द कश्मीर फाइल्स को थिएटर में देखना एक भयावह अनुभव था। यह फिल्म दर्शकों में कुत्सित विचार जगाती है, उन्हें उत्तेजित करती है और भड़काती है। फिल्म के अंत के कुछ पहले हॉल में एक दर्शक मुस्लिम-विरोधी नारे लगाने लगता है। ऐसा लगता है मानो वातावरण में उन्माद घुल गया हो। इस फिल्म को देखने की सिफारिश करने वालों में आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर, आरएसएस मुखिया मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शामिल हैं। कई भाजपा-शासित प्रदेशों में इसे कर मुक्त घोषित कर दिया गया है। हरियाणा के मुख्यमंत्री तो चाहते थे कि इस फिल्म को बड़े-बड़े सभागृहों में मुफ्त दिखाया जाए परंतु फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने इसका विरोध किया क्योंकि इससे उनका मुनाफा कम होता।
यह फिल्म हमें बांधे तो रखती है परंतु परिष्कृत नहीं है। हमें बताया गया है कि फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है। इसमें बहुत भीषण एवं क्रूर हिंसा दिखाई गई है। एक दृश्य में बिजली की आरी से एक महिला को काटते हुए दिखाया गया है। कुछ लोगों का दावा है कि इस तरह की अमानवीय हिंसा वहां हुई ही नहीं थी। साथ ही, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हिंसा हुई थी। परन्तु यह भी सही है कि कई मामलों में मुसलमानों ने अपने पंडित पड़ोसियों की जान बचाई थी और उनकी अलग-अलग तरीकों से सहायता की थी। प्रेम और सौहार्द्र की इन घटनाओं को फिल्म में जरा सी भी जगह नहीं दी गई है। फिल्म में एकतरफा तरीके से केवल पंडितो की हत्याएं दिखाई गईं हैं।
[bs-quote quote=”जम्मू-कश्मीर के एक भाजपा नेता ने कहा कि केवल मुसलमानों ने पंडितों को मारा था और पंडितों ने कभी हथियार नहीं उठाए। यह सभी मुसलमानों को आतंकवादी बताने का प्रयास है। जिन लोगों ने पंडितों और भारत-समर्थक मुसलमानों को मारा वे पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादी थे जो कट्टर इस्लाम (जिया-उल-हक, तालिबान) के उदय के साथ अत्यंत आक्रामक हो गए थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
निर्देशक से एक पत्रकार ने जब पूछा कि फिल्म में आतंकियों के हाथों कश्मीरी मुसलमानों की हत्या को क्यों नहीं दिखाया गया है तो उन्होंने बहुत अजीबोगरीब जवाब दिया। उन्होंने कहा कि द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन और यहूदी दोनो मारे गए थे परंतु आज केवल यहूदियों को याद किया जाता है। इसी तरह हमें केवल पंडितों के खिलाफ हुई हिंसा को याद रखना है! यह अत्यंत अतार्किक तुलना है। जर्मन लोगों की मौत यातना शिविरों में नहीं हुई थी। जिन यहूदियों को याद किया जाता है वे युद्ध में नहीं मारे गए थे। उनकी जान हिटलर की फासीवादी नीतियों ने ली थी। निर्देशक का यह तर्क एक बड़ी चूक को औचित्यपूर्ण ठहराने का थोथा प्रयास है। दरअसल वे आतंकियों के हाथों मुसलमानों के मारे जाने को दिखाना ही नहीं चाहते थे।
जम्मू-कश्मीर के एक भाजपा नेता ने कहा कि केवल मुसलमानों ने पंडितों को मारा था और पंडितों ने कभी हथियार नहीं उठाए। यह सभी मुसलमानों को आतंकवादी बताने का प्रयास है। जिन लोगों ने पंडितों और भारत-समर्थक मुसलमानों को मारा वे पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादी थे जो कट्टर इस्लाम (जिया-उल-हक, तालिबान) के उदय के साथ अत्यंत आक्रामक हो गए थे।
[bs-quote quote=”समिति के नेता संजय टिक्कू को डर है कि इस फिल्म का कश्मीर में रहने वाले पंडितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। फिल्म के बारे में उनका कहना है कि उसका उद्देश्य धार्मिक ध्रुवीकरण करना और नफरत फैलाना है और यह भी हो सकता है कि इस फिल्म के कारण हिंसा एक बार फिर भड़क उठे। ना तो जम्मू-कश्मीर और न ही उसके बाहर के लोग चाहते है कि वैसी हिंसा फिर कभी हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सच तो यह है कि कश्मीर की स्वायत्तता से संबंधित प्रावधानों को कमज़ोर करने से कश्मीरी युवाओं में असंतोष और अलगाव के भाव का जन्म हुआ। यह अलगाव समय के साथ बढ़ता गया और नए-नए रूप लेता गया। कश्मीरियों का आंदोलन शुरुआत में कश्मीरियत के मूल्यों पर आधारित था। सन् 1980 के दशक में इसने भारत-विरोधी और फिर हिंदू-विरोधी स्वरूप अख्तियार कर लिया। घाटी में सबसे पहली राजनैतिक हत्या नेशनल कांफ्रेंस के मोहम्मद युसूफ हलवाई की हुई थी। यह जम्मू-कश्मीर के भाजपा नेता टीकालाल टिप्लू की हत्या के पहले की बात है। हमे यह समझना होगा की कश्मीर की हिंसा दो समुदायों के बीच साम्प्रादायिक हिंसा नहीं थी। वह आतंकी हिंसा थी।
कश्मीर में उग्रवादियों का एक तबका तालिबान के प्रभाव में आकर आतंकवादी बन गया। इन्हें आतंकवादी बनाने में पाकिस्तान के कुछ मदरसों का हाथ था। ये मदरसे अमरीका द्वारा उपलब्ध करवाई गई 800 करोड़ डॉलर मदद से स्थापित किए गए थे। इन मदरसों का पाठ्यक्रम अमरीका में तैयार किया गया था और इस्लाम के प्रतिगामी संस्करण पर आधारित था। अमरीका ने अफगानिस्तान में रूसी फौजों से लड़ने के लिए 7,000 टन असला भी उपलब्ध करवाया था। हमें आम कश्मीरी मुसलमानों और बंदूकधारी आतंकियों में अंतर करना होगा। ये आतंकी इस्लाम के आक्रामक और कट्टर संस्करण से प्रेरित थे।
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यह कहना सफेद झूठ है कि घाटी में केवल पंडित मारे गए थे। फिल्म में एक संवाद है कि गलत चीज़ दिखाना उतना ही खतरनाक है जितना कि सच को छिपाना। फिल्म में ठीक यही किया गया है। उसमें मुसलमानों की हत्याओं और उनके पलायन के सच को छुपाया गया है। फिल्म के निर्देशक ने साक्षात्कारों में कहा कि केवल पंडितों को घाटी से भागना पड़ा था। सच यह कि 50,000 से ज़्यादा मुसलमानों को भी घाटी छोड़नी पड़ी थी।
निर्देशक का यह भी दावा है कि अब घाटी में एक भी पंडित नहीं बचा है। यह दावा भी सफेद झूठ है। तथ्य यह है कि घाटी में अब भी लगभग 800 पंडित परिवार रह रहे हैं। उनकी संस्था कश्मीर पंडित सुरक्षा समिति है। समिति के नेता संजय टिक्कू को डर है कि इस फिल्म का कश्मीर में रहने वाले पंडितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। फिल्म के बारे में उनका कहना है कि उसका उद्देश्य धार्मिक ध्रुवीकरण करना और नफरत फैलाना है और यह भी हो सकता है कि इस फिल्म के कारण हिंसा एक बार फिर भड़क उठे। ना तो जम्मू-कश्मीर और न ही उसके बाहर के लोग चाहते है कि वैसी हिंसा फिर कभी हो।
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टिक्कू, कश्मीरी मुसलमानों और पंडितों के बीच के प्रेमपूर्ण रिश्तों के बारे में बताते हुए कहते हैं। “जिसे सामूहिक पलायन कहा जाता है उसकी शुरूआत 15 मार्च, 1990 से हुई थी। आतंकी संगठन रोजाना हिट लिस्ट जारी करते थे और इन लिस्टों को मस्जिदों के अंदर चिपकाया जाता था। इन सूचियों में पंडितों, नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं और मुसलमानों के नाम होते थे। चूकि व्यक्तिगत स्तर पर पंडितो और मुसलमानों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे इसलिए मगरिब की नमाज़ के दौरान अगर कोई मुसलमान अपने पंडित पड़ोसी का नाम सूची में देखता था तो वह घर पहुँचते ही यह बात उसे बता देता था क्योकि वह अपने पड़ोसी और उसके परिवार की जान बचाना चाहता था।”
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परंतु ये बातें फिल्म के निर्देशक और प्रचारकों के एजेंडे से मेल नहीं खातीं। फिल्म यह दुष्प्रचार भी करती है कि अतीत में घाटी में केवल हिंदू / पंडित रहते थे जिन्हे सूफी तलवार की दम पर मुसलमान बनाया गया। यह बात न तो कश्मीर और ना ही देश के दूसरे हिस्सों में इस्लाम के प्रसार के बारे में सही है। सूफी परम्परा की जिसे जरा सी भी जानकारी है वह यह जानता है कि सूफी संत आध्यात्मिकता और प्रेम का संदेश देते थे। वे हिंसा और ज़ोर-जबरदस्ती में कतई विश्वास नहीं रखते थे। और यही कारण है कि आज भी हिंदू और मुसलमान दोनों सूफियों की दरगाहों पर सजदा करते हैं। इस्लाम में धर्मपरिवर्तन बादशाहों और नवाबों के दम पर नहीं बल्कि जातिगत अत्याचारों के कारण हुआ। स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, “धर्मपरिवर्तन ईसाइयों और मुसलमानों के अत्याचारों के कारण नहीं वरन् ऊंची जाति के अत्याचारों के कारण हुए” (खेतरी के पंडित शंकरलाल को पत्र दिनांक 20 सितंबर,1892)।
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जहां तक कश्मीर का सवाल है रतनलाल हंगलू अपनी पुस्तक (द स्टेट इन मीडिवल कश्मीर, मनोहरलाल पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 2000) में स्वामी विवेकानंद की बात की पुष्टि करते हुए कहते है कि घाटी में इस्लाम में धर्मपरिवर्तन ब्राह्मणवादी अत्याचारों के खिलाफ मौन क्रांति थे।
यह फिल्म कश्मीर में कश्मीरियत को ठेस पहुंचाएगी और पूरे देश में साम्प्रादायिक सद्भाव को कमज़ोर करेगी।
अनुवाद : अमरीश हरदेनिया
राम पुनियानी देश के जाने-माने जनशिक्षक और वक्ता हैं। आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।
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