जहाँ एक तरफ सरकार देश के युवाओं को रोजगार मांगने वाला नहीं बल्कि देने वाला बता रही है वहीं फतेहपुर के युवा कॉलेज से डिग्रियां लेने के बाद भी रोजगार के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ ही घोड़हा के लोगों ने शिक्षा के महत्व को समझा है। अब लगभग हर घर के बच्चे स्कूल जाते हैं। लड़के-लड़की में पहले की तरह भेदभाव करने की परंपरा कमजोर पड़ती गई है। अब लड़के ही केवल दुलरुआ नहीं हैं, बल्कि लड़कियां भी दुलारी हैं।
गांवों के बारे में अपने विचार को, ‘गांव’ शब्द को, गांव और शहर के बीच के फर्क और दोनों में फर्क बताने वाले तरीकों को दिमाग में रखकर आप सुधार के नाम पर जो कुछ भी करेंगे, उससे आने वाला बदलाव उतना ही होगा जैसा ‘पारायर’ और ‘चकिलियार’ जातियों के नाम बदलकर ‘हरिजन’ और ‘आदि द्रविड़ार’ करने से आया है। सच्चा बदलाव कभी नहीं आएगा जिससे ‘पारायर’ दूसरे मनुष्यों के बराबर हो जाते। हो सकता है कि ‘ग्राम्य सुधार कार्यों की मार्फत एक गांव अच्छा गांव’ बन जाए, लेकिन गांव के लोगों को कभी भी शहरी लोगों जैसे अहसास या अधिकार नहीं मिल पाएगा। पेरियार का प्रसिद्ध भाषण।
लैंगिक असमानता झेलती किशोरियां और महिलाएं
गनीगांव (उत्तराखंड)। प्रत्येक बच्चे का अधिकार है कि उसे उसकी क्षमता के विकास का पूरा मौका मिले। लेकिन समाज...
अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मानें तो अगले हफ्ते आने वाले आज़ादी के अमृत महोत्सव तक भारत के हर आदमी को पक्का घर, घर में नल, नल में जल, शौचालय, बिजली, एलइडी बल्ब, बल्ब में रोशनी, सिलेंडर और सिलेंडर में गैस का जो सपना उन्होंने देखा था वह पूरा होनेवाला है। लेकिन उन्हीं के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से सटे (बल्कि कुछ साल पहले उसी का हिस्सा रहे) जिला चंदौली के नौगढ़ तहसील के अनेक गाँवों में उनका यह सपना अभी झूठ और छलावा मात्र है।
जबकि सदियों से हमारे देश में मनुष्य और प्रकृति के द्वारा जल का संचय होता आया है। लेकिन आज यह स्थिति बदल गई है। इसमें सरकारी तंत्र पर समाज के आश्रित हो जाने ने अहम भूमिका निभाई है। इसका परिणाम जल प्रबंधन में सामुदायिक हिस्सेदारी के पतन के रूप में सामने आया। नदी के किनारे बस रहे लोगों को पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा।
21 सालों के सफर में जहाँ राज्य ने कई कीर्तिमान बनाये हैं वहीं कई स्तर पर कई तरह की चुनौतियाँ आज भी मौजूद हैं। यह सच है कि कोविड जैसी वैश्विक महामारी ने पिछले डेढ़ दो सालों में जान माल का भारी नुक़सान तो किया ही, विकास की गति को भी अवरुद्ध किया है। जिसकी वजह से राज्य के कुल बजट की राशि का अभी तक लगभग 31 प्रतिशत ही खर्च हो पाया है जबकि वित्तीय वर्ष समाप्ति के मात्र चार पांच महीने ही शेष बचे हैं।