Saturday, July 27, 2024
होमविचारसभ्य होने की पहली शर्त डायरी (20 अगस्त, 2021)

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

सभ्य होने की पहली शर्त डायरी (20 अगस्त, 2021)

बात बहुत पुरानी है। शायद उस वक्त की जब मैं पहली बार दिल्ली आया था। वर्ष था 2002। इरादा दिल्ली में कमाना और पढ़ना था। पटना में उन दिनों कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई के अच्छे विकल्प नहीं थे। मैं प्रोग्रामर नहीं बनना चाहता था। मुझे लगता था कि एक प्रोग्रामर के रूप में कैरिअर बेहद […]

बात बहुत पुरानी है। शायद उस वक्त की जब मैं पहली बार दिल्ली आया था। वर्ष था 2002। इरादा दिल्ली में कमाना और पढ़ना था। पटना में उन दिनों कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई के अच्छे विकल्प नहीं थे। मैं प्रोग्रामर नहीं बनना चाहता था। मुझे लगता था कि एक प्रोग्रामर के रूप में कैरिअर बेहद चुनौतीपूर्ण रहेगी। वजह यह कि विश्वस्तर पर तब बहुत कुछ किया जा रहा था। विजुअल बेसिक ने तो जैसे कमाल ही कर दिया था। मैं सी प्लस प्लस के गुमान में था। हालांकि उन दिनों मैं दिल्ली कोई सपना देखकर नहीं चला आया था। हाजखौस के पास एक सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट फर्म था। उन्हें एक प्रोग्रामर की आवश्यकता थी। पटना में मेरे साथी थे आमिर जुनैद। उन्होंने ही मेरा नाम सुझाया था उस फर्म के मालिक को।

जब दिल्ली पहुंचा तब सबकुछ अलग था। पहाड़गंज का पूरा इलाका तब बेहद खास लगा था। वहीं एक होटल (कबूतरखाने जैसा लॉज समझिए) में रूका। उसी दिन मुझे साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था। करीब दो बजे हाजखौस पहुंचा। वहां का नजारा तो और बेहद खास था। लड़के-लड़कियों की स्वतंत्रता देख मन में कई तरह के सवाल थे।

खैर, इंटरव्यू में ही पूछ लिया गया कि मुझे कितना वेतन चाहिए और बता दिया गया कि मेरी जिम्मेदारियां क्या होंगी। मतलब यह कि मैं सिलेक्ट कर लिया गया था। दूसरे दिन से ही मुझे काम शुरू करने को कहा गया। मैंने कहा कि इतनी जल्दी कैसे हो सकता है। मैंने अपनी परेशानियां बता दी। सबसे बड़ी परेशानी तो यही कि मेरे पास पैसे नहीं थे कि मैं तीन दिन से अधिक रूक सकता था। मेरी परेशानी को देखते हुए मुझे साकेत के पास एक सज्जन के यहां रहने को कहा गया। पैसे का भुगतान मेरे वेतन से किया जाना था।

साकेत में उस सज्जन का व्यवहार बहुत अलग सा था। नहीं पता कि वह किन कारणों से मुझे घूरते रहते थे। यह मुमकिन है कि मेरे रहने का ढंग शायद उन्हें पसंद नहीं आता हो या फिर कोई और वजह रही हो। मैं उनके यहां दो दिन ही टिक सका। वजह यह रही कि उनके घर में लड़ने-झगड़ने की आवाजें खूब आती थीं। वे अपनी पत्नी को मारते-पीटते भी थे। तीसरे दिन ही मैंने अपने बॉस को कहा कि मैं एक महीने के बाद आकर काम करूंगा। मुझे अपने लिए कमरा चाहिए जो सेपरेट हो।

मैं वापस नहीं गया। कई वजहें रहीं।  इस पूरे प्रकरण से मुझे एक सीख मिली कि कोई भी आदमी कितना सभ्य है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपने घर की महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करता है। यदि वह उनके साथ हिंसा करता है तो वह सभ्य कैसे हो सकता है।

[bs-quote quote=”यह समाजशास्त्रियों के लिए सवाल नहीं है? क्या यह सियासती मुद्दा नहीं है? क्या देश की महिलाओं के लिए कोई सवाल नहीं है? क्या हमें अपनी महिलाओं को सुरक्षित रहने का अहासास दिलाने के लिए सीसीटीवी कैमरों के आसरे रहना चाहिए? क्या हम ऐसे समाज के निर्माण की दिशा में पहल कर सकें कि महिलाएं चाहे वह दिल्ली की हों या फिर बिहार के नालंदा की, बेखौफ जी सकें? आखिर कौन सी ऐसी बात है जिसके कारण महिलाएं हमेशा खतरा महसूस करती हैं?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज फिर से यही वाक्य मेरी जेहन में है। कोई भी मुल्क और समाज तब तक सभ्य नहीं कहा जा सकता है जबतक कि महिलाओं के साथ हिंसा ना हो। जेहन में इस बात के आने के पीछे की एक घटना है जो कल ही हुई जब मैं दिल्ली के निर्माण विहार मेट्रो से अपने दफ्तर के लिए मेट्रो का इंतजार कर रहा था। मुझे मंडी हाउस से मेट्रो बदलना पड़ता है और इस पूरी यात्रा में करीब 45 मिनट का समय तो लग ही जाता है। लेकिन मुझे मेट्रो में सफर करना अच्छा लगता है। बड़ी वजह वातानुकूलित होना भी है और इससे भी बड़ी वजह यह कि मैं समय से अपने दफ्तर जा सकता हूं।

खैर, कल निर्माण विहार मेट्रो पर दिल्ली मेट्रो का एक विज्ञापन दिखा। विज्ञापन में बताया गया है कि मेट्रो में महिलाओं के लिए सफर करना कितना सुरक्षित है। इसके लिए कई प्रावधान किए गए हैं। प्लेटफार्म से लेकर कोच के अंदर तक सीसीटीवी कैमरे हैं। वहीं महिला कोच में किसी पुरुष के पाए जाने पर ढाई सौ रुपए का दंड निर्धारित है। साथ ही दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार द्वारा जारी हेल्पलाइन नंबर भी पूरे मेट्रो परिसर में कई जगहों पर प्रदर्शित किए गए हैं।

दिल्ली मेट्रो द्वारा किए गए इन उपायों का असर दिखता है। महिलाएं आराम से सफर करती हैं। उनके चेहरे पर खौफ नहीं होता। मैं इस वक्त यह सवाल यही छोड़ता हूं कि यदि ये प्रावधान नहीं किए गए होते तो क्या मेट्रो में महिलाओं की यात्रा सुरक्षित होती?

मेरे सामने कुछेक खबरें हैं। एक खबर तो कल की है और वह भी दिल्ली की ही। दिल्ली के शास्त्री पार्क इलाके में चलती गाड़ी में एक युवती के साथ गैंगरेप किया गया। गैंगरेप के बाद युवती को आरोपियों ने गाड़ी से उतार दिया और फरार हो गए। युवती ने कार का नंबर नोट कर लिया था और उसने पुलिस को अपने साथ हुए अपराध की जानकारी दी। पुलिस ने भी फौरन कार्रवाई करते हुए महज दो घंटे के अंदर आरोपियों को धर दबोचा।

[bs-quote quote=”असुर समुदाय में योनि की शुचिता का महत्व ही नहीं है। यदि किसी महिला को किसी से प्यार हो जाय और उसके गर्भ में बच्चा हो और उसका प्रेमी उसे छोड़ दे या फिर वह महिला अपने प्रेमी को छोड़ दे तब भी उसका गर्भ पवित्र ही रहेगा। जो बच्चा पैदा होगा, उसे भी वही सम्मान मिलेगा जो अन्य किसी को मिलता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अब एक खबर बिहार की है। यह घटना तीन दिन पहले की है। घटना उस जिले में घटित हुई जहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। यानी उनका गृह जिला – नालंदा का बिहारशरीफ इलाका। पुलिस विभाग का महकमा भी उनका ही है। घटना है कि एक छात्रा के उपर तेजाब डालकर जलाने की कोशिश की की गयी। घटनास्थल कोई सूनसान जगह नहीं। नालंदा के एसपी और जिलाधिकारी के आवास से करीब दो सौ मीटर की दूरी पर यह घटना घटित हुई। इस वक्त जब मैं यह बात लिख रहा हूं तब मेरे पास इसकी जानकारी नहीं है कि आरोपियों की गिरफ्तारी हुई है या नहीं हुई। कल देर शाम मैंने वहां डीएसपी के रूप में पदस्थापित शिव्ले नाेमानी से इस बारे में पूछा था। उनका कहना था कि गिरफ्तारी की कार्रवाई की जा रही है।

एक खबर और है और वह भी बिहार से ही है। बिहार पुलिस ने अपने ही एक डीएसपी कमलाकांत प्रसाद को गिरफ्तार करने के लिए आम जनता से मदद मांगी है। उसके उपर एक दलित नाबालिग के साथ दुष्कर्म करने का आरोप है। घटना शायद एक-दो महीने पहले की है। स्थानीय अदालत के निर्देश पर बिहार पुलिस ने  इश्तहार जारी किया है।

अब उपरोक्त तीन घटनाओं के आधार पर कुछ सोचने की कोशिश कर रहा हूं। क्या यह केवल लॉ एंड आर्डर से जुड़ा है? या फिर यह समाजशास्त्रियों के लिए सवाल नहीं है? क्या यह सियासती मुद्दा नहीं है? क्या देश की महिलाओं के लिए कोई सवाल नहीं है? क्या हमें अपनी महिलाओं को सुरक्षित रहने का अहासास दिलाने के लिए सीसीटीवी कैमरों के आसरे रहना चाहिए? क्या हम ऐसे समाज के निर्माण की दिशा में पहल कर सकें कि महिलाएं चाहे वह दिल्ली की हों या फिर बिहार के नालंदा की, बेखौफ जी सकें? आखिर कौन सी ऐसी बात है जिसके कारण महिलाएं हमेशा खतरा महसूस करती हैं? क्या यह हिंदू धर्म की सड़ी-गली मान्यताओं के कारण नहीं है जो उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक मानता है? एक बलात्कार पीड़िता को समाज का कलंक मानता है।

यह भी पढ़ें :

दलित-बहुजनों के साथ जातिगत भेदभाव के लिए राष्ट्रीय शर्म दिवस की घोषणा कब? डायरी (15 अगस्त, 2021) 

वर्ष 2016 में मैं झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड गया था। वहां मेरी योजना असुर जनजाति को लेकर अध्ययन करना था। वहां अनिल असुर मिले थे तब। वे आज भी मेरे अच्छे मित्र हैं। वहीं पर सुषमा असुर से भी मुलाकात हुई थी जो असुर जनजाति समाज की पहली महिला साहित्यकार हैं। दोनों ने मुझे बताया कि असुर समुदाय में योनि की शुचिता का महत्व ही नहीं है। यदि किसी महिला को किसी से प्यार हो जाय और उसके गर्भ में बच्चा हो और उसका प्रेमी उसे छोड़ दे या फिर वह महिला अपने प्रेमी को छोड़ दे तब भी उसका गर्भ पवित्र ही रहेगा। जो बच्चा पैदा होगा, उसे भी वही सम्मान मिलेगा जो अन्य किसी को मिलता है।

कितनी अजीब बात है कि भारत के ब्राह्मण असुर का मतलब राक्षस बताते हैं। वे ब्राह्मण जिनका प्रतीक पुरुष ब्रह्मा है और जिस पर अपनी ही पुत्री के साथ दुष्कर्म करने का आरोप है।

कल देर शाम एक कविता जेहन में आयी –

 

मोहनजोदड़ो मिटा नहीं

बुद्ध और सारे आजीवक देखो

सब के सब जिंदा हैं

अपनी वैज्ञानिक चेतना और 

सतत सृजनशीलता के साथ

और तुम हो कि सड़ रहे 

पीढ़ी-दर-पीढ़ी

वेदों-पुराणों की काल-कोठरी में।

 

कितना हास्यास्पद है कि

तुम घंटा हो हिलाते 

फल नहीं, कर्म ही धर्म

तोते जैसे हर बात हो रटते

लेकिन स्वयं अपने कहे का अनुसरण नहीं करते

महलों, मंदिरों,बाजारों में हो रोज भीख मांगते।

 

मालूम नहीं क्या कहतीं औरतें तुम्हारी

जब खुद को ब्रह्मा की औलाद हो कहते

दुर्गा का नाम लेकर सुबह-शाम तुम

रोज हो जब तुम उन्हें पीटते-धंगचते।

 

हां, मोहनजोदड़ो मिटा नहीं

बुद्ध और सारे आजीवक देखो

सब के सब जिंदा हैं

अपनी वैज्ञानिक चेतना और 

सतत सृजनशीलता के साथ

और तुम हो कि सड़ रहे 

पीढ़ी-दर-पीढ़ी

वेदों-पुराणों की काल-कोठरी में।

 

 नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

 

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें