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शासन-प्रशासन के भरोसे सामाजिक एकता की कामना दिवास्वप्न है

अगर आपको यह लगता है कि भारत में जातिवाद खत्म हो गया है, तो शायद आप गलत सोच रहे है। ताजा उदाहरण है लाइन चैनल पर अजीबोगरीब मामला सामने आया है, लेकिन ये अजीबोगरीब नहीं है, पूरे ब्राह्मण वर्ग का मामला है। ये उस अहंकार का मामला है, जिस अहंकार के बल पर ब्राहमण वर्ग […]

अगर आपको यह लगता है कि भारत में जातिवाद खत्म हो गया है, तो शायद आप गलत सोच रहे है। ताजा उदाहरण है लाइन चैनल पर अजीबोगरीब मामला सामने आया है, लेकिन ये अजीबोगरीब नहीं है, पूरे ब्राह्मण वर्ग का मामला है। ये उस अहंकार का मामला है, जिस अहंकार के बल पर ब्राहमण वर्ग की ये अहंकारी प्रवृत्ति  कई 1000 वर्षों से जीतते आ रही है।

उसी अहंकार के चलते ब्राहमण वर्ग को ऐसा लगता है कि दुनिया हमें सलाम करती है। दलित जातियां ब्राह्मण वर्ग को ‘बाबूजी राम-राम’ करती थी। ‘पांय लागूं – पांय लागूं… बोलती थीं। शहरों की बात छोड़ दे तो अधिकतर ग्रामीण इलाकों आज भी जातिवादी आतंकियों का दलित जातियों पर हमले डर से अगल-बगल देखकर इधर-उधर निकलने से पहले ये देखना पड़ता है कि कहीं कोई वर्चस्वशाली जाति का तो नहीं आ रहा है… उसको राम-राम करनी पड़ेगी।

ऐसे बदतर हालातों में जब हम कहते हैं कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, तो दुख होता है। हमारा देश चाँद तक पहुँच चुका है। ऐसी स्थिति में अभी भी ब्राह्मणों/ सवर्ण वर्ग मानिसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

यहाँ सोचने की बात यह है कि कोई किसी को जबरदस्ती ना राम-राम बोल सकता है और ना ही कोई किसी से जबरदस्ती राम राम बुलवा सकता है।

आज यद्यपि जबकि देश में अपना संविधान है, कानून है, न्यायालय है, थाने हैं यानी देश में एक सिस्टम है, जिसके तहत ये देश चलता हैं। तथापि आए दिन दलितों पर अत्याचार की अनेक घटनाएं सुनने को मिलती हैं।

20 दिसम्बर, 2023 को अंबेडकरनगर (उत्तर प्रदेश) का एक वीडियो सामने आया है, जिसमें अशरफपुर किछौछा नगर पंचायत के बोर्ड की बैठक के दौरान चेयरमैन व बीजेपी नेता ओमकार गुप्ता एक दलित सभासद को लात-घूंसे मारते नज़र आ रहे हैं। गुप्ता ने सभासद के कपड़े भी फाड़ दिए। बकौल रिपोर्ट्स, सभासद द्वारा मोबाइल से बैठक की रिकॉर्डिंग किए जाने को लेकर विवाद हुआ था।

हाल ही में कानपुर के एक गांव में दलित वर्ग के कुछ लोग बुद्ध वंदना करा रहे थे, तो ब्राह्मणों व उनके चाटुकारों ने उनके टेंट उखाड़ दिए। ताबड़तोड़ फायरिंग भी की। कुर्सियां तोड़ दीं। मंच पर जो भी मूर्तियां लगी थीं, वह भी गायब कर दी गईं।

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यह भी कि क्या आजाद भारत में कोई नागरिक किसी को नमस्कार करे अथवा ना करे, उसकी स्वतंत्रता पर है। अगर कोई जबरदस्ती ‘नमस्कार’ करवा भी ले तो यह किसी आदर की भावना को नहीं दर्शाता। गैर दलितों की इस प्रकार भावना नितांत निंदनीय है। यह किस प्रकार की श्रेष्टा का प्रमाण है? यह आतंकी घटना किस प्रकार की मानवता का प्रमाण है।

यह छत्तरपुर में कुछ दबंगों ने एक बुजुर्ग की पिटाई कर दी। दंबगों का कहना था कि बुजुर्ग ने राम-राम तो बोला, किंतु उसने हाथ नहीं उठाया था? सवर्णों की शिकायत यह है कि संविधान की बदौलत दलित वर्ग के लोग आज अपना सिर उठाकर चलते हैं। वह दिन हवा हो गए जब सवर्णों के आगे दलित झुक-झुक कर नमस्कारी किया करते थे।

गावों से शहरों में आकर बसे दलित वर्ग के लोग इस भ्रम में जी रहे हैं कि वक्त के साथ जाति-प्रथा कमजोर पड़ती जा रही है। यह भ्रम यूं ही नहीं पनप रहा है। इसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण इन लोगों को दिखता है, वह है- आफिस में काम करने वाले सभी वर्गों के लोगों का एक साथ बैठकर भोजन करना खाना, साथ-साथ काम करना, बिना किसी अलगाव के साथ-साथ बातचीत करना।

किंतु मैंने कभी भी इस भ्रम को नहीं पाला। कारण कि यह ऊपरी तौर एक प्रकार की बाध्यता का परिणाम है। जात-पात ज्यों के त्यों ही नहीं अपितु और अधिक पुख्ता हुई है। दलित और गैर-दलितों के बीच ही नहीं अपितु दलित वर्ग के लोग अपनी-अपनी जाति के ढोल पीटने में लग गए हैं।

इसके परिणामस्वरूप जातीय संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। दलितों को यह नही भूलना चाहिए कि यह जो थोड़ा-बहुत परिवर्तन देखने को मिल रहा है, यह केवल शिक्षा-दीक्षा के प्रसार-प्रचार और भौगोलिक मान्यताओं में परिवर्तन होने के चलते दिख रहा है अन्यथा नहीं।

गहरे से देखा जाए तो गैर दलितों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आया है, जिसके प्रमाण व्यापक रूप से विद्यमान हैं। शहरी दलित यदि गावों की ओर मुंह उठाकर देखेंगे तो पाएंगे कि दलितों के साथ गैर-दलितों के व्यवहार में कुछ भी तो अंतर नहीं आया है। केवल और केवल ऊपरी तौर पर कुछ नरमी देखने को मिलती है। मानसिकता कतई नहीं बदली है।

अलग-अलग राज्यों से जब-तब दलित उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती रहती हैं। पिछले दिनों राजस्थान विधानसभा में खुद सरकार की तरफ से यह जानकारी उपलब्ध कराई गई कि तीन साल में दलित दुल्हे की घोड़ी भीड़ ने छीन ली, फिर पथराव शुरू कर दिया। दूल्हे को घायल होने से बचाने के लिए पुलिस को उसके लिए हेलमेट का बंदोबस्त करना पड़ा।

इन्हीं घटनाओं से एक सवाल उपजता है कि दलित शादी करें, इस पर किसी को कोई ऐतराज नहीं होता है, लेकिन दूल्हा घोड़ी पर बैठकर नहीं आ सकता। इस सोच की कुछ और वजह नहीं अपितु गैर-दलितों की नाक का सवाल है।

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मोदीजी के गुजरात में बहुत से गाँव ऐसे हैं, जहाँ दलित वर्ग के लोग आज भी कुएँ से पानी तक नहीं निकाल पाते हैं। दुखद यह भी है कि कुएँ से पहले गैर-दलित अपने लिए पानी निकालते हैं और उसके बाद दलित वर्ग के लोगों को खुद पानी निकालकर देते हैं। इस काम में घंटा लगे या दो घंटा दलितों को पानी लेने के लिए इंतजार करना पड़ता है।

क्या शहरी दलितों को ग्रामीण दलितों की पीड़ा का कुछ भान होता है? नहीं, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। कोई शक नहीं कि आजाद भारत में संविधान की रोशनी में समतामूलक समाज की बात होती आई है, लेकिन कुछ प्रतीक ऐसे हैं जो खास वर्ग की पहचान से अभी तक जुड़े हुए हैं। खास वर्ग उन प्रतीकों को साझा करने को तैयार नहीं हैं। उसको लगता है कि साझा करने से उसकी ‘श्रेष्ठता’ जाती रहेगी।

कासगंज (इलाहाबाद) के निजामपुर गाँव में आज तक दलित वर्ग के दुल्हे की घोड़ी पर चढ़कर कोई बारात नहीं निकली है। ताजा मामला यह है कि दलित वर्ग के दुल्हे संजय कुमार घोड़ी पर सवार होकर अपनी बारात निकालना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने जिलास्तर के बड़े अधिकारियों से गुहार लगाई किंतु सब बेकार।

आखिरकार संजय ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। संजय का आरोप है कि निजामपुर के सवर्ण घोड़ी पर बैठकर बारात निकालने पर उनका विरोध कर रहे हैं। कानून व्यवस्था का हवाला देकर स्थानीय प्रशासन ने घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने की इजाजत देने से इंकार कर दिया था। कोर्ट से भी संजय को निराशा ही हाथ लगी।

कोर्ट ने संजय की याचिका खारिज कर दी। कहा कि यदि याची को किसी प्रकार की परेशानी है, तो वह पुलिस के माध्यम से मुकदमा दर्ज करा सकता है। अगर दुल्हे य दुलहन पक्ष के लोगों से कोई जोर-जबरदस्ती करें तो वह पुलिस में इसकी शिकायत कर सकते हैं। कोर्ट के इस निर्णय पर हैरत की बात यह है कि पुलिस अधिकारी तो पहले ही संजय की चाहत को यह कहकर खारिज कर चुकी है कि यदि संजय घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालता है तो ऐसा करने निजामपुर का माहौल बिग़ड़ सकता है।

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संजय ने अपने इस मामले को मुख्यमंत्री तक को भेजा है किंतु वह भी मौन साधे हुए हैं। वैसे वो दलित समर्थक होने का दावा करते हुए नहीं थकते हैं। इतना ही नहीं, दुल्हन के परिवार से कहा गया है कि बारात के लिए उसी रास्ते का इस्तेमाल किया जाए, जिससे गांव के सभी दलितों की बारात जाती है। इस फैसले का शीतल का परिवार विरोध कर रहा है।

उनका कहना है कि यह हमारे सम्मान की बात है। हम काफी जोर-शोर के साथ दूल्हे का स्वागत करना चाहते हैं और घोड़े वाली बारात चाहते हैं। गांव की सड़कें जितनी ठाकुरों की हैं उतनी ही हमारी भी हैं। इसकी वजह से जाटव (शीतल और संजय इसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं) और ठाकुरों के बीच तनाव का माहौल है।

गांव की प्रधान ठाकुर कांति देवी का कहना है, ‘हमें कोई दिक्कत नहीं है। लड़की की शादी हो, ठाकुर लोगों को कोई एलर्जी नहीं है। हम बारात का तहेदिल से स्वागत करेंगे। शीतल हमारी भी बेटी है, किंतु दिक्कत यह है कि कोई जबर्दस्ती हमारे रास्ते पर आएगा और परंपरा को तोड़ेगा तो वो हमें मंजूर नहीं है।’

यूपी कैडर के रिटायर्ड आईपीएस एसआर दारापुरी इन हालात के लिए दो चीजें जिम्मेदार मानते हैं। एक, समाज के अंदर सामंतवादी सोच जिंदा है, जो बदलाव स्वीकार करने को तैयार नहीं। उसे लगता है कि जैसे पुरखों के जमाने से होता आ रहा है, वैसे आगे भी पुश्त दर पुश्त चलता रहे। अगर दलित भी बराबर में आ खड़े हुए तो उन्हें अतिरिक्त सम्मान मिलना खत्म हो जाएगा।

दूसरी चीज, सरकारी तंत्र भी सवर्णवादी मानसिकता से उबर नहीं पा रहा है। उसे लगता है कि सवर्णों की हर बात जायज है। यूपी का ही उदाहरण लें तो वहां के कलेक्टर का यह कहना है कि ‘उस जिले में पहले कभी दलित की घुड़चढ़ी नहीं हुई’, बहुत ही हास्यास्पद है। यह सलाह कि ‘अगर घुड़चढ़ी जरूरी है तो चुपके से कर ली जाए’ यह और भी हास्यास्पद है।

प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल गुप्ता नंदी (Nand Gopal Nandi) इन दिनों सुर्खियों में हैं। मिर्जापुर जिले में मंत्रीजी ने एक दलित के घर पर खाना खाया था। जिस दलित के घर मंत्री जी पहुंचे हुए थे, वहां पर पनीर की सब्जी व चावल ग्राम प्रधान के यहां से आई थी। दलित के घर पर पहुंचे मंत्रीजी ने फाइबर की थाली में पनीर का जायका लिया था। बोतल बंद पानी पीकर मंत्री ने दलित गंगाजली को आशीर्वाद दिया था। गंगाजली से जब बातचीत की गई तो उन्होंने कहा कि कुछ सामान प्रधानजी के घर से आया था और कुछ सामान हमने बनाया था। गैस चूल्हे के बारे में उन्‍होंने बताया कि वह मांगकर लाया गया था। यह है भाजपा के नेताओं की दलितों के प्रति मानसिकता।

हाल ही में गुजरात के भावनगर जिले में कुछ गैर-दलित लोगों ने घोड़ा रखने और घुड़सवारी करने पर एक दलित की हत्या कर दी। प्रदीप राठौर (21) ने दो माह पहले एक घोड़ा खरीदा था और तब से उसके गांव वाले उसे धमका रहे थे। उसकी गुरुवार देर रात हत्या कर दी गई। प्रदीप के पिता कालुभाई राठौर ने कहा कि प्रदीप धमकी मिलने के बाद घोड़े को बेचना चाहता था, लेकिन उन्होंने उसे ऐसा न करने के लिए समझाया।

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कालुभाई ने पुलिस को बताया कि प्रदीप गुरुवार को खेत में यह कहकर गया था कि वह वापस आकर साथ में खाना खाएगा। जब वह देर तक नहीं आया, हमें चिंता हुई और उसे खोजने लगे। हमने उसे खेत की ओर जाने वाली सड़क के पास मृत पाया। कुछ ही दूरी पर घोड़ा भी मरा हुआ पाया गया। गांव की आबादी लगभग 3000 है और इसमें से दलितों की आबादी लगभग मात्र 10 प्रतिशत है। प्रदीप के शव को पोस्टमॉर्टम के लिए भावनगर सिविल अस्पताल ले जाया गया है, लेकिन उसके परिजनों ने कहा है कि वे लोग वास्तविक दोषियों की गिरफ्तारी तक शव स्वीकार नहीं करेंगे।

ऐसी घटनाएं गैर-दलितों की मानसिकता की पोल खोलने के लिए काफी हैं। अत: मेरा सबसे ये निवेदन है कि किसी प्रकार के परिवर्तन का भ्रम न पालकर समूचे समाज के भले के लिए बिना किसी वैमनस्य के जी-जान से काम करें। ऐसे प्रकरण ऐसा संदेश भी देते हैं कि शासन-प्रशासन के भरोसे सामाजिक एकता की कामना करना एक दिवास्वप्न जैसा ही है।

यहाँ दलितों को याद रखना चाहिए कि बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर का एक मशहूर कथन है- सामाजिक अत्याचार की तुलना में राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं है और समाज को चुनौती देने वाला व्यक्ति सरकार को चुनौती देने वाले नेता से कहीं ज्यादा साहसिक आदमी होता है। ऐसे में कहा जा सकता है कि भेदभाव वाली परंपराओं को चुनौती देने वाली छोटी-छोटी घटनाएं ही आने वाले दिनों बड़े बदलाव का आधार बनेंगी।

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