दार्शनिक राजनीति के दृष्टिकोण से देखा जाए तो बिना ईंधन के गाड़ी नहीं चलती। अब ईंधन की प्रकृति के बारे में पूछ कर परेशान न करें। सब जानते हैं कि इसकी धधक राजनीति के ऊपरी तल तक फैल कर ही तो आम जनता की ज़िंदगी की गाड़ी आगे को घिसटते हुए चलाती है। क्या चारा डाले बिना भैंस को दुहना संभव है? घाटे के बजट में भी जनता के लिए भारी वरदानों की वर्षा करना नेताओं के अलावा आप और मेरे जैसे लोगों के लिए तो संभव नहीं है। सत्ता और जनसेवा की सच्चाई यही है कि बिना ईंधन के जनता के अधिकारों की रक्षा करना मुश्किल है। क्या राजनेता अधिकार या सत्ता के बिना जनता की सेवा कर सकते हैं? सीमेंट के बिना दीवार बनाना जिस तरह संभव नहीं, ठीक उसी तरह अधिकार के आश्रय के बिना प्रजा की सेवा या जनकल्याण का बोझ सिर पर उठाना संभव नहीं। दही मथकर जिस तरह मक्खन निकाला जाता है, ठीक उसी तरह अधिकार या सत्ता से ही जनसेवा उत्पन्न होती है। नेताओं की नजर में सत्ता पा लेना ही जनता की सेवा का पर्याय है। बात व्यंग्यात्मक है लेकिन है तथ्यपरक।
राजनीति में सत्ता की अहमियत और संन्यास की बात करना आजकल आम हो गया है। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि अधिकतर राजनेता या तो राजघरानों से आते हैं या फिर धनी परिवारों से जिनमें से अधिकतर दागी आचरण के हैं। लेकिन यह सभी अपने को गरीब परिवारों के होने की बात करते हैं। आचरण की तो बात ही क्या करना। लेकिन जनता है कि बार-बार ऐसे ही लोगों को चुनकर संसद में बिठाने का काम करती है। सरकार बन जाने के बाद उनकी कोई नहीं सुनता। एक बार चुने जाने के बाद अपने इलाके तक में कोई नहीं झांकता। अब इस सबके लिए दोषी कौन है? क्या ऐसे राजनेताओं को कुर्सी देकर आपने गलत नहीं किया है? ‘हमें सत्ता सौंपेंगे तो आखिर आपकी भाग्य रेखाएं बदलेंगी। आपके जीवन में गुलाबों के बाग खिलाएंगे’ जैसे थोथे नारों को सुनकर जनता ऐसे भ्रमित होती है कि वह आदमी को न देखकर केवल और केवल राजनीतिक दल विशेष को वोट करती है।
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अक्सर राजनेता ऐसा कहते सुने जाते हैं कि उन्हें मिले पावर और जनता के अधिकारों के चलते राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है। जनकल्याण की बात बेमतलब हो गई है, यह कहते हुए राजनेता ऊपरी तौर पर बहुत होने का उपक्रम रचते हैं। बहुत से राजनेता यह तक कहते हुए देखे जाते है कि यह सब देखते हुए राजनीति से संन्यास लेने का मन करता है। गाड़ी के चक्के में अगर लुब्रिकेंट नहीं लगाया जाएगा तो गाड़ी कैसे चलेगी? सत्ता को हथियाना, बड़ी राशि पाना, अपनी बात सभी से मनवाना, भ्रष्टाचार की नदी का निर्बाध प्रवाह ही राजनीति का प्रथम और प्रमुख लक्ष्य होता है। ईडी और सीबीआई की नजर अपने ऊपर ना पड़े, इसके लिए जरूरी है अपनी पार्टी सत्ता में हो या फिर सत्तापक्ष का सहारा हो अन्यथा सेवा कार्य और अधिकारों का दायरे दोनों बिगड़ जाएंगे और जेल की हवा खानी पड़ेगी। ईडी और सीबीआई की नजर में हमेशा विपक्षी दलों के राजनेता ही शेष रह जाते हैं, तो इसलिए अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास के लिए, जनता की भलाई के लिए सत्ताधारी पार्टी में कूदना जरूरी है, यह एक भ्रामक सोच है। सौ कौओं के कांव-कांव के बीच कोयल की मीठी आवाज कितनी भी ऊंची हो, उसका क्या फायदा? कितने ही राजनेता ये भीष्म प्रतिज्ञा लेते है कि यदि उनपर किसी भी प्रकार के आरोप सत्य सिद्ध होते हैं तो वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे। लेकिन ऐसा कभी होता है क्या?
सत्ता का नशा और जनसेवा की सच्चाई
बहुत बार देखा गया है कि यदि कोई दूसरी पार्टी के सरकार में मंत्री बन जाते हैं तो जनसेवा के प्रति उनक मन इतना खिंच जाता है कि वे कसम तोड़ कर प्रजा की सेवा करने उतर पड़ते हैं। कोई कुछ भी कहे किंतु एक बार जनसेवा के मैदान में उतरने के बाद यदि सत्ता या अधिकार न मिले तो किसी भी राजनेता को अच्छा नहीं लगता। काम करने में मन लगता ही नहीं। बिरयानी, सुरा, धन देकर समर्थकों के जय-जयकार,अपना धन खर्च कर फूलों की वर्षा करने वाले निमंत्रण, अखबारों में, चैनलों पर खबरें और कवरेज कराने हेतु सबसे ज्यादा आने वाली पीढ़ियों के हितार्थ पर्याप्त धन लूटा जाता है। इन सब का मजा ही कुछ और है। उनमें आसमान के तारे तक खरीद सकने का आत्मविश्वास जाग उठता है। इन सबसे दूर होने की सोच ही भयानक होती जाती है। सच है आम जनता के जीवन में जीएसटी की मार, महंगाई भरमार, खुशी की कमी, समस्याओं की बढ़ोतरी। नेताओं के जीवन में संपत्ति का अर्जन, स्विस बैंक में जमा धन का गुणात्मक बढ़ोतरी एक वास्तविकता है।
वास्तव में राज्यों में जो हरी-भरी सरकारों को सत्ताधारी दल द्वारा गिराकर अपनी सरकार में शामिल किया जाता रहा है। इसी से सिद्ध होता है कि सत्ता के बिना समय काटना कितना मुश्किल है। यूँ भी कह सकते है कि जैसे कोई मरीज बीपी, शुगर आदि टैबलेट(दवा) के आदि हो चुके होते हैं ठीक उसी प्रकार राजनीतिक लोगों के लिए सत्ता अधिकार भी अनिवार्य औषधि है। औषधि शब्द छोटा पड़ जाता है। वास्तव में पावर या सत्ता एक नशा है। शराबी इसके बारे में बहुत अच्छी तरह बता सकेंगे। कुछ भी हो सेवा का भाव दर्शाना एक मिथ्या भाव है। सारा खेल तो सत्ता के लिए लालच है। वह भी शेर की सवारी है। जब तक चले, चले। एक बार सवारी से गिरे या हाथ छूटे तो समझो जनता के आगे पराजित राजनीतिक विदूषक के रूप में बचे रहेंगे।
राजनीतिक दलों का लक्ष्य केवल सत्ता हासिल करना ही है
अक्सर यह सवाल बना रहता है कि क्या राजनीतिक दलों का लक्ष्य केवल सत्ता हासिल करना ही होता है? इस पर लोगों की मिलीजुली प्रतिक्रियाएं इसलिए होती हैं क्योंकि राजनीतिक दलों से ज्यादा आज की जनता राजनीतिक खेमेबंदी की शिकार हो गई है।
सबसे बड़ी बात ये भी है कि राजनीतिक दल ही नहीं, हमारे देश के लोग भी रूढ़िवादिता के शिकार ज्यादा हो रहे हैं। फलत: रूढ़िवादी सोच के चलते राजनीतिक दल जीत भी रहे हैं और लोकतांत्रिक लोग अपनी ताकत खोते हुए आपस में लड़ रहे हैं। यह समूची राजनीति और जमात के लिए खतरे का संकेत हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब खुद जीत जाते हैं तो कहते हैं कि लोकतंत्र खतरे में है। ये दोधारी तलवार है। लेकिन सच्चाई ये है कि लोकतंत्र को खत्म करने की जो साजिश सालों साल से चल रही है, उनमें डोनाल्ड ट्रंप बताते हैं कि उन्होंने भारत में चुनावों को कैसे प्रभावित किया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वोटर टर्नआउट बढ़ाने के लिए 21 मिलियन डॉलर दिए गए। इतना ही नहीं, भारत के चुनाव आयुक्त का खेल भी अजब स्तर का रहा। यह खेल महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली के साथ दूसरे राज्यों मेंदिखाई दिया, किस तरह से वोटर बढ़ाए गए और सबसे भयावह बात महाराष्ट्र में हुई, जहाँ अचानक 70 लाख वोटर बढ़ गए। एक बिल्डिंग में 7,000 से ज़्यादा वोटर, 7,500 वोटर बना दिए गए। कहाँ से आए वे? कौन हैं? क्या हैं? उनके बारे में कोई डिटेल नहीं है। न ही चुनाव आयोग इसकी जानकारी दे रहा है, जो कि राहुल गांधी ने संसद में भी कहा था। यानी चुनाव जीतने की साजिश किस तरह रची गई, यह बात सामने आती है।
डोनाल्ड ट्रंप ने भी माना कि कंप्यूटर यानी ईवीएम मशीन से चुनाव निष्पक्ष नहीं हो सकता। इसलिए चुनाव बैलेट से होना चाहिए, यह बात उन्होंने नरेंद्र मोदी के मुंह पर कही। नरेंद्र मोदी ने उन्हें गलत नहीं माना। यानी डोनाल्ड ट्रंप सही थे। नरेंद्र मोदी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वो अमेरिका जाकर कहें कि EVM सही है। लेकिन, अगर ये सही है तो फिर पारदर्शी क्यों नहीं है? यदि ईवीएम पारदर्शी ही है तो फिर वोटर जोड़ने और घटाने का खेल कैसे हो रहा है? वही वोटर जा रहे हैं या कुछ नए आ रहे हैं, क्या हो रहा है? यह तभी पता चलेगा जब चुनाव आयोग इसकी जानकारी देगा। यह अभी तक उपलब्ध नहीं कराया गया है। यानी खेल ऐसे ही खेला जाता है। अब इस खेल को कुछ उदाहरणों के जरिए जानिए।
खेल किस तरह से शुरू हुआ, जब पहले दिन डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि हमने भारत में चुनाव के लिए 21 मिलियन डॉलर दिए हैं। उस दिन इंडियन पीपुल्स पार्टी और नरेंद्र मोदी, जिनका अपना आईटी सेल है, सबने मिल कर और उनके सलाहकार हिरेन जोशी, जो ओएसडी हैं, सारे चैनल वहां से एक साथ इस पर बहस करने के लिए आ गए। लेकिन अगले ही दिन डोनाल्ड ट्रंप ने अपने भाषण में कहा कि यह पैसे मेरे दोस्त मोदी के पास गए। उस दिन के बाद बीजेपी हिल गई। नरेंद्र मोदी की सत्ता हिल गई। विदेश मंत्री बौखला गए और अब कह रहे हैं कि इसकी जांच होगी, तब कहा जाएगा, ऐसे कैसे कहा जा सकता है? जब नाम आया तो विदेश मंत्री क्या कहते हैं? विदेश मंत्री कहते हैं कि अमेरिकी मदद से राजनीतिक फंडिंग नहीं हुई। अब सवाल उठता है कि अगर राजनीतिक फंडिंग नहीं हुई तो आप राहुल गांधी, कांग्रेस पर कैसे आरोप लगा रहे हैं? यह वही खेल है कि कैसे वहां बैठकर चुनाव को प्रभावित किया जाए। क्या इसमें भ्रष्टाचार का पैसा भी शामिल है?
आप देख ही रहे हैं कि चुनाव आयोग कैसे काम करता है। इसके बाद जब आप देखते हैं कि कांग्रेस मजबूती के साथ खड़ी है, लड़ने के लिए तैयार है, राहुल गांधी पूरी तरह से हमलावर हैं, राहुल गांधी ने छात्रों से कहा कि मोहन भागवत बार-बार क्यों कहते हैं कि हिंदी पढ़ो, अंग्रेजी मत करो, अंग्रेजी हटाओ, अंग्रेजी शब्दावली का इस्तेमाल करो। यह सब क्यों? क्योंकि अगर आप अंग्रेजी पढ़ना शुरू कर देंगे, तो आप मजबूत हो जाओगे। सत्ता से सवाल करना शुरू कर देंगे। राजनेताओं के अपने बच्चे वो चाहे पीयूष गोयल हों, चाहे अनुराग ठाकुर हों, राजनाथ सिंह हों या शिवराज सिंह चव्हाण हों। चाहे सुषमा स्वराज की बेटी हो, वे सब अपने बच्चों को विदेश में पढ़ने अंग्रेजी पढ़ने के लिए भेजते हैं। यह है सत्ता का दोहरा चरित्र। इस तरह आम जनता के बच्चे अनपढ़ रह जाएं और इनके धर्म को बचाने का काम करें। जनता को एकजुट होने की जरूरत है। अगर जनता एकजुट हो जाएगी तो फिर 28% की सरकार नहीं बन पाएगी। भारत में 38-37% लोग ऐसे हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी और भाजपा को वोट दिया। 37% लोग सत्ता में हैं। आप सत्ता में 62% भी नहीं हैं। डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने यह बात कही है – ‘जो कोई भी इतिहास में की गई गलतियों से नहीं सिखता, उसे भविष्य में कभी माफ़ नहीं किया जाता।’ जनता को यह बात याद रखनी चाहिए।
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हिटलर के रास्ते पर बढ़ चले हैं मोदी
भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एडोल्फ हिटलर के रास्ते पर बढ़ गए हैं। दोनों में अंतर केवल यही है कि जर्मनी की जगह यह भारत है, यहूदियों की जगह यहां मुसलमान, ईसाई और सिख हैं और बाकी सभी चीजें समान हैं मसलन हिटलर का झूठातंत्र, एक ही झूठ को बार-बार कहना, मीडिया पर कब्जा, मजदूरों, किसानों, मजदूर यूनियनों, यूनिवर्सिटी के छात्र यूनियनों, विरोध में मुद्दों को उठाने वाले वकीलों, प्रोफेसरों, कवियों, लेखकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आदि को फर्जीवाड़े केस में लादकर उन्हें जेल में डालकर उनको शारीरिक-मानसिक तौर पर तोड़ने के लिए टॉर्चर करना। इसके अतिरिक्त अपने पालतू मीडिया और आईटीसेल के पेड चमचों द्वारा उन्हें देशद्रोही, पाकिस्तान परस्त, आतंकवादी, अर्बन नक्सलवादी आदि अभद्रतापूर्ण और अमर्यादित गाली-गलौज देना तथा अल्पसंख्यकों की अपने गुंडों से मॉब लिंचिंग करवाना, दंगे फैलाकर अल्पसंख्यकों में भय का वातावरण पैदा करना आदि बहुत सी बातें हैं। सारी बातें हिटलर और मोदी में बिल्कुल साम्य हैं। वास्तव में हिटलर और उसके नाजी विचारधारा को मोदी की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना आदर्श मानती है। कुख्यात जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर जो पैशाचिक, अमानुषिक तथा बर्बर व्यवहार यहूदियों के साथ किया था, उसकी पुनरावृत्ति मोदी के नेतृत्व में भारत में अल्पसंख्यकों यथा मुसलमानों, ईसाइयों, बौद्धों और सिखों के साथ की जा रही है।
इतना ही नहीं, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की निरंतर की जा रही अनदेखी इस ओर इशारा करती है कि जब भी सत्ता हाथ लगे तो सबसे पहले सरकार की धन संपत्ति, राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने दो-तीन विश्वसनीय धनी लोगों को सौंप दें। 95% जनता को भिखारी बना दें। उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी। किसी राजनेता को तानाशाह बनने के लिए ऐसा करने की जरूरत होती है।
सत्ता की भूख के चलते भारत किधर जा रहा है
फिर भी वर्तमान राजनीतिक आचरण के चलते यह सवाल उठाना गैरवाजिब नहीं होगा कि अखिर हमारा भारत किधर जा रहा है।
भारत की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए हमें विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना होगा। सत्ता की भूख के चलते भारत की दिशा को लेकर कई चिंताएं हैं। आइए कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करें।
- आर्थिक स्थिति: ( 1) भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। (2) देश में आर्थिक असमानता बढ़ रही है, जिससे गरीबी और बेरोजगारी की समस्या और भी जटिल हो रही है।
- सामाजिक स्थिति: (1) भारत में सामाजिक असमानता एक बड़ा मुद्दा है, जिसमें जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है। (2) शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की आवश्यकता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
- राजनीतिक स्थिति: (1) भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली है, लेकिन सत्ता की भूख के चलते राजनीतिकरण और ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। (2) देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरे बढ़ रहे हैं।
- विकास की दिशा: (1) भारत ने धारणीय विकास लक्ष्यों में कुछ प्रगति की है, जैसे कि सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा की उपलब्धता में सुधार। (2) हालांकि, उद्योग, नवाचार और बुनियादी ढांचे के क्षेत्रों में गिरावट आई है, जिससे विकास की गति धीमी हो रही है।
इन चुनौतियों का सामना करने के लिए, भारत को मजबूत नेतृत्व, प्रभावी नीतियों और सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता है। देश को सही दिशा में ले जाने के लिए हमें मिलकर काम करना होगा।