की दक्षता पर भी ध्यान देना होगा।

पिछली बार के बजट सत्र में राज्यपाल मंगूभाई पटेल ने अपने अभिभाषण में ओबीसी वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का संकल्प पारित करने के मुद्दे पर शिवराज सरकार की तारीफ की थी। कांग्रेस के प्रदेश महासचिव पवन पटेल ओबीसी वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण मिलने पर प्रदेश भर में आभार यात्रा निकाल चुके हैं। कुल मिलाकर बीजेपी और कांग्रेस दोनों 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के सहारे सत्ता पर क़ाबिज़ होने की जुगत में हैं।

ओबीसी वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की राजनीति 

मध्य  प्रदेश सरकार ने 2 सितम्बर, 2021 को ओबीसी वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का आदेश जारी किया था। इससे पहले प्रदेश में ओबीसी के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण लागू था। इस आदेश में 8 मार्च, 2019 से इस आरक्षण का लाभ देने की बात कही गई। नये नियम के अनुसार प्रदेश स्तरीय और जिलास्तरीय पदों के लिए कुल 73 प्रतिशत आरक्षण हो गया था। जिसमें अनुसूचित जाति के लिए 16 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए 20 प्रतिशत, ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर आय वर्ग के लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण कोटा हुआ था। पर जबलपुर उच्च न्यायालय ने ओबीसी आरक्षण पर रोक लगा दिया।

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अब सवाल यह है कि ओबीसी 27 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए क्यों महत्वपूर्ण है? दरअसल, मध्यप्रदेश ओबीसी बहुल प्रदेश है और यहां ओबीसी वर्ग का प्रभुत्व है। साथ ही 52 फीसदी मतदाता इसी वर्ग से आते हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रदेश के 230 विधानसभा सीटों में से 120 से ज्यादा सीटों पर ओबीसी वर्ग का सीधा दखल है। इसलिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियां ओबीसी वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण के मुद्दे को सत्ता के शीर्ष तक पहुंच बनाने के मौके के रूप में देख रही है। मध्यप्रदेश में ओबीसी में लोधी, निषाद/ माँझी, यादव, कुर्मी/ पाटीदार, कुशवाहा/ दांगी, गड़ेरिया काफी अच्छी तादात में हैं।

ओबीसी आरक्षण के 27 प्रतिशत तक बढ़ाने को लेकर प्रदेश भर में सवर्ण संगठनों ने इसका विरोध किया। दूसरी तरफ, बढ़ाए गए आरक्षण के समर्थन में भी कई संगठन ने विजय जुलूस व यात्रा निकाली। जबलपुर हाईकोर्ट में आरक्षण को बढ़ाने के खिलाफ 23 और इसके समर्थन में 35 याचिकाएं दायर की गई हैं। हाइकोर्ट ने कई मामलों में ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण देने पर रोक लगा रखी है। पिछले दिनों हाईकोर्ट में ओबीसी आरक्षण के मामलें में लंबित याचिकाओं पर सुनवाई के लिए नई बेंच गठित कर दी गई है। बेंच ने 27 अप्रैल को अंतिम सुनवाई करने के निर्देश दिए थे, लेकिन न्यायालय का अभी तक निर्णय नहीं आ पाया। बढ़े आरक्षण के विरोध में जो हैं उनका मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा साहनी के प्रकरण में साफ दिशा-निर्देश हैं कि किसी भी स्थिति में कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। जबकि इस बढ़े हुए आरक्षण के समर्थकों का यह मानना है कि विशेष परिस्थितियों में कुल आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को बढ़ाया जा सकता है। 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस आरक्षण कोटा देने से तो खुद ही 50 प्रतिशत की सीमा पार हो गयी है, ऐसे में ओबीसी कोटे पर रोक लगाना बिल्कुल गलत है।

क्या है इंदिरा साहनी प्रकरण

मण्डल कमीशन के मामले में इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ 1990 पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा 16 नवंबर, 1992 को फैसला सुनाया गया था। यह नौ न्यायाधीशों का संयुक्त फैसला था, जिसने आरक्षण में 50 प्रतिशत की सीमा जैसे कई ऐतिहासिक प्रस्तावों को निर्णायक रूप से निर्धारित किया। इस फैसले में कहा गया, आरक्षण सुरक्षात्मक उपाय का एक चरम रूप है, जिसे वंचित समुदायों की सीटों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए, भले ही संविधान कोई विशिष्ट प्रतिबंध नहीं लगाता है, इसके बावजूद किसी भी तरह का आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। इस निर्णय और प्रावधान के माध्यम से ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को भी महत्व मिला कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित होनी चाहिए न कि पदोन्नति तक। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय निष्प्रभावी हो चुका है। जब केन्द्र सरकार संविधान व उच्चतम न्यायालय के निर्णय के परे 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटा दे दिया तो ओबीसी आरक्षण में न्यायिक अड़ंगेबाजी अन्याय की प्रतिरूप बन गयी है।

राज्यों द्वारा 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा का पालन

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित निर्णय के बावजूद 1992 से मध्य प्रदेश सहित महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु जैसे कई राज्यों ने 50 प्रतिशत आरक्षण की इस सीमा का उल्लंघन करने वाले कानून पारित किए हैं। जुलाई 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में राज्यों को आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की सीमा को पार करने की अनुमति दी, बशर्ते उनके पास वृद्धि को सही ठहराने के लिए ठोस वैज्ञानिक तथ्य हों। सुप्रीम कोर्ट ने 11 अक्टूबर, 2013 को भी तमिलनाडु आरक्षण मामले के निर्णय में साफतौर पर कहा कि कोई भी राज्य सरकार अपने राज्य में जितने प्रतिशत चाहे आरक्षण कोटा दे सकती है, बशर्ते कि उसका पास जनसंख्या का पुष्ट आँकड़ा उपलब्ध हो। ऐसे में उच्च न्यायालयों द्वारा उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध मध्यप्रदेश की कमलनाथ, छत्तीसगढ़ की भुपेश बघेल व झारखण्ड की हेमंत सोरेन सरकार की अधिसूचना पर रोक लगाना अनुचित अवैध  है।

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50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को चुनौती देने वाला पहला राज्य तमिलनाडु था, जिसमें पिछड़ी जाति की राजनीति की एक मजबूत राजनीतिक संस्कृति थी। 1993 में राज्य की विधानसभा ने इंदिरा साहनी के फैसले की अवहेलना करने और अपनी आरक्षण सीमा को बनाए रखने के लिए तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का आरक्षण और राज्य के तहत सेवाओं में पदों का आरक्षण) अधिनियम पारित किया। कुल आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से बढ़कर 69 प्रतिशत हो गई और यह अभी भी बरकरार है। यही नहीं, तमिलनाडु ही ऐसा राज्य है, जहां ओबीसी आरक्षण को 9वीं अनुसूची में शामिल किया जा चुका है।

आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को महत्वपूर्ण झटका तब लगा जब केंद्र सरकार द्वारा 2019 में संसद के माध्यम से संवैधानिक संशोधन कर आर्थिक आधार पर उच्च जाति वर्ग के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया।हालांकि 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा किसी भी क़ानून द्वारा निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित की गई है, इसलिए सभी प्राधिकारियों के लिए बाध्यकारी थी। लेकिन फैसले में ही कहा गया था कि विशेष परिस्थितियों में प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। ‘विशेष परिस्थितियों’ के साथ जो मुद्दा उठता है वह यह है कि 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ाए गए आरक्षण के मामले में वास्तव में विशेष परिस्थिति मौजूद है या नहीं और यदि हां तो सीमा कितनी अधिक हो सकती है।

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राजनीति से इतर आरक्षण के मुद्दे को तय करते समय इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी होता है कि क्या राज्य विभिन्न समुदायों को आरक्षण देने के दौरान सरकार की संघीय ढांचे को बनाए रख रहे हैं या इसे नष्ट कर रहे हैं। समुदायों को आरक्षण देते समय प्रशासन की दक्षता पर भी ध्यान देना होगा। आरक्षण विरोधियों का मानना है कि सीमा से अधिक आरक्षण प्रदान करने से योग्यता की उपेक्षा होगी, जो पूरे प्रशासन को परेशान करेगी। जबकि आरक्षण समर्थकों का मानना है कि आरक्षण बढ़ने से कम सुविधा वाले समुदायों को अपने प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का मौका मिलेगा, जो कि आजादी के इतने सालों बाद भी इस समुदायों की जनसंख्या के मुकाबले कम है।

लेखक सामाजिक न्याय चिंतक और भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।

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