भारत के हर गाँव की एक या अनेक कहानियां हैं, जो उसके बसने, विकसित होने और उजड़ने की अनेक दंतकथाओं और तथ्यों को अपने गर्भ में छिपाए रहती हैं। ये कहानियां रोचक और अनेक प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक घटनाओं से बुनी हुई होती हैं। जिस दौर में शहरों के पुराने वैभव को उजाड़कर एक जैसी कंक्रीट की इमारतों के जंगल में बदला जा रहा है उस दौर में गाँव भी बिना बदले नहीं रह गए हैं। गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की एक महत्वाकांक्षी योजना भारत के गाँवों की कहानियों का पुनर्लेखन है, जिन्हें ‘गाँव के लोग’ पर ऑनलाइन किया जायेगा। इसका उद्देश्य गांवों की वास्तविक कहानियों को पाठकों और नई पीढ़ियों के सामने ले आना है। आप भी अपने गाँव की कहानी हमें भेज सकते हैं। शर्त इतनी है कि वह लिखित और मौखिक तथ्यों पर आधारित वस्तुगत इतिहास हो न कि झूठे और प्रचारित मिथकों और गौरवगान का पुलिंदा। हमारी टीम कहानी की जाँच-परख करके उसका तय ढांचे के अनुसार पुनर्लेखन करेगी, जिसे वेबसाइट पर प्रकाशित किया जायेगा। फ़िलहाल वेबसाइट पर एक गाँव की कहानी दी जा रही है। इस अंक में प्रस्तुत है वाराणसी जिले के एक गाँव घोड़हा की कहानी।
वाराणसी जिला मुख्यालय से 7 किलोमीटर पश्चिम पड़ने वाला ग्राम घोड़हा थाना शिवपुर, ब्लॉक हरहुआ तहसील वाराणसी सदर वाराणसी-जौनपुर रोड के तरना बाईपास से पहले ही पंचक्रोशी क्रॉसिंग से हरहुआ की ओर जाने वाले पंचक्रोशी रोड पर है। गणेशपुर रेलवे क्रासिंग से एक बीघा पहले ही पड़नेवाले मंदिर से निकलने वाले पंचक्रोशी-बीरापट्टी लिंक मार्ग के किनारे स्थित यह गाँव अब बूढ़-पुरनियों से लगभग खाली हो चुका है। नए लोग श्रुतियों और किंवदंतियों तथा इतिहास में कोई खास दिलचस्पी नहीं रखते हैं।
हालाँकि अब भी चाय-पान की दुकानों पर लोग जमे रहते हैं लेकिन बातचीत का मसला अब समाजीकरण की विशेषताओं से बहुत अलग नए-नए आर्थिक उपक्रमों और तिकडमों वाला हो चुका है। घोड़हा अब शहरी सीमा के भीतर है और नई रिहायशी कॉलोनियों के बन जाने से जमीनों का भाव यहाँ तेजी से बढा है। एक एक इंच जमीन की कीमत बहुत बढ़ी है लिहाज़ा ज़मीन का सौदा काफी फायदेमंद हो गया है।
अब प्रायः लोग ज़मीन की सौदेबाज़ी, अच्छे मकान और महँगी गाड़ियों के सपने देखने लगे हैं। किसान और भूमि का पुराना भावनात्मक रिश्ता अब बीते दौर की बात हो चुका है। बेशक गाँव का नक्शा धीरे-धीरे बदल रहा है लेकिन कुछ भौगोलिक साक्ष्य अभी भी वहां मौजूद हैं, मसलन गाँव में अभी पांच कुएं मौजूद हैं, जिनमें नाज़िर का कुआं और बुढ़ियामाई का कुआं भी हैं। अलबत्ता सभी कुएं प्रायः जलविहीन हो चुके हैं। किसी ज़माने में यहाँ पीकेपी ब्रांड का एक ईंट भट्ठा हुआ करता है, जिसके स्मृति-चिन्ह अब कतिपय घरों की दीवारों में ही सुरक्षित हैं। भट्ठा वर्षों पहले बंद हो चुका है।
सीमाएं एवं प्राकृतिक विवरण
घोड़हा गाँव की सीमाएं पूरब में हटिया पश्चिम में गणेशपुर उत्तर में सभईपुर और दक्षिण में तरना से मिलती हैं। इसका क्षेत्रफल लगभग एक सौ बीघा है। इसके पश्चिमी छोर से वाराणसी-लखनऊ रेलवे लाइन है। घोड़हा गाँव एक मैदानी गाँव है। यहाँ नदी, जंगल, पहाड़ या झरना आदि कोई प्राकृतिक संपदा नहीं है, लेकिन गाँव भर में पांच-छः सौ पेड़ हैं, जो अपने स्तर पर हरीतिमा और पर्यावरण को समृद्ध बनाये हुए हैं।
विद्युतीकरण
घोड़हा यद्यपि चारों ओर से पहुँच मार्गों से जुड़ा है और शहरीकरण के साथ तेजी से कदमताल कर रहा है, लेकिन बिजली की उपलब्धता यहाँ एक विपर्याय बनाती है। उत्तर प्रदेश के अमूमन गाँवों की तरह यहाँ भी बारह घंटे बिजली रहती है, लेकिन पढ़ने वाले बच्चों के नसीब में अभी भी उसकी रोशनी नहीं है। इसके बावजूद कि अधिकतर बच्चे तरना, शिवपुर, सुद्धिपुर, भोजूबीर आदि जगहों पर चलनेवाले महंगे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने जाते हैं, लेकिन होमवर्क और पढाई उन्हें भी अपने पिताओं की तरह ढिबरी की ही रोशनी में करना पड़ता है, क्योंकि रात दस बजे जब बिजली आती है, तब तक वे सो चुके होते हैं। बच्चों की ही तरह खेतिहर और किसान भी बिजली की इस अनूठी उपलब्धता से धीरे-धीरे खेती से विमुख होते गए हैं।
सुविधाएँ
घोड़हा में कोई प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालय भी नहीं था। यहाँ के बच्चे या तो गणेशपुर प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे या फिर सभईपुर माध्यमिक विद्यालय में। हाल-फिलहाल वाराणसी इंटरनेशनल स्कूल नामक एक निजी विद्यालय यहाँ शुरू हुआ है। कोई डिस्पेंसरी या स्वास्थ्य केंद्र भी यहाँ नहीं है। पंचानबे फीसदी मकान पक्के हैं, लेकिन पांच प्रतिशत झुग्गी-झोंपड़ियाँ भी हैं। गाँव में जलनिकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। बरसाती पानी पंचक्रोशी सीवर लाइन में गिरता है। पेयजल के लिए कुएं अब अतीत की बात बन चुके हैं। संपन्न लोगों ने अपने निजी हैंडपंप लगवाए हैं। सार्वजनिक पेयजल प्रदाता तीन सरकारी हैंडपंप भी हैं। गाँव में कोई चौपाल और पंचायत भवन नहीं है। कृषि-कार्य के लिए कुछ लोगों ने निजी पंपिंगसेट लगवाये हैं।
लोकश्रुतियाँ और इतिहास
संयोग से दो बुजुर्गवार अभी भी मौजूद हैं। रामू पहलवान और देवराज सरदार जिनकी याददाश्त सौभाग्य से ठीक-ठाक है। गाँव घोड़हा कब बसा इसकी ठीक-ठीक जानकारी तो उन्हें भी नहीं है, लेकिन लोकश्रुतियों के सहारे वे बताते हैं कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले रात के अँधेरे में एक अंग्रेज घुड़सवार कहीं जा रहा था कि अचानक घोड़ा एक मंड़ार (गड्ढे) में गिर पड़ा। घोड़े की टांग टूट गई, जबकि घुड़सवार के प्राण पखेरू उड़ गए। बाद में लोगों ने उस मरने वाले को ‘घोड़हा (घोड़ेवाला) बाबा’ कहना शुरू कर दिया। कालांतर में ‘घोड़हा बाबा’ का एक छोटा-सा स्मारक मंदिर बन गया।
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गाँव के भीतर सँवरू यादव के मकान के पीछे बने इस छोटे से पीले मंदिर को दिखाते हुए एफसीआई में कार्यरत मुन्ना लाल (अब दिवंगत) ने बताया कि पुराने लोग अंग्रेजों को गोर्रा कहकर उनसे दूर भागते और नफरत करते थे, लेकिन अंग्रेज घुड़सवार को उन्होंने बाबा बना दिया। मुन्ना कहते हैं कि यह आश्चर्यजनक ही है कि आज भी शादी-ब्याह में महिलाएं यहाँ परछन करती हैं और प्रसाद चढ़ाती हैं।
जबकि रामू पहलवान कहते हैं कि मरनेवाला घुड़सवार अंग्रेज नहीं, बल्कि सैयद था, जिसकी नवाबी यहीं कहीं थी। वह अपनी एक उपपत्नी के यहाँ से रात के अँधेरे में तेजी से घोड़ा दौड़ाते हुए अपने किले की ओर जा रहा था कि एड़ लगाने से घोड़ा बिदक गया और सरपट भागता हुआ गहरे गड्ढे में जा कूदा। उनके मुताबिक इस घटना के हुए दो सौ साल हो गए होंगे, लेकिन देवराज सरदार इसे ग़दर (1857) के आसपास की घटना बताते हुए कहते हैं कि मरनेवाला अंग्रेज सेना का अफसर था और जैसे ही उसके गड्ढे में गिरकर मर जाने की खबर छावनी पहुंची वैसे ही अनेक अंग्रेज अफसर इस गाँव में पहुंच गए। उन्हें शक था कि गाँव वालों ने इसे मारकर कुएं में फेंक दिया है। कई लोग पकड़े गए लेकिन जांच-पड़ताल के बाद यह साबित हुआ कि घुड़सवार वास्तव में दुर्घटना का शिकार हुआ है।
डर के आलम के बारे में देवराज सरदार एक दिलचस्प बात बताते हैं जो तथ्यात्मक रूप से बहुत जेनुइन लगती है। वे कहते हैं कि अब तो व्यवहार अधिक तार्किक, समझौतावादी और जुगाडू हो गया है। अमूमन लोग सरकारी अफसरों से डरने की बजाय उन्हें पटा लेते हैं, क्योंकि उनके लालच को सब लोग समझने लगे हैं, लेकिन उन दिनों तो गाँव का गोड़इत या चपरासी की पगड़ी का लाल झब्बा भी देख लेते तो भागते और छिपते-फिरते थे। वे कहते हैं कि उन्होंने अपने दादा से सुना था कि स्वयं अंग्रेज अफसर भी हिन्दुस्तानियों से बुरी तरह डरते थे और इसीलिए वे उनसे एक दूरी बना कर चलते थे।
देवराज सरदार ने अपने बचपन के दिनों का हवाला देते हुए बताया कि सन 1942 में वे सात-आठ साल के रहे होंगे। भारत छोडो आन्दोलन के दौरान घोड़हा, हटिया, गणेशपुर, तरना, चमांव, सभईपुर आदि गाँवों के सैकड़ों लोगों ने वाराणसी-जौनपुर रेलखंड की पटरियां उखाड़ फेंकी। बाद में जब धर-पकड़ शुरू हुई तो लोग यहाँ-वहां जा छिपे और आंदोलन बिखर गया।
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दंतकथाएं थीं कि जेल में डंडा-बेड़ी डाल कर कोल्हू पेरवाया जाता है और अगर जरा-सी चाल धीमी हुई तो कोड़े मारके चमड़ी उधेड़ ली जाती है। लोग कहते थे कि गान्हीजी तक को अंग्रेज जेल में बहुत सताते हैं। उनको सिर पर मैले से लदा घड़ा लेकर चलने को कहते हैं और चलने पर कंकड़ मारकर घड़ा फोड़ देते थे। इन थर्रा देने वाली दंतकथाओं ने सेनानियों के मन में डर भर दिया। लिहाज़ा बहुत कम गिरफ्तारियां हो पाईं और इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम में घोड़हा का जीवंत इतिहास होकर भी अलिखित रह गया।
जैसा कि आसपास के गाँवों और इलाकों से आभास होता है कि घोड़हा का इतिहास किसी न किसी रूप में मध्यकालीन शासन व्यवस्था से जुड़ता है। कुछ ही दूरी पर शिवपुर और काज़ीसराय जैसी महत्वपूर्ण जगहें स्थित हैं और बिलकुल सीमा पर हटिया गाँव है, जो इतिहास में स्थानीय बाज़ार होने का आभास देता है। इस प्रकार घोड़हा बाबा की दंतकथा के विपरीत यह गाँव घुड़सवार सैनिकों के लिए बसाया गया गाँव अधिक लगता है।
घोड़हा का स्थानीय भाषा में अर्थ घुड़सवार या घोड़ेवाला है। यहाँ मिलनेवाला नाज़िर का कुआं भी इस बात की ओर संकेत करता है। भू-राजस्व अभिलेखों में इस गाँव की जमीनें उत्तर प्रदेश में सिरधरी कानून लागू होने के बाद जोतदारों के नाम हुईं। इस तरह यह तथ्य अधिक वास्तविक लगता है कि घोड़हा और उसके आस-पास के गाँव खेतिहरों और सैनिकों के गाँव थे, जो मध्यकालीन अथवा ब्रिटिशकालीन सत्ताओं की सेवा में थे।
मालूम देता है कि उन्हीं में से किसी घुड़सवार की स्मृति में घोड़हा बाबा की दंतकथा प्रचलित हुई होगी। बेशक पहले और दूसरे विश्वयुद्धों में शामिल किसी सैनिक की जानकारी वर्तमान घोड़हावासियों को नहीं है। इस समय यहाँ की ग्राम प्रधान हीरामनी देवी पटेल तथा क्षेत्र पंचायत सदस्य रामबली यादव हैं।
वाराणसी गजेटियर के अनुसार, बहुत से गाँवों का इतिहास अप्राप्य है जिनमें घोड़हा भी है। हालाँकि, अब यह एक राजस्व गाँव है और यहाँ के लोगों की अपनी माली और समाजी हैसियत राजनीति के नए धुरंधरों को लगातार अपनी ओर खींचती है।
जनसंख्या
घोड़हा गाँव की आबादी लगभग 1400 है और जातिवार जनसंख्या के अनुसार यह गाँव यादव-बहुल है। लगभग तीन चौथाई से अधिक यादव हैं। शेष में तकरीबन 250 मौर्या तथा 50 पटेल हैं। नई कॉलोनियां बंनने से बाहर के लोगों का आना अबाधित है। घोड़हा के कुछ गाँव पश्चिम से वाराणसी रिंग रोड निर्माणाधीन (अब चालू) है, जिसके कारण इस गाँव में आबादी का घनत्व तेजी से बढ़ना संभावित है। स्त्री-पुरुष अनुपात की दृष्टि से आबादी 1000 : 990 है।
रोजगार
घोड़ाहा कृषि प्रधान गाँव था, लेकिन धीरे-धीरे खेती का काम कम होता जा रहा है। अब भी कुल आबादी के 25 प्रतिशत लोग खेती करते हैं। 3 प्रतिशत दस्तकार, 10 प्रतिशत कुशल मजदूर हैं, जबकि अकुशल मजदूर सबसे अधिक 52 प्रतिशत हैं। 5 प्रतिशत लोग कुटीर उद्योग से जुड़े हैं। गाँव में दूकान-दौरी अथवा दूसरे व्यवसाय में 3 प्रतिशत लोग लगे हैं, जबकि सबसे कम यानी 2 प्रतिशत लोग सरकारी नौकरियों में हैं। अधिकतर भारतीय खाद्य निगम, बीएसएनएल, उत्तर प्रदेश पुलिस तथा रेलवे से सम्बद्ध हैं।
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इस गाँव में मास्टर साहब यानी गौरीशंकर सिंह के बस जाने से कई अच्छे खिलाड़ी निकल गए, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया और खेल कोटे से सरकारी नौकरी पाने में सफल रहे। घोड़हा गाँव के एक युवा चार्टर्ड एकाउंटेंट संजय कुमार यादव ने अंतर्जातीय और प्रेम विवाह करने का एक साहसिक उदाहरण पेश किया। इसी गाँव के दीपक यादव बास्केट बाल के राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी हैं और रेलवे में नौकरी करते हैं। पहलवानी के क्षेत्र में रामू पहलवान पुराने नामी पहलवान रहे हैं तथा उनके पुत्र लल्लन पहलवान ने भी राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया है।
सरकारी योजनाएँ
घोड़हा गाँव में केंद्र और राज्य सरकार की कई योजनाएँ लागू हैं, जिनमें केंद्र सरकार की इंदिरा आवास योजना तथा विधवा पेंशन योजना लागू है। राज्य सरकार की लागू योजनाओं में बेरोजगारी भत्ता योजना तथा समाजवादी पेंशन योजना प्रमुख हैं। मनरेगा, लोहिया ग्रामीण आवास योजना आदि के घपले यहाँ भी सामान्य रूप से होते रहे हैं। राशनकार्ड बनवाने में पक्षपात और लेन-देन तथा मनरेगा में फर्जी जॉब कार्ड के माध्यम से यहाँ कार्यरत अधिकारियों और लोकसेवकों ने यथासंभव पैसा बनाया है।
सांस्कृतिक परिदृश्य
भारत के आम गाँवों की तरह घोड़हा भी अंधविश्वासों और धार्मिक मान्यताओं से लबरेज है। सामंती मान्यताओं को लेकर भी यहाँ प्रबल आग्रह है और इसके कारण जातीय भावना एक महत्वपूर्ण घटक है। अनेक लोग भूत-प्रेत में विश्वास करते हैं और अपनी विपत्तियों से छुटकारे के लिए पारिवारिक बजट का खासा हिस्सा खर्च कर जगह-जगह जियारत करते हैं। कुछ लोग ईसाई मतावलंबी भी हैं। घोड़हा बाबा के मंदिर का वार्षिक श्रृंगार किया जाता है। एक हनुमान मंदिर गोपाल कुंड के नाम से है।
अपनी इन सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ ही घोड़हा के लोगों ने शिक्षा के महत्व को समझा है। अब लगभग हर घर के बच्चे स्कूल जाते हैं। लड़के-लड़की में पहले की तरह भेदभाव करने की परंपरा कमजोर पड़ती गई है। अब लड़के ही केवल दुलरुआ नहीं हैं, बल्कि लड़कियां भी दुलारी हैं। हालांकि, घोड़हा के आम घरों में बर्तन मांजने, सब्जी काटने और आटा सानने के लिए अभी भी माताएँ, लड़कियों को ही आँख दिखाती हैं।
प्रेम करने और शारीरिक सम्बन्ध बनाने के प्रति लड़कियों को लेकर एक भय है। लड़कियों को शारीरिक शिक्षा और निर्भय होकर जीने की प्रेरणा बहुत कम परिवारों में मिल पा रही है। यहाँ तक कि शिक्षा भी लड़कियों को आर्थिक आत्मनिर्भर होने से अधिक अच्छी जगह शादी की ही भावना से प्रेरित है।
स्त्री साक्षरता की दर अधिकतम 45 प्रतिशत ही है जबकि पुरुष साक्षरता 80 प्रतिशत है।
यातायात के साधन
सड़क मार्ग से घोड़हा तक पहुंचना बहुत आसान है। कैंट से बीरापट्टी के लिए चलने वाली सिटी बस घोड़हा से होकर जाती है। स्थानीय रेलवे स्टेशन शिवपुर तथा बस स्टैंड घोड़हा है। वाराणसी जौनपुर हाईवे पर स्थित ओलंपियन विवेक सिंह गेट से घोड़हा आसानी से आया जा सकता है। नई रिंग रोड से घमहापुर के पास से सड़क घोड़हा गाँव आती है।
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