शांति निकेतन की मित्र मनीषा बैनर्जी और उनकी सुपुत्री मेघना के साथ 11-13 दिसंबर 2022 को मैं भागलपुर गया था। इस बार सबौर के राजेन्द्र प्रसाद कृषि विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में ठहरे, जिस वजह से चंदेरी, राजपुर, बाबूपुर तथा रजिंदिपुर जैसे कई गांवों में भी जाने का अवसर मिला।
गांवों में जाने की मुख्य वजह यह मालूम करना था कि बत्तीस साल के बाद भागलपुर दंगे से पीड़ित गांवों की वर्तमान स्थिति कैसी है। साथ ही दंगे के बाद के पुनर्वास की स्थिति को देखना भी था। ग्राम चंदेरी में टाटा उद्योग समूह ने पुनर्वास की योजना के अंतर्गत पचास घर बनाये। मौजूदा समय में वहाँ पर चार परिवार ही हैं, बाकी के छियालिस पलायित परिवार दंगे के बाद आज तक वापस नहीं आए। उन्हें गए तीस साल से अधिक समय हो गया। वे छियालिस घर खंडहरों में तब्दील हो गए हैं। स्थानीय लोगों को विश्वास में लिए बिना, उनके सहयोग के बिना किया जा रहा पुनर्वास ठीक नहीं है, यह बात हम लोगों ने 1990-91 में ही कह दी थी। लेकिन तत्कालीन बिहार सरकार और टाटा समूह के कानों पर जूँ नहीं रेंगी। सरकार की मनमानियों और ज़ोर-जबरदस्ती के बाद लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद आज भी छियालिस घर खाली पड़े हैं। यह है तथाकथित पुनर्वसन की एक झलक है।
गंगा नदी के किनारे गाद पर खड़ी मेघना
इस विषय पर मैं दिसंबर माह में विस्तार से लिख चुका हूँ। आज का मुख्य विषय गंगा नदी के किनारे पर स्थित बाबूपुर तथा रजिंदिपुर गांव की है, जो कभी गंगा नदी से दो किलोमीटर की दूरी पर थे, लेकिन आज गंगा से इन गांवों की दूरी मात्र पचास मीटर रह गयी है। इस फोटो में मेघना गंगा नदी के किनारे जिस गाद के ऊपर खड़ी है वह बाबुपुर-रजिंदिपुर के पास गंगा नदी के किनारे की ही एक जगह है। आने वाले कुछ दिनों में ये दोनों गाँव गंगा नदी में समाहित हो जाएंगे। भागलपुर दंगे के बाद 1990 से इस क्षेत्र में काफी बार हम पैदल घूमे हैं, तब गंगा नदी दूर नजर आती थी, लेकिन आज दोनों गांवों के करीब से बह रही है। तीस साल के भीतर हुये इस प्राकृतिक बदलाव को देखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि भविष्य में गंगा किनारे स्थित ढेरों गांव शायद गंगा में समा जायेंगे। इस बार की यात्रा में हमारा यही आकलन था।
वास्तविकता यह है कि बचपन से ही सुनता और पढ़ता आ रहा हूँ कि नदियों के किनारे ही मानवीय सभ्यता और संस्कृतियों का विकास हुआ है और विनाश भी। लेकिन भागलपुर के सबौर ब्लॉक के बाबुपुर-रजिंदीपुर गाँव को इस तरह से गंगा नदी के करीब आते देख मन में ऐसे सवाल उठने लगे है कि न जाने नदियों के किनारे बसी अब तक कितनी सभ्यताएं इनके प्रवाह में समा चुकी होंगी? इनमें सिंधु सभ्यता, नील, यमुना, नर्मदा, गंगा, यांगत्सी, वोल्गा, डेन्यूब और ब्रह्मपुत्र जैसी न जाने नदियां शामिल हैं।
गंगा-मुक्ति अभियान के लोग हर साल 22 फरवरी को गंगामुक्ति दिवस के अवसर पर विशेष रूप से गंगा नदी के संबंध में इकट्ठे होकर विचार विमर्श करते हैं। मैं यह कहना चाहूँगा कि ये लोग गंगा के दियारा (बिहार का कुल दियारा क्षेत्र 9 लाख हेक्टेयर भूमि पर है, जिसमें गंगा नदी का दियारा 2 लाख चालीस हजार हेक्टेयर क्षेत्र है। बूढ़ी गंडक दियारा क्षेत्र 2 लाख तीस हज़ार हेक्टेयर, गंडक दियारा क्षेत्र 1 लाख चालीस हज़ार हेक्टेयर, कोशी 1 लाख पचास हज़ार हेक्टेयर और सोन दियारा क्षेत्र 1 लाख दस हज़ार हेक्टेयर है। इनमें गंगा नदी का दियारा क्षेत्र बिहार का मुख्य दियारा है।) जहां गंगा के उत्तर और दक्षिण किनारे में काफी कृषि योग्य भूमि है। साल-दर-साल बाढ़ के साथ गाद आते रहने के कारण यह भूमि बहुत ही उपजाऊ हो जाती है। लेकिन उसी बाढ़ के कारण वह बनता-बिगड़ता रहता है। मतलब आज दियारा का जो गांव या लहलहाती खेती के साथ दिखाई दे रहा है, वह अगले साल शायद गंगा नदी की चपेट में आ जाए और गंगा उसे अपनी गोद में लिए अविरल बह रही होगी। वैसे ही अब किनारे पर बसे गांव भी आने वाले समय में रहेंगे या नहीं, इसमें संशय है।
गंगा कटान पीड़ितों की आवाज उठाने के लिए पाँच दिवसीय यात्रा पर निकले मनोज सिंह
इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की यहाँ की स्थिति से ज्यादा अवगत होने की संभावना है। तीस साल से भी पहले आंदोलन के कारण प्राइवेट मास्टर्स से गंगा की मुक्ति की कहानी डॉ योगेन्द्र और प्रोफेसर सफदर इमाम कादरी के संयुक्त तत्वावधान में संपादित की गई ‘गंगा को अविरल बहनें दो’ किताब में तफ़सील से वर्णित की गई है। यहाँ दिए गए आँकड़ें या तथ्यों को उसी किताब से लेकर ही दिया है। लेकिन पृष्ठ नंबर 23-24 में ‘दियारा क्षेत्र : उलझे भूमि संबंधों की पीड़ा’ मुकुल जी द्वारा लिखित इन दो पन्नों को छोड़कर शेष 135 पन्ने मुख्य रूप से गंगा मुक्ति आंदोलन के ऊपर ही हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि इस किताब के 1990 में गंगा के सुल्तानगंज से पीरपैंती तक के 80 किलोमीटर लंबे और सैकड़ों बरसों पहले से ही चले आ रहे जल-जमींदारों के कब्जे से मुक्त होने की लड़ाई के इतिहास होने के कारण इसमें अन्य बातों का न होना स्वाभाविक है। इसलिए मैं तैंतीस साल के इस आंदोलन के साथियों के सामने वर्तमान स्थिति में मुख्यतः भागलपुर जिले में गंगा नदी के दोनों तटों पर बसे गांवों की वर्तमान स्थिति की तरफ ध्यान आकृष्ट करने के लिए हीयह लेख लिख रहा हूँ।
(चंदौली जिले में किसानों द्वारा निकाली जा रही गंगा कटान यात्रा के संदर्भ में डॉ खैरनार का यह लेख यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है।)