देश की राजनीति में हर तरफ जादू हो रहा है। कोई लटक रहा है, तो कोई लटका रहा है। कोई उछल रहा है, तो कोई उछाल रहा है। गरीबी, भुखमरी, मँहगाई, बेकारी से किसी को कुछ लेना-देना नहीं है, संवेदनहीनता और असहिष्णुता पराकाष्ठा पर… मगर सब ताख पर रखकर राजनीति हो रही है, जात, धर्म, वोट, कुर्सी की… पूरा तमाशा चल रहा है, कुछ लोग मजमा लगाकर तमाशा कर रहे हैं… कुछ मजमा के बीच में जाकर डुगडुगी बजा रहे हैं, खप रहे हैं, खपा रहे हैं… मर रहे हैं, मार रहे हैं… । ऐसा ही एक तमाशा आप भी देखिए… यह रूपक है, खेल है, अगर इसे देखकर आज के दौर की विद्रूपताओं पर आपकी नजर जाती है, तो आप खुद ही समझ जाएँगे कि आपके समय का तनाव क्या है, आतंक क्या, भयावहता और अराजकता क्या…? कितना नाटक और हल्ला है यहाँ… फिर सोचिएगा कि यह जादू है कि समय का सच?… सोचिएगा हम लोग तालियाँ पीटने और थालियाँ बजाने के लिए क्यों मजबूर हैं? किसके सम्मोहन का कैसा मारक असर है हम पर? बिमारी-महामारी आए तब नाटक… चुनाव आए तब नाटक… mमहंगाई बढ़े तब नाटक… नाटकबाजों का देश हो गया है यह।
…तो कहानी यूँ शुरु होती है… गाँधी चौक पर जहाँ चारों ओर आने वाली सड़कों की सलीब टंग जाती है और फिर शहर का नक्शा कई दुनियाओं में बँट जाता है। ठीक बायीं तरफ की खाली जमीन के एक टुकड़े में एक जादूगर काला चोंगा पहने मजमा लगाए हुए था। मैं ठिठक गया। वर्षों का यह अनुभव था कि शहर के इस कोने में कोई न कोई मजमाबाज दुनिया को अपने अपनी अलौकिक चीजों से काबू में कर अपना मकसद साध लेता था। कभी हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटी बेचने वाला, तो कभी मूँगा-पत्थर बेचने वाला, तो कभी तोता लेकर भाग्य उचारने वाला! कभी कलकत्ता का काला जादूगर, तो कभी बम्बई का… बनारस का… आज दिल्ली की बारी थी शायद!
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वह गले में एक बड़ा ढोल लगाए चिल्ला रहा था, ‘आइए.. आइए… मेहरबान… कद्रदान… दिल्ली का जादू देखिए…’ डिम! डिम! डिम!
भीड़ जब जमा हो गयी, तो रेल-पेल होने लगी!
चूनांचे जब लोगों की बेसब्री बढ़ने लगी, तो दिल्ली के जादूगर का गिर्दा तेज हो गया। वह दिल्ली का हो न हो, पर दिल्ली का जादू तो पूरे मुल्क के सिर चढ़कर बोलता है। दिल्ली बहुरुपियों, जादूगरों और ठग नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का अड्डा नहीं तो क्या है… लोगों को बेवकूफ बनाना और अपना मतलब साधना उसका काम है। दिल्ली पर सचमुच ऐसे ही लोगों का कब्जा है… वहाँ बस में टिकट काटने वाला परिवहन मंत्री तो कोयला बेचने वाला कोयला मंत्री हो जाता है, ..तो काठ की कुर्सी बनाने वाला रेंगकर कुर्सी तक पहुँच जाता है, यह तो फिर भी मँजा हुआ जादूगर था!
मैं यह सब सोच ही रहा था कि जादूगर ने टोन बदलकर चिल्लाया, ‘भाइयो एवं बहनो, जादू क्या है?’
मैं चौंका, एक दुबला-पतला मि. इंडिया टाइप लड़के ने जवाब में जोर से कहा, ‘शक्ति है…’
“शक्ति क्या है?”
“सिद्धि है।” लड़के के साथ भीड़ ने भी दुहराया।
“सिद्धि क्या है?
“जीवन है।”
“जीवन क्या है?”
भीड़ में से किसी ने कहा, “नाटक है, नटबाजी है।”
सभी हँस पड़े लेकिन जादूगर अपनी रौ में रहा। उसने हवा में हाथ लहराया, तो रंग-बिरंगे रुमाल गिरने लगे, मुझे लगा लालकिला की सबसे ऊँची बुर्जी से फूलों की वर्षा हो रही है। तमाशबीन विस्मय से खुश हो रहे हैं इस इनायत पर, जैसे आश्वासन की गुलाबी पंखुड़ियाँ पैसे की शक्ल में गिर रही हों।
मैंने जेब टटोली, पैसे आए कि नहीं अठन्नी टकरायी। मन हुआ फेंककर चलता बनूँ, पर तभी आवाज आयी…
“भाइयो एवं बहनो जिन्दा लड़का टुकड़ा-टुकड़ा…”
“यह तो माबलीचिंग है भाई।” किसी ने कहा, “इस पर तो बैन लगना चाहिए..”
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मैं चौंका, माबलीचिंग? मेरी आँखों मे कई धुँधले दृश्य तैर गए। यह इस सदी का अनोखा शब्द है, जहाँ बहुत से लोग आदमी को घेर कर जानवर की तरह मारते हैं, ….पर वह अकेले हवा में छुरा लहरा रहा था, मुझे लगा माबलीचिंग इसी तरह की एक अकेली सोच से पैदा हुई घटना है, जो समूह के बीच घटती है, तो सामूहिक घटना लगती है… उसने एक पल में लड़के के तीन टुकड़े कर दिए। खून से उसके हाथ सन गए। इस खेल को समेटने के बाद उसने चिल्ला कर कहा, “बन्द बक्से से कबूतर गायब।”
“देखा है भाई, बहुत पुराना खेल है.. तीन-पाँच का खेल।”
भीड़ उखड़ने लगी। मुझे लगा, उससे गलती हो गयी, लड़का वाला खेल उसे बाद में दिखाना चाहिए था… मगर यह कोई नया अनुभव नहीं था उसके लिए… वह कोई कच्चा खिलाड़ी नहीं था। बाजी पलटना जानता था। कुछ देर तक वह बौखलाने का स्वांग करता रहा। सचमुच उसका जादू ढीला पर रहा था, तभी वह गरजा, “नंबर चार। इधर का माल उधर। पुराना माल दो, नया लो…”
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“यह तो पहले से यहाँ भी खूब होता है उस्ताद!” भीड़ फिर हँस पड़ी।
जादूगर अब लाचार हो रहा था, वह चिल्लाया, “लड़का को अब लड़की बनाया जाएगा। जो हिम्मत आजमाए, आगे आए।”
भीड़ अपने आप खलबलाकर नपुंसक बन गयी। एक लड़का दिल्ली के जादूगर की चुनौती पर आगे आया। जादूगर ने मशान घुमाया, बस वह लड़की बन गया। मुझे लगा यही इस जादूगर की असली ताकत है। दिल्ली के सामने बड़े-बड़े का मर्दानापन झड़ जाता है। लड़का अब जादूगर की चिरौरी कर रहा था। भीड़ अश्लील मज़ाक कर रही थी।
जादूगर का जलवा लौट आया था। चिड़िया जैसे फड़फड़ाने के बाद डैने गिरा देती है, भीड़ उसकी मुट्ठी में थी। वह चीखा, “छोड़ दिया जाए कि मार दिया जाए?”
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“छोड़ दिया जाए।” डर कर भीड़ ने कहा।
लड़के को लड़की से लड़का बनाकर उसने कहा, “जादू से जोर नहीं, जोश नहीं। फिर उसने ताबीज वाला बंडल खोल दिया।”
बिक्री शुरु हो गयी। मुझे लगा खेल का मकसद पूरा हुआ। मेरे मन उसकी इस चालाकी पर शरारत सूझ रही थी कि बगल में जाकर कान में मुँह सटाकर पुछूँ,” हराम के इस पैसे से मशरूम खाओगे कि मांस…?” तभी वह फिर चिल्लाया, “जादू है दिल्ली का… भाइयो एवं बहनो! अब आखिरी नम्बर… बिना डंडा का हवा में लड़का लटकेगा… कोई अपनी जगह से हिलेगा नहीं… न खुद भागूँगा और न भागने दूँगा, किसी को…”
“क्या?” भीड़ के साथ इस बार मुझे भी लगा कि कुछ अजीब होने वाला है। वह ढोल पीटते हुए गोल-गोल चक्कर मारने लगा। बाँस की खपच्ची पर मि. इंडिया को लिया फिर बीच में आकर डंडा खींच लिया। लड़का हवा में झूलने लगा। पैसे की बारिश होने लगी। वह माल समेटने में मशगूल हे गया।
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मैं भी अठन्नी फेंककर वापस चल पड़ा इस कड़ुए अहसास के साथ कि भले ही लड़का नीचे जमीन पर लौट आया हो, पर मुल्क तो सचमुच हवा में लटका हुआ है। यह तमाशा हर रोज होता है कि कोई उसे जमीन पर ले आता है, पर वह फिर हवा में लटक जाता है…।
आज भी गाँधी चौक से जब गुजरता हूँ, वहाँ कोई न कोई करतब चल रहा होता है। आँखें ठहर जाती हैं… पैर अटक जाते हैं! रोज-रोज यहाँ हो क्या रहा है? कोई जवाब नहीं सूझता है… मुझे लगता है मैं भीड का हिस्सा हूँ… मेरे भीतर हर आदमी की तरह एक चौराहा है… और मैं काला जादू देखने के लिए अभिशप्त हूँ!
संजय कुमार सिंह पूर्णिया महिला काॅलेज में प्रिंसिपल हैं।
अच्छा व्यंग्य है