Friday, April 19, 2024
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खिलाड़ियों का जीवन संघर्ष और सिनेमाई पर्दे पर उनकी छवियाँ

बॉलीवुड और खिलाड़ियों के बीच बड़े मधुर सम्बन्ध रहे हैं। क्रिकेटर्स से कई हीरोइनों ने शादी की जिसका आरम्भ शर्मिला टैगोर ने भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान मंसूर अली खान (नवाब पटौदी) से शादी करके की।  उनकी परम्परा को नीना गुप्ता-विलियम रिचर्ड्स, संगीता बिजलानी-अजहर, रीना रॉय-मोहसिन खान, अनुष्का शर्मा-विराट कोहली ने आगे बढ़ाया। लिएंडर पेस […]

बॉलीवुड और खिलाड़ियों के बीच बड़े मधुर सम्बन्ध रहे हैं। क्रिकेटर्स से कई हीरोइनों ने शादी की जिसका आरम्भ शर्मिला टैगोर ने भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान मंसूर अली खान (नवाब पटौदी) से शादी करके की।  उनकी परम्परा को नीना गुप्ता-विलियम रिचर्ड्स, संगीता बिजलानी-अजहर, रीना रॉय-मोहसिन खान, अनुष्का शर्मा-विराट कोहली ने आगे बढ़ाया। लिएंडर पेस और किम शर्मा, लारा दत्ता-महेश भूपति, युवराज सिंह-हेज़ल कीच के बीच भी सम्बन्ध रहे। बैडमिंटन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण की बेटी दीपिका ने मॉडलिंग से होते हुए बॉलीवुड कदम रखा। यह मोबिलिटी दो क्षेत्रों के इलीट क्लास के बीच है जहाँ बहुत सारा पैसा, पहचान और प्रतिष्ठा है। बॉलीवुड ने क्रिकेट खिलाड़ियों के अलावा कबड्डी, हाकी, कुश्ती, बॉक्सिंग और बैडमिंटन जैसे खेलों  और उनके खिलाड़ियों पर फिल्में बनाकर खूब पैसा कमाया है। खेल और फिल्मों के अंतर्संबंध पर लेख लिखने का प्रमुख कारण इस वर्ष का टोक्यो ओलम्पिक भी है। टोक्यो ओलम्पिक में भारत के खिलाड़ियों ने अब तक का श्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए कुल सात पदक जीते। एथलेटिक्स में पहली बार सूबेदार नीरज चोपड़ा ने जेवलिन थ्रो (भाला फेंक) में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच दिया।  मणिपुर की रहने वाली वेट लिफ्टर मीराबाई चानू ने सिल्वर मेडल जीतकर टोक्यो ओलम्पिक में पदक की शुरुआत की थी। विश्व चैम्पियन शटलर पी.वी. सिन्धु ने पिछले ओलम्पिक में सिल्वर मेडल जीता था, इस बार कांस्य पदक जीतकर लगातार दो ओलम्पिक में पदक जीतने वाली प्रथम भारतीय महिला खिलाड़ी बन गयीं। असम निवासी लवलीना बोरगोहन बॉक्सिंग में कांस्य पदक जीताकर मेरी कॉम की परम्परा को आगे बढ़ाया। पहलवान रवि दहिया ने कुश्ती में सिल्वर मेडल जीता तथा बजरंग पूनिया ने कुश्ती में ही कांस्य पदक जीता। भारतीय पुरुष और महिला हाकी टीमे एक साथ सेमी फाइनल में पहुंची तो पूरे देश का ध्यान राष्ट्रीय खेल की तरफ गया। हाकी टीम की लड़कियों ने शानदार तरीके से खेला लेकिन वे सेमी फाइनल में हार गयीं। पुरुष टीम ने सन 1980 में मास्को ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीता था इस बार वे कांस्य पदक जीत सके। इतने वर्षों बाद हाकी टीम ने शानदार वापसी की।

एक खिलाड़ी को बनने में काफी समय, पैसा और ऊर्जा खर्च करना होता है। कोच और आधारभूत संरचना का होना नितांत आवश्यक है। इसी के साथ-साथ खानपान पर भी विशेष ध्यान देना होता है। बीस साल से लेकर चालीस साल के बीच ही ज्यादातर खेलों के खिलाड़ी खेल भी सकते हैं। इसलिए लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर संसाधनों और ट्रेनिंग के माध्यम से ही विश्व स्तरीय खिलाड़ियों को देश तैयार कर सकता है। देश के अलग-अलग क्षेत्रों से प्रतिभावान खिलाडियों के चयन की भी पारदर्शी व्यवस्था होनी चाहिये ताकि जुगाड़, जातिवाद और क्षेत्रवाद के आधार मात्र पर नाम के लिए खिलाड़ियों का चयन न हो, जो एक-दो नेशनल खेलकर प्रमाण पत्र ले लेते हैं और उनके सहारे सरकारी विभागों में नौकरी पा लेते हैं। सिर्फ निजी लाभ और नौकरी के उद्देश्य से यदि खिलाड़ी तैयार किये जायेंगे तो वे पदक जीतने के स्तर तक नहीं पहुचं सकते। खेलों के उन्नयन के लिए पर्याप्त बजट की व्यवस्था और अनुश्रवण की प्रभावी व्यवस्था करनी होगी तभी अपने पड़ोसी एशियाई देश चीन की तरह पदक तालिका में हम सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकेंगे।

सामाजिक संरचना और खिलाड़ियों के निजी संघर्ष

महिला हाकी टीम की गोलकीपर सविता पुनिया के पिता ने टीम के सेमी फाइनल में पहुँचने पर कहा था, ‘उन लड़कों के मुंह पर तमाचा है मेरी बेटी का प्रदर्शन, जो सविता पुनिया को बस में प्रैक्टिस के लिए जाते हुए छेड़ते थे’। टोक्यो ओलम्पिक की बात करें तो महिला और पुरुष दोनों हाकी टीमों के सेमी फाइनल में पहुँचने पर देश में बहुत ही सकारात्मक और उत्साह का माहौल था। खिलाड़ियों के निजी जीवन और अभावों से जूझते हुए उनके संघर्ष और सफलता की चर्चा हर तरफ हो रही थी। लड़कियों का प्रदर्शन बहुत ही शानदार रहा था। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक से लेकर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर खिलाड़ियों के बारे में ही लिखा पढ़ा जा रहा था तभी एक लज्जित करने वाली खबर आई। महिला हाकी टीम की स्टार स्ट्राइकर वन्दना कटारिया के हरिद्वार जनपद स्थित रोशनाबाद गाँव में उनके घर के सामने कुछ उच्च जाति कहे जाने वाले लोगों ने इस बात पर गालियाँ सुनायीं कि भारतीय हाकी टीम में बहुत सारे दलित खिलाड़ी हैं इसीलिए टीम सेमी फाइनल में हार गयी।  हाकी ही नही सभी खेलों से दलितों को बाहर करना चाहिए। वन्दना कटारिया ने ओलम्पिक क्वार्टरफाइनल हाकी मैच में ऐतिहासिक हैट्रिक लगाकर जीत दिलाया था। ऐसा रिकार्ड बनाने वाली वह पहली महिला हाकी खिलाड़ी हैं (इंडियन एक्सप्रेस 5 अगस्त 2021)। इस देश की विविधतापूर्ण जातीय संरचना में पला हर व्यक्ति सामने वाली की जातीय पहचान जानना चाहता है। अगर उपलब्धि अर्जित करने वाला व्यक्ति उसकी जाति सम्प्रदाय या वर्ग का पाया गया तो उसकी प्रतिक्रियाएं भिन्न होती हैं। वह गर्व से फूलकर कुप्पा हो जाता है की देखो फलाँ खिलाड़ी मेरी जाति का है। नीरज चोपड़ा ने जब भालाफेंक प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीता तो सोशल मीडिया पर प्रशंसको ने हैशटैग चलाया # राणा या महाराणा। कुछ खोजी लोगों बताया कि नीरज का ताल्लुक मराठा समाज से है। उनका इतिहास भी सामने आ गया कि जब 1761 में मराठा और अहमद शाह अब्दाली के बीच पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ तो युद्ध के बाद बहुत सारे मराठा लोग यहीं बस गए। मेरे एक जानने वाले वरिष्ठ नागरिक ने जब मराठा सेवा संघ की तरफ से नीरज चोपड़ा को बधाई दी तो मुझे पक्का विश्वास हुआ कि नीरज छत्रपति शिवाजी से जुड़े हुए हैं। सचिन को क्रिकेट से संन्यास मिलते ही भारत रत्न मिलना और हाकी के जादूगर ध्यानचंद को अभी तक लगातार मांग के बावजूद भी भारत रत्न न मिलना कई सवाल खड़े करता है। इस साल सरकार ने राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कारों का नाम बदलकर जरुर मेजर ध्यानचंद जी के नाम पर रख दिया।

धूल-धूसरित परिवेश से लड़ते हुये निकलते हैं खिलाड़ी

टोक्यो ओलम्पिक गेम्स के कुछ दिन पहले (जून 2021) ही झारखण्ड की दीपिका कुमारी और उनके पति अतानु दास ने तीरंदाजी विश्व कप, पेरिस में तीन स्वर्ण पदक जीते और अन्तराष्ट्रीय पटल पर भारत का नाम ऊँचा किया। उनके साथ अंकिता भगत और कोमालिका बारी ने भी पदक जीते। इतनी बड़ी उपलब्धि के बाद भी मेनस्ट्रीम मीडिया में पर्याप्त कवरेज नहीं मिली। गाँवकेलोग.कॉम ने इसे मीडिया का जातिवादी नजरिया बताते हुए (1 जुलाई 2021) आलोचना की।  सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर भी इस उपलब्धि को जगह न देने के कारण आलोचना हुई। महिला खिलाड़ियों की उपलब्धियों को देखें तो भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज ने इन्टरनेशनल क्रिकेट में सर्वाधिक रन बनाने का रिकार्ड अपने नाम कर इतिहास रचा। पीवी सिन्धु, सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल बैडमिंटन की जानी-मानी खिलाड़ी हैं। इस तरह देखें तो भारतीय लड़कियों ने खेलों में अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देश का सम्मान लगातार बढ़ाया है हालांकि उनके सामने चुनौतियाँ ज्यादा हैं।  उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद की रहने वाली पॉवर लिफ्टिंग खिलाडी निधि सिंह पटेल ने कई अन्तराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओ में गोल्ड मेडल जीते। उन्हें स्ट्रांग वुमन ऑफ़ द एशिया के ख़िताब से भी नवाजा गया। लेकिन कई बार चंदा लगाकर विदेशों में खेलने गयीं। यश भारती पुरस्कारों के ज़माने में कई बार प्रयास करने के बाद भी वे सरकार के ज़िम्मेदार लोगों से मिल तक नही सकीं। वे अपने परिवार के साथ कच्ची दीवाल पर बने खपरेल के मकान में रहती हैं। गरीबी, पुरुष वर्चस्व, छेड़छाड़ सब कुछ सहकर भी महिला खिलाडियों ने अपने मुकाम हासिल किये हैं। इन खिलाड़ियों के निजी संघर्षों को पढ़िए-सुनिए आपके आँखों में आंसू होंगे। हमे अपने और अपने समाज की सोच को बदलना होगा कि बिना गरीबी और संघर्ष के आगे नहीं बढ़ा जा सकता। बड़ी सफलताओं के लिए व्यवस्थित और लक्ष्य के प्रति जिम्मेदार  सिस्टम बनाना होगा। उभरते हुए खिलाड़ी से लेकर होनहार विद्यार्थी की केवल तारीफ़ करने की जगह सहयोग के लिए आगे आने और मदद करना सीखना होगा।  ओलम्पिक के ही साथ होने वाले पैरालम्पिक खेलों में सन 2004 एथेंस तथा 2016 में ब्राजील ओलम्पिक में भी देवेन्द्र झांझरिया ने भालाफेंक प्रतियोगिता ने स्वर्ण पदक जीता था। इन खिलाड़ियों और उनके खेलों को भी पर्याप्त महत्व और सम्मान मिलना चाहिए। श्रेयस तलपडे और नसीरुद्दीन शाह अभिनीत फिल्म इकबाल (2005) गूंगे-बहरे लड़के के क्रिकेट खिलाड़ी बनने की सम्वेदनशील कहानी को प्रस्तुत करती है।

यहाँ अपने गाँव की एक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगा। सन 1996 के आसपास की बात होगी नौरत्न भाई ईंट भट्ठे पर बैलगाड़ी लेकर गए थे। उधर पास में कोई कुश्ती का दंगल हो रहा था और वह शौकिया तौर पर एक पहलवान से लड़ गये और जीत भी गए। अनुसूचित जाति के लड़के ने बिना किसी अनुभव के मुकाबले में एक पेशेवर पहलवान को हरा दिया था। पूरे क्षेत्र में यह घटना चर्चा का विषय बन गयी थी क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था। उसे खूब इनाम भी मिला था। गाँव में यादव लोगों की बस्ती थी। वे लोग तीन चीजें अपने बच्चों को जरूर सिखाते थे बिरहा गाना, पहलवानी करना और लाठी चलाना। छह फीट की लम्बी बांस की लाठी कंधे पर रख कर चलना आज भी उनके ही बूते की बात है। उत्तर भारत के गाँवों में दो दशक पहले तक कबड्डी, खोखो, चिकाझूर, लखनी, गुल्ली डंडा, झूला, सायकिल रेस, बाल पिटाई, तिकडम, तासपत्ती, गोली-गुच्ची, कंचे जैसे खेल खलिहान से लेकर स्कूलों के मैदान तक खेले जाते हैं लेकिन मोबाइल बाबा के चक्कर में अब गाँव के लड़के शौकिया तौर पर भी अपने परम्परागत खेल नहीं खेलते और अब कई खेल तो अतीत का हिस्सा बन चुके हैं।

वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने अपने एक लेख में सभी खेलों में विविध पृष्ठभूमि के खिलाडियों को शामिल करने का मुद्दा उठाया ताकि देश और बेहतर प्रदर्शन कर सके। इस बात से किसको किसने रोका है। एथलीट बनने के लिए जिस मेहनत और शारीरिक सौष्ठव की आवश्यकता होती है उनको खोजकर अवसर दिये जाएं। लेकिन लेख में एक नकारात्मक भाव छुपा हुआ है। चेतन भगत अपने स्कूली जीवन की कहानियों को जबरदस्ती के मसालों में पकाकर जो निम्न स्तर की किताबें लिखी हैं और उन पर फिल्में भी बन गयी तो पॉपुलर होने के बाद कालम लिखकर पब्लिक इंटेलेकटुअल बनने लगे हैं। उनका तर्क है कि ओलंपिक के आयोजन एक प्राइवेट संस्था द्वारा कराया जाता है और करोड़ों अरबों रुपये कमाए जाते हैं। खेल गांव बनने में पर्यवरण का नुकसान होता है। खेल के तैयारी करने वाले बच्चों पर मानसिक दबाव पड़ता है जो ठीक नही है। चेतन को पता होना चाहिए कि प्रतिबद्धता, अनुशासन और समपर्ण के बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को उल्लेखनीय सफलताएं नही मिलती। खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के प्रयास की जगह उनमें कमी निकालकर संतुष्ट हो लेना उनके सोच समझ के स्तर को दिखाता है।

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बॉलीवुड की कुछ प्रमुख स्पोर्ट्स फिल्में

बॉक्सर (1984), अव्वल नम्बर (1990), जो जीता वही सिकंदर (1992),लगान (2001), एहसास (2001), स्टंप्ड (2003), इक़बाल (2005), माई ब्रदर निखिल (2005), अपने (2007), चैन कुल्ली की मैन कुल्ली (2007), धन धना धन गोल (2007), चक दे इंडिया (2007) से सलाम इंडिया (2007), हैट्रिक (2007), तारा रम पम (2007), मीराबाई नॉट आउट (2008), जन्नत (2008), विक्ट्री (2009), दिल बोले हड़िप्पा (2009), पान सिंह तोमर (2010), नॉक आउट (2010), लाहौर (2010), स्ट्राइकर (2010), पटियाला हाउस (2011), साइकिल क्लीक (2011), वर्ल्ड कप (2011), फरारी की सवारी (2012), भाग मिल्खा भाग (2013), काई पो चे (2013), हवा हवाई (2014), मैरी कॉम (2014), ब्रदर्स (2015), अज़हर (2016), साला खडूस (2016), सुलतान (2016), बुधिया सिंह बोर्न टू रन (2016), एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी (2016), द ब्रालर (2017), मुक्काबाज़ (2017), सूरमा (2018), गोल्ड (2018), सांड़ की आँख (2019), जोया फैक्टर (2019), छलांग (2020), झुण्ड (2020) सायना 2020।

एक मार्मिक सिनेमाई अभिव्यक्ति

ऑफ़साइड (2006) नामक ईरानी फिल्म अपने विषय वास्तु और प्रस्तुतिकरण के कारण मुझे बहुत पसंद है।  जफ़र पनाही द्वारा निर्देशित इस ईरानी फिल्म में एक लड़की को ईरान और बहरीन के बीच होने वाले सन 2006 के वर्ल्ड कप क्वालीफाइंग मैच को देखना है लेकिन लड़कियों के लिए मैच देखना प्रतिबंधित है। वह लड़के के भेष में मैच देखने जा रहे लड़कों के साथ उनके बस में सवार होकर स्टेडियम पहुंचती है। उनमे से कुछ लड़के उस लड़की के जेंडर को पहचानने की कोशिश करते हैं लेकिन किसी से चर्चा नहीं करते। महंगे दाम पर ब्लैक टिकट खरीदने में असमर्थ होने पर वह चोरी से अंदर घुसने की कोशिश करती है। सिक्यूरिटी वाले उसे पकड़कर स्टेडियम की छत पर एक कमरे में अन्य महिलाओं के साथ बंद कर देते हैं। उस बंद कमरे में एक खिड़की है जिससे महिलाएं मैच नहीं देख पातीं। कैद महिलाओं पर नज़र रखने के लिए कई सैनिक लगे हैं जो अपने देश की सेवा कर रहे हैं। सुरक्षा में लगे लड़के अपने अफसर के डर से महिलाओं पर नजर रख रहे होते हैं अन्यथा उनको मैच देखने से रोकने में सैनिकों को कोई रूचि नहीं है। ये सैनिक लड़के बीच-बीच में मैच देखने जाने के जुर्म में कैद महिलाओं को मैच की कमेंट्री भी सुनाते हैं। इन लड़कियों में एक को बाथरूम जाने की जरूरत पड़ती है लेकिन स्टेडियम में कोई लेडीज टॉयलेट नहीं है इसलिए उसे एक सैनिक के साथ पुरुष टॉयलेट में ही भेजा जाता है। सैनिक उस लडकी की पहचान को छुपाने के लिए उसके मुंह पर एक फुटबाल खिलाड़ी का पोस्टर लपेट देता है तथा कई पुरुषों को उठाकर बाहर फेकता है और नये लोगों को आने से रोकता है। इसी भगदड में लड़की भागकर स्टेडियम में घुस जाती है लेकिन कुछ ही समय बाद वापस छत पर बने हाल में वापस आ जाती है ताकि सैनिक लड़के को कोई मुश्किल न हो जाये क्योंकि वह सुरक्षा ड्यूटी पर था। खेल का दूसरा भाग शुरू होने के बाद पकड़ी गयी लड़कियों को बस से वापस भेजा जाता है। बस जैसे ही तेहरान भेजी पहुंचती है रेडियो कमेंट्री से पता चलता है कि ईरान ने बहरीन को हरा दिया है। बस के अंदर और बाहर सडक पर लोग जश्न मनाना और पटाखे फोड़ने लगते हैं। बस के अंदर सभी लोग खुश हैं सिर्फ एक लड़की को छोडकर जिससे फिल्म आरम्भ होती है। उससे अन्य साथियों द्वारा पूछे जाने पर पता चलता है कि वास्तव में उसे फ़ुटबाल खेल में बहुत रूचि नहीं है वह तो ईरान-जापान के बीच मैच के दौरान मारे गए सात लोगों में से मारे गए अपने एक दोस्त की याद में मैच देखना चाहती थी। यह फिल्म वास्तविक स्टेडियम में ईरानी नेशनल टीम के एक क्वालीफाइंग मैच के दौरान शूट की गयी थी।

ज़फ़र पनाही की फिल्म ऑफसाइड

इस फिल्म में दिखाई गयी ईरानी लडकियां  दया की पात्र नहीं है वे मॉडर्न कपड़े पहनती हैं, वे अपनी सुरक्षा में लगे पुलिस वालों से खूब बहस करती हैं। वे सवाल भी उठाती है कि, ‘वे अपना पसंदीदा फुटबाल मैच क्यों नहीं देख सकती, जबकि इसी स्टेडियम में जापानी लड़कियां और महिलाएं मैच देख रही हैं’। वे खेल से बाहर होकर भी कमेंट्री सुनकर खुश होती हैं, ईरान के मैच जीतने पर वे बस से उतरकर पटाखे फोड़कर जश्न मनाती हैं। इस फिल्म में पात्रों के बीच जो बातचीत वह कमाल की है। एक पुरुष प्रधान इस्लामिक देश में फुटबाल मैच के माध्यम से वहां के नागरिक किस तरह अपनी राष्ट्रीयता का प्रदर्शन करते हैं वह देखना एक अनुभव है।

हिन्दी सिनेमा ने कुछ अच्छा और कुछ मसालेबाजकाम किया

जो जीता वही सिकन्दर (1992) देहरादून शहर के विभिन्न कालेजों में वार्षिक सायकिल रेस का मैराथन खेल होता है। एक छोटा सा कैफे चलाने वाले रामलाल का बड़ा बेटा रतन सायकिल रेस का अच्छा खिलाड़ी है लेकिन पहली बार वह अपनी खराब सायकिल के कारण रेस हार जाता है। अगली बार वह रेस जीतने न पाए उसका एक्सीडेंट कर घायल कर दिया जाता है। अब ज़िम्मेदारी संजू के उपर आ जाती है। संजू (आमिर खान) रतन का छोटा भाई है जो एक मनमौजी नौजवान है और अपने पिता रामलाल (कुलभूषण खरबंदा) के साथ उसके मतभेद रहते हैं क्योंकि वे चाहते हैं कि संजू भी रतन की तरह जिम्मेदार बने। फिल्म की नायिका अंजलि (आयशा जुल्का) और उसके पिता वाहन मरम्मत की दुकान चलाते हैं। अपने बड़े भाई के चोटिल होने के बाद अगले साल की सायकिल रेस में संजू तैयारी के साथ प्रतियोगिता में भाग लेता है। बड़े भाई की प्रेरणा से और अपनी नई साइकिल के साथ, संजू दौड़ में भाग लेता है। बॉलीवुड के तमाम लटकों-झटकों के साथ इस फिल्म के अंत में लंबे समय से प्रतीक्षित जीत मिलती है। पहले जब रतन रेस हार जाता और बाद में उसका छोटा भाई संजू रेस जीत लेता है तो दोनों ही बार उनके पिता रामलाल एक मुहाबरा दुहराते हैं, जो जीता वही सिकन्दर। सायकिल रेसिंग गेम पर बॉलीवुड के अकेली फिल्म है। मोटर रेसिंग पर सन 2007 में बनी फिल्म ‘तारा रम पम’ (सैफ अली खान और रानी मुखर्जी) एक दर्शनीय फिल्म है।

मेरी कॉम की भूमिका में प्रियंका चोपड़ा

मैरी कॉम (2014) और पूर्वोत्तर भारत की विभिन्न खेलों से जुडी प्रतिभाओं ने विशेषकर महिलाओं ने राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देश का सम्मान बढाने का काम किया है। बाइचुंग भूटिया, मेरी कॉम, दीपा करमाकर, हिमा दास, मीराबाई चानू, लवलीना बोरगोहन, जैसे खिलाड़ी इसी सुंदर भूभाग से आते हैं। इस क्षेत्र में खासी, गारो जैसी महिला प्रधान जनजातियों के कारण लड़कियों को समाज में लड़कों के समान अधिकार प्राप्त हैं। खेल ही नहीं नृत्य, संगीत शिक्षा और जीवन के सभी क्षेत्रों में लड़कियों और महिलाओं की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी प्राप्त है। महान बॉक्सर मेरी कोम टोक्यो ओलम्पिक में कुछ ख़ास नहीं कर सकीं लेकिन अपने कैरियर में अब तक उन्होंने जो कुछ भी अर्जित किया है वह अद्भुत है। वह अभी राज्यसभा सांसद हैं। वह 6 बार वर्ल्ड अमेटर बाक्सिंग चैंपियनशिप तथा 8 वर्ल्ड चैम्पियनशिप मेडल जीतने वाली दुनिया की अकेली महिला हैं। सन 2012 के ओलम्पिक में कांस्य पदक और 2014 के एशियाई गेम्स में गोल्ड एवं 2018 के कामनवेल्थ गेम्स में भी गोल्ड जीतने वाली महिला बॉक्सर हैं। लोग उनको प्यार से मैग्निफिसेंट मेरी निकनेम से बुलाते हैं। मणिपुर सरकार ने उन्हें ‘मीथोई लीमा’ (महान महिला) का खिताब सन 2018 में दिया। बॉलीवुड के निर्देशक उमंग कुमार ने प्रियंका चोपड़ा को मेरी कोम की भूमिका देकर 2014 में उनकी बायोपिक फिल्म बनाई। उनके जीवन पर विथ दिस रिंग नाम से डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनी। मसाला फ़िल्में बनाने के महारथी बॉलीवुड ने एक मजबूत बॉक्सर खिलाड़ी के जीवन पर बनी फिल्म मेरी कॉम में भी इमोशनल ड्रामा का भरपूर तड़का लगाया। फिल्म के क्लाइमैक्स पर मेरी कॉम बॉक्सिंग रिंग में लड़ रही हैं और उनका बच्चा ऑपरेशन थिएटर में जीवन-मृत्यु के बीच संघर्षरत है। शादी और बच्चे के बाद मेरी कॉम के करियर को उनके कोच और बाक्सिंग की दुनिया ने खत्म मान लिया था लेकिन वह ट्रू फाइटर थीं और अपनी इच्छा शक्ति से वापसी की। अपने धुन की पक्की मेरी कॉम ने जटिल व्यवस्था, भ्रष्ट खेल संघ और पितृसत्तात्मक समाज से अल्दते हुए अपने मुकाम हासिल किये। फिल्म उनके संघर्षों को दर्ज करती हैं। कुछ लोगों का मानना था कि मेरी कोम की भूमिका किसी नार्थ एस्ट इंडिया की एक्टर को करनी चाहिये थी लेकिन प्रियंका चोपड़ा ने मेहनत से इस रोल को निभाया था। मेरी कॉम की एक महिला बॉक्सिंग चैम्पियन के रूप में जो उपलब्धियां हैं उस पर और भी बेहतरीन फिल्म बनाये जाने की आवश्यकता है जिसमे मेलोड्रामा और मसाला से ज्यादा उनका जीवन और संघर्ष उभरकर आये।

गंगा जमना फिल्म में अवधी-भोजपुरी क्षेत्र की कबड्डी का खेल दिखाया गया है। पंगा फिल्म में एक महिला कबड्डी खिलाड़ी के खेल और पारिवारिक जीवन के बीच के ‘भूमिका संघर्ष’ को दिखाया गया है। उड़ता पंजाब में बिहार से पलायित होकर पंजाब में बसे एक परिवार की लड़की की भूमिका में आलिया भट्ट हाकी स्टिक लिए दिखती हैं। वे हाकी सीखना चाहती हैं लेकिन उसे ड्रग्स की आदत लगाकर उसका शारीरिक शोषण किया जाता है। तनु वेड्स मनु रिटर्न में कंगना रानावत बास्केटबाल की खिलाड़ी बनी हैं।  उनका नकल करते हुए स्टार प्लस के धारावाहिक ये रिश्ता क्या कहलाता है में सीरत नामक बॉक्सर लड़की को दिखाया गया है जो कंगना की ही तरह हरियाणवी भाषा बोलती है। हिंदी धारावाहिक अब कुछ नया लेकर तो आते नहीं, वे नाच-गाना से लेकर कहानी और चरित्रों तक की नकल बॉलीवुड से फिल्मों से करते हैं। जो फिल्में खेलों पर केन्द्रित नहीं है उनमें भी कुछ खेलों के दृश्य होते हैं और ध्यान आकृष्ट करते हैं। बास्केटबॉल इलीट लोगों का और स्कूल-कालेज कैम्पस का प्रिय खेल है। यह खेल कुछ कुछ होता है, हाफ गर्ल फ्रेंड फिल्मों में नायिका-नायक के बीच प्रेम पनपने का प्रमुख स्थान है।  पान सिंह तोमर फिल्म का नायक भी बागी डाकू बनने के पहले आर्मी का जवान और धावक एथलीट था। भाग मिल्खा भाग फिल्म प्रख्यात भारतीय धावक एथलीट फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह की बायोपिक थी। भारत-पाकिस्तान बंटवारे में अपने परिवार के लोगों के मार दिए जाने पर बड़ी मुश्किल से भागकर जान बचाने वाले मिल्खा सिंह भी सेना में नौकरी करने के साथ-साथ अन्तराष्ट्रीय स्तर के दमदार खिलाड़ी रहे। सन 1983 में भारतीय टीम ने क्रिकेट का विश्वकप जीता था उस ऐतिहासिक घटना पर 83 शीर्षक से फिल्म बन रही है। उस विश्वकप को जिताने वाले महान खिलाड़ी कपिलदेव के बाद महेंद्र सिंह धोनी की कप्तानी में भारतीय टीम ने विश्व कप 2011 के साथ ही 2007 में ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्व कप भी जीता था। धोनी के जीवन पर एक सफल फिल्म एम.एस. धोनी-द अनटोल्ड स्टोरी (2016) बनी। जब बीसीसीआई ने छोटे-छोटे शहरों और सामान्य पृष्ठभूमि के खिलाड़ियों को भद्रजनों के खेल क्रिकेट टीम का हिस्सा बनाना शुरू किया तो निश्चित रूप से एक मजबूत और अच्छा प्रदर्शन करने वाली टीम बनी। अच्छे परिणामों के लिए  विविधता का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वागत होना चाहिए। सचिन तेंदुलकर और मोहम्मद अजहरुद्दीन के जीवन पर भी बायोपिक फ़िल्में बनीं लेकिन वे धोनी पर बनी फिल्म की तरह सफल और चर्चित नहीं हुई। इसका कारण धोनी का संघर्ष और अर्जित सफलताएं भी हैं।              

हॉलीवुड की स्पोर्ट्स फ़िल्में

स्पोर्ट्स फिल्में अपने एक्शन, रोमांच और उत्साह बढ़ाती भावनात्मक भीड़ के शोर के कारण एक महत्वपूर्ण जेनर बनाती हैं। जो खेल हमें वास्तविक जीवन में पसंद हैं वह फ़िल्मी परदे पर भी हम उतने ही उत्साह से देखते हैं। इसी उत्साह और भावनात्मक लगाव को भुनाने के लिए दुनिया भर की फिल्म इंडस्ट्रीज स्पोर्ट्स मूविज बनाती हैं। एक गरीब घर के खिलाड़ी को, जो अपनी निजी ज़िन्दगी के तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए खेल के मैदान पर सफलता अर्जित करें की जो यात्रा तय करता है वह दर्शकों का न केवल मनोरंजन करती है बल्कि उन्हें प्रेरणा भी देती है। रॉकी फिल्म का उम्रदराज बॉक्सर इस तरह की फिल्म का बेहतर उदाहरण है।  एक हारे हुए या चोटिल हुए चैंपियन खिलाड़ी को दुबारा खेल में वापस लाने के लिए उसके परिवार के सदस्य, मित्र और समर्थक जिस तरह उसे भावनात्मक समर्थन देते हैं यह भी स्पोर्ट्स फिल्मों का पसंदीदा विषय होता है। चार श्रेणियों में आस्कर पुरस्कार जीतने वाली एक महिला मुक्केबाज़ (हिलेरी स्वांक) के जीवन पर आधारित फिल्म मिलियन डॉलर बेबी एक बेहतरीन फिल्म है। हॉलीवुड की कुछ प्रमुख स्पोर्ट्स फ़िल्में निम्न प्रकार हैं:

रेसलिंग पर द रेसलर (2008), विन विन (2011), फाइटिंग विथ माय फेमिली (2019)
बॉक्सिंग पर  रॉकी (1976), रेगिंग बुल (1980), व्हेन वी वेयर किंग (1996), मिलियन डॉलर बेबी (2004), द फाइटर (2010), क्रीड (2015),बेसबाल पर द बैड न्यूज़ बियर्स (1976), बुल डरहम (1988), द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़ हेंक ग्रीनवर्ग (2000), द रुकी (2002), मनीबॉल  (2011), मिलियन डॉलर आर्म्स (2014), बास्केटबाल पर  हूसिएर्स (1986), हूप ड्रीम्स (1994), ग्लोरी रोड (2006), फुटबाल पर हॉर्स फेदर्स (1932), जेरी मगुइरे (1996), एनी गिवेन सन्डे (1999), इन्विन्सिबल (2006), वी आर मार्शल (2006), द ब्लाइंड साइड (2009), अनडिफीटेड (2012), नेक्स्ट गोल विन्स (2014), मोटर रेसिंग पर रश (2013), फोर्ड वर्सेस फरारी (2019), फिगर स्केटिंग पर आई, तोंया (2018), हॉर्स रेसिंग पर नेशनल वेलवेट (1944), क्लाइम्बिंग पर फ्री सोलो (2018), सेलिंग पर मेडेन (2019), बिलियार्ड्स पर द हसलर(1961), व्हीलचेयर रग्बी पर मर्डरबॉल(2005), सर्फिंग पर द एंडलेस समर (1966), आर्केड पर द किंग ऑफ़ कांग: अ फिस्टफुलऑफ़ क्वार्टरस (2007), हाकी पर गून (2011), बास्केटबाल पर कोच कार्टर (2005), रोड रेस साइकिलिंग पर द प्रोग्राम (2015)आदि महत्वपूर्ण फिल्में बनी हैं।

द फ्लाईंग सिक्ख मिल्खा सिंह की बायोपिक भाग मिल्खा भाग में मिल्खा सिंह बने फरहान अख्तर

अभी भी बहुत सारी चीजों से लड़ना पड़ेगा

क्रिकेट, बैडमिंटन और चेस को छोड़ दें अन्य खेलों में भारतीय खिलाड़ियों की उपलब्धियां कम उल्लेखनीय हैं। कभी-कभार शूटिंग, बिलियर्ड्स-स्नूकर और तीरंदाजी में भी कुछ खिलाड़ी अपने निजी प्रयासों और मेहनत से पदक जीत लाते हैं लेकिन संस्थानिक और व्यव्स्थित रूप से निरंतर अच्छे परिणाम अभी अपेक्षित हैं।  जातिवाद, क्षेत्रवाद, खेल-खेल में भेदभाव, एक ही खेल खिलाड़ियों में भेदभाव, गैर-खिलाड़ियों का खेल संघों पर कब्जा भी खराब प्रदर्शन के कारण हैं। ओलंपिक कुश्ती में पदक जीतने वाले सुशील कुमार ने एक व्यक्ति का मर्डर करके अपनी सारी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी। मुक्केबाज विजेंदर कुमार भी फालतू की चीजो में बदनाम हुए। डोप टेस्ट में फेल होकर भी कई खिलाड़ियों ने विश्व स्तर पर बदनामी कराई। देश में खेलो की स्थिति सुधारने के लिए भारत सरकार ने खेलो इंडिया कार्यक्रम शुरू किया था जिसके परिणाम आने अभी बाकी हैं।  नेशनल और स्टेट खेलकर सर्टिफिकेट लेकर किसी तरह रेलवे या किसी अन्य विभाग में नौकरी पाना मात्र हमारे खिलाड़ियों का उदेश्य नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही खेल संघों में खिलाड़ियों का प्रतिनिधित्व ज्यादा होना चाहिए तथा वर्षों तक कुछ लोगों का लोगों का कब्जा नहीं होना चाहिए। सुरेश कलमाड़ी जी के नाम पर हो-हल्ले से हम सभी परिचित हैं। क्रिकेट ही नहीं अन्य खेलों को बराबर महत्व देना आवश्यक है। खिलाड़ियों से जातीय भेदभाव नहीं होना चाहिए।

राष्ट्रवाद और देश प्रेम को फ्रेम में रखकर पिछले एक दशक में खेलों पर आधारित कई फिल्मे बॉलीवुड में बनी हैं। बड़े और सफल खिलाड़ियों के जीवन पर आधारित बायोपिक  फ़िल्में बनाने का चलन बढ़ा है और ऐसी फिल्मे सफल भी रही हैं। ओलम्पिक खेलों के समय असम की मुक्केबाज लवलीना के गाँव तक जाने वाली सडक को पक्की बनाया जा रहा था। राष्ट्रीय स्तर तक खेल चुके खिलाडियों के गाँव तक जाने की सडकें और अच्छे स्टेडियम का उपलब्ध न होना एक बड़ी बाधा है। कोच और ट्रेनिंग और खान-पान की स्तरीय व्यवस्था सुनिश्चित किया जाना अपरिहार्य है। प्रतिभावान खिलाड़ी सामने आये इसके लिए केवल जीतने वाले खिलाड़ियों को ही नौकरी और इनाम नहीं मिलने चाहिये बल्कि सभी खिलाड़ियों  का भविष्य सुरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपना समय और कैरियर दाँव पर लगाया होता है। बाद में उन्हें रोजगार के अभाव में विवश होकर सब्जी बेचते या खेत मजदूर बनते देख बुरा लगता है। हम देखते हैं कि ज्यादातर खिलाड़ी आदिवासी और किसान पृष्ठभूमि से आते हैं और अपने लग्न और समर्पण से देश का नाम अन्तराष्ट्रीय पटल पर रोशन करते है इसलिए उनके प्रति कृतज्ञ होकर सम्मान और सुरक्षा देनी चाहिए।

 

संदर्भ

‘इंडिया लॉस्ट बेकाज इट हैज टू मेनी दलित प्लेयर्स’: कास्टयिस्ट स्लर्स थ्रोन एट हाकी स्टार वंदना कटारियास फेमिली. 5 अगस्त 2021. बाय ऑनलाइन डेस्क।

भगत, चेतन (2021) ओलिंपिक खेलों के छह स्याह पहलू, ओलिंपिक्स बुरे नहीं हैं लेकिन  अति-प्रतिस्पर्धा से सावधान रहना होगा, दैनिक भास्कर, 11 अगस्त 2021।

गुप्ता, शेखर (2021) सबको साथ लेकर चलने में ही खेलों की तरक्की, जाति और योग्यता को लेकर बेमानी बहस अब खत्म होनी चाहिए, दैनिक भास्कर, 10 जुलाई 2021।
हॉल, निक (2020) 25 बेस्ट स्पोर्ट्स मूवीज ऑफ़ आल टाइम रैंकड, 12 जुलाई 2020।
कामथ, सुधीश (2014) मैरी काम अबाउट द हीरोइन नॉट द बॉक्सर, इन …आन 5 सितम्बर 2014।

रैनसम, एमी जे. (2014) बॉलीवुड गोज टू द स्टेडियम: जेंडर नेशनल आइडेंटिटी एंड सपोर्ट फिल्म इन हिंदी, इन जर्नल ऑफ़ फिल्म एंड विडियो, वोल. 66, नम्बर 4, पेज 34-49, यूनिवर्सिटी ऑफ़ इलिनोइस प्रेस।

रोह्मन, फरहा यश्मिन बॉलीवुडाईजेशन ऑफ़ स्पोर्ट्स इन इंडियन सिनेमा, वोल5 नम्बर 1, (2019): प्रोसेडिंग ऑफ़ द वर्ल्ड कांफ्रेंस ऑन मिडिया एंड मास कम्युनिकेशन।

 

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