इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तीन कश्मीरी छात्रों को जमानत दे दी है। इन छात्रों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इनपर आरोप था कि पिछले वर्ष टी-20 मैच के बाद इन्होंने ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ का नारा लगाया था। सच पूछा जाए तो हाईकोर्ट ने पुलिस की भूल और लोअर कोर्ट द्वारा किए गए अन्याय में सुधार किया है। न्यायोचित तो यह होता कि इन्हें बहुत पहले जमानत मिल जाती।
हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि इनकी गिरफ्तारी देशद्रोह संबंधी कानून के दुरूपयोग का उदाहरण है। यह कानून अंग्रेजों ने अपनी सत्ता की रक्षा के लिए बनाया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून के उपयोग को सीमित कर दिया है परंतु उसे इसे समाप्त करने की दिशा में प्रक्रिया प्रारंभ करनी चाहिए। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन छात्रों को जमानत देते हुए कहा कि देश की एकता बांस का पेड़ नहीं है जो नारों से चली हवा से छिन्न-भिन्न हो जाए।
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यद्यपि अदालत के आदेश से इन छात्रों को राहत मिली किंतु इन्हें पांच महीने तक जेल की यंत्रणा सहनी पड़ी। टाईम्स ऑफ इंडिया अपने संपादकीय में सुझाव देता है कि ऐसे मामलों में, विशेषकर जिनमें देशद्रोह का आरोप लगा हो, जमानत जल्दी से जल्दी दी जानी चाहिए।
इस मामले से एक दुःखद घटना जुड़ी है। यह है आगरा बॉर एसोसिएशन का वह निर्णय जिसके अनुसार इन छात्रों को किसी भी प्रकार की कानूनी सहायता देने से एसोसिएशन के सदस्यों को रोक दिया गया था। इसके अतिरिक्त इन छात्रों को न्यायालय परिसर में हिंसक हमले का सामना भी करना पड़ा था। ऐसे मामलों में उच्च न्यायालयों को सावधानी रखनी चाहिए और निचली अदालतों पर नियंत्रण भी रखना चाहिए।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में यह सुझाव दिया है कि ऐसे छात्रों को, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षा पाने के लिए जाते हैं, पूरी सुरक्षा मिलनी चाहिए और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। यह तथ्य की सरकारों को ऐसी साधारण सावधानियों की याद दिलानी पड़ती है, इस बात का सबूत है कि उच्च न्यायपालिका ही हमारे नागरिक अधिकारों का वास्तविक संरक्षक है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं।