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ग्राउंड रिपोर्ट

वह साहित्य अभी लिखा जाना बाकी है जो पूँजीवादी गढ़ में दहशत पैदा करे

समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती-अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है। किन्तु व्हाटसएप और फ़ेसबुक के आने से साहित्य की गरिमा को ख़ासी चोट लगी है। लोगों का आम आरोप है कि फ़ेसबुक ख़राब कविताओं से भरा हुआ है।

आज का कवि लिखने के प्रति इतना गंभीर नहीं, जितना प्रकाशित होने व प्रतिक्रियाओं के प्रति गंभीर है, यह बात कुछ हद तक सही है। आम मान्यता है कि कविताएं प्रकाशित कराने के लिए, उन्हें अच्छी तरह से लिखना और संपादित करना ज़रूरी है। कविताएं अच्छी तरह से टंकित  हों, व्याकरण और वर्तनी सही हो, और वे कोई ठोस विचार या भावना व्यक्त करती हों। कविताओं को प्रकाशित कराने के लिए, साहित्यिक पत्रिकाओं, ऑनलाइन पत्रिकाओं और कविता संग्रह जैसे प्रकाशन खोजने होते हैं। साहित्य की दुनिया में पाठकों कमी की बात अकसर उठती रही है। इसकी रही सही कसर अब सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है। कहा जाता है कि पढऩे का समय पहले टीवी ले रहा था, अब इस कड़ी में सोशल मीडिया व अन्य तरह के गैजेट भी जुड़ गए हैं। क्या सोशल मीडिया साहित्य को समृद्ध कर रहा है या फिर पतन की ओर ले जा रहा है? क्या ये साहित्य के प्रचार-प्रसार में किसी तरह की भूमिका निभा रहा है? इन बातों पर सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा साहित्यकारों के विचारों में भी भिन्नता है। किंतु एक बात पर सभी सहमत हैं कि सोशल मीडिया ने गंभीर साहित्य भले ही पैदा न किया हो, लेकिन साहित्य के प्रचार में अपनी भूमिका जरूर निभा रहा है।

सोशल मीडिया पर लिखने वाले कवि/लेखक साहित्यकार की श्रेणी में हैं?

इस बारे में हिंदी कवि बोधिसत्व  कहते हैं – मैं इस बात से समहत नहीं हूं कि सोशल मीडिया का साहित्य पर नकारात्मक प्रभाव है। दरअसल अच्छे लेखन का इससे कोई संबंध नहीं है। मुख्य बात लेखन है। वह किस माध्यम से हो रहा है, यह बात मायने नहीं रखती है। लिखने वाला अपने लिखे के लिए जिम्मेदार है। असल बात लिखे गए कथन की गुणवत्ता की है, माध्यम की नहीं और गुणवत्ता लेखक की चेतना पर निर्भर करती है। कोई लेखक यदि महत्ववपूर्ण बात कह रहा है, तो सोशल मीडिया उसे एक मंच प्रदान कर रहा है। इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति के अवसर बढ़ाए हैं।

युवा कवि एवं आलेचक जितेन्द्र श्रीवास्तव के अनुसार सोशल मीडिया का जन्म कभी वैकल्पिक मीडिया के रूप में हुआ था लेकिन धीरे-धीरे उसका दबदबा इस कदर बढ़ गया कि मुख्यधारा का मीडिया भी उसके प्रभाव से बच नहीं पाया है। साहित्यिक पत्रिकाएं ब्लॉगों पर प्रकाशित साहित्य को ससम्मान प्रकाशित कर रही हैं। ब्लॉग पर चलने वाली चर्चाओं को न्यूज एंकर प्राइम टाइम का विषय-वस्तु बनाने लगे हैं। यह मीडिया के बारे में बदली हुई सोच का नतीजा है। लेकिन यहीं यह कहना भी जरूरी है कि सोशल मीडिया पर सब कुछ अनुकरणीय नहीं है। वहां प्रकाशित सामग्री का अधिकांश व्यक्तिगत है। सोशल मीडिया ने एक ओर जहां अभिव्यकित की स्वतंत्रता को मजबूती दी है वहीं दूसरी ओर अराजकता को भी प्रश्रय दिया है।

कथाकार रजनी मोरवाल का मत है कि सोशल मीडिया पर साहित्य और लेखकों की उपस्थिति है भी यह प्रश्न विचारणीय है क्योंकि जो लेखक स्थापित माने जाते हैं वे यहां क्या खालिस साहित्य परोस रहें हैं? या यहां वे सिर्फ हाइलाइट लिखते हैं? और यदि वे सिर्फ हाइलाइट लिखते हैं तो वे लोगों में एक कोतुहल तो अवश्य ही उत्पन्न कर देते हैं। किंतु इसे साहित्य तो हरगिज नहीं माना जा सकता, हां स्थापित लेखकों की टिप्पणियों से ये तो जरूर होता है कि लोग उसे अपने-अपने हिसाब और समझ से विस्तार देते हैं, कम-से-कम एक जागरूकता तो विकसित होती ही है। इधर के कुछ वर्षों में सोशल मीडिया ने लेखकों की एक बड़ी फौज पैदा की है, लेकिन फिर भी मुख्यधारा में उनका कहीं कोई नाम नहीं है, न ही उनके लिखे से समाज में कहीं कोई हलचल या बदलाव दिखाई देता है।

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युवा कवि विमलेश त्रिपाठी के अनुसार सोशल मीडिया पर कुछ स्थापित साहित्यकार भी मौजूद हैं, वे लागातार अपनी सक्रियता से सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं। इसके साथ ही कुछ नए लोग भी हैं जिन्होंने अभी-अभी लिखना शुरू किया है, वे लगातार अपनी रचनाएं यहां साझा करते हैं। कहना चाहिए कि वर्तमान समय में कई लोग हिंदी की पत्रिकाओं की मार्फत नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के जरिए ही स्वयं को स्थापित करने में सफल हुए हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ। यहाँ विमलेश त्रिपाठी के इस कथन से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता कि सोशल मीडिया पर कुछ स्थापित साहित्यकार भी मौजूद हैं, वे लागातार अपनी सक्रियता से सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं। विमलेश जी के इस कथन से मेरी असहमति है कि  वर्तमान समय में कई लोग हिंदी की पत्रिकाओं की मार्फत नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के जरिए ही स्वयं को स्थापित करने में सफल हुए हैं। हाँ! इतना जरूर है कि पाठकों द्वारा चने के झाड़ पर चढ़ाने वाली प्रवृति ने नवोदितों का न केवल भारी नुकसान किया है अपितु बहुत से पुराने साहित्यकारों को अहम की सीढ़ी पर चढ़ाने का काम किया है।

युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय का मानना है कि  कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो सोशल मीडिया पर हिंदी के सारे ही लेखक कमोबेश सक्रिय हैं, पर सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता से साहित्य का कोई भला हो रहा है, ऐसा मुझे नहीं लगता। सोशल मीडिया के विकास से न तो कोई उल्लेखनीय कृति रच ली गई है और ना ही, तीन-चार सौ बिकने वाली किताबें तीन-चार हजार बिकने लगी हैं यानी न रचनाशीलता का कोई विकास हुआ है और ना ही पाठकीयता का। पर एक बात माननी पड़ेगी कि सोशल मीडिया ने हिंदी में लिखने वाले बहुत सारे नए लोगों को जन्म दिया है, उन्हें प्रेरित किया है। मगर उनमें से अधिकांश का लेखन किसी काम का नहीं है। सोशल मीडिया पर हड़बड़ी बहुत है। इससे गंभीर साहित्य का नुकसान भी बहुत हो रहा है। लोगों की किताब या किसी बड़ी रचना को पढऩे की आदत छूट रही है।  मेरे विचार से हरे प्रकाश जी की बात से शत प्रतिशत सहमत होना अतिशयोक्ति न होगा।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ विभिन्न संस्कृतियों, कलाओं, धर्मों एवं भाषाओं का संगम है, जिसमें विविध समुदायों, वर्गों के लोग जीवनयापन करते हैं। सबका जीवन समान और सुचारु रूप से चल सके इसलिये एक संविधान का निर्माण किया गया है; जिसमें सम्पूर्ण देशवासियों के लिए एक सामान व्यवस्था है एवं दलित, शोषित, उपेक्षित, ग़रीब, असहाय और पीड़ित वर्ग के हितों के रक्षा के लिए बहुत से क़ानून हैं। परन्तु आश्चर्य होता है कि ये लोग शोषण मुक्त नहीं है। जिसकी लड़ाई आज़ाद भारत में भी चल रही है। बहुत से संगठनिक, राजनीतिक, साहित्यिक आन्दोलन देश के कोने-कोने में चल रहे हैं। अपने हक़ के लिए हर कोई आवाज़ उठा रहा है। मानव-मानव में समानता के लिए जद्दोजेहद चल रही है। सभी यह चाहते हैं कि सामान अधिकार और सम्मान मिले। इसी लड़ाई को समाज में सदियों से बेबस और बदतर ज़िन्दगी जी रहे दलित वर्ग लड़ रहे हैं। उन्होंने अपनी आवाज़ साहित्य के विभिन्न विधाओं के माध्यम से उठाई है। कविता उसी सबमें एक सशक्त विधा है, जिसने दलित समाज के लोगों के अंदर चेतना का संचार किया है। इन शोषित लोगों ने अपने दुःख दर्द को कहने के लिए स्वयं की भाषा, सौन्दर्य का निर्माण किया। तब हिन्दी साहित्य के प्रबल समर्थकों ने दावा किया कि दलित हित में हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। परन्तु कितने भी दावे किये जाएँ, नारे लगाये जाएँ, सब व्यर्थ हैं। क्योंकि दलित रचनाकारों ने सिद्ध कर दिया है कि उनमें वह संवेदना नहीं है जो दलित साहित्य में है।

ज्ञात हो कि मानव की मुक्तावस्था ही कविता को जन्म देती है। अनुभूतियों का वह स्तर जहाँ पहुँचकर मानव स्वयं को भूल जाता है-अपनी निजता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है, वहाँ मानव जैसे कवि को जाता है। संकुचन समाप्त प्रायः हो जाता है। यूँ जानिए कि प्रत्येक बच्चा जन्मजात एक कवि होता है, यदि उसे होने दिया जाए। कविता कवि की अपनी ही बात हो, आवश्यक नहीं। कविता अनुभूति-योग का परिणाम भी हो सकती है। यह आवश्यक नहीं कि कवि की अपनी पीड़ा की अनुभूति किसी और को हो, किन्तु औरों की पीड़ा कवि की पीड़ा हो सकती है।

जगत एक है किन्तु इसके रूप अनेक हैं। ठीक इसी प्रकार कवि एक है- हृदय एक है, किन्तु भाव अनेक हैं। इस विभिन्न प्रकार की भावनात्मकता का निर्वाह, परिष्कार और कार्य-व्यापार को तभी समझा जा सकता है, जब यह भावनात्मकता जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाए; जगत की बात करे। काव्य-दृष्टि में भाव-पक्ष मूल होता है- विषय अलग-अलग हो सकते हैं। परिणामतः सभ्यता और संस्कृति के परिवर्तन के साथ-साथ कवियों के लिए भी भाव-पक्ष में परिवर्तन हो अथवा न हो, यह सवाल हमेशा बना रहता है। ज़ाहिर है, काम अवश्य बढ़ जाता है।

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समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती-अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है। किन्तु व्हाटसएप और फ़ेसबुक के आने से साहित्य की गरिमा को ख़ासी चोट लगी है। लोगों का आम आरोप है कि फ़ेसबुक ख़राब कविताओं से भरा हुआ है। प्रस्तुत हैं हिंदी भाषा और कविता की वर्तमान स्थिति पर संजय कुंदन विचार। कहना उचित ही लगता है कि एक तरफ़ हिंदी में कविता के अंत की बात की जाती है, दूसरी तरफ़ कवियों की बाढ़ आ गई है। लिख कौन रहा है, मध्यवर्ग के लोग, जैसे कोई स्कूल टीचर है या कुछ और। जिसके पास यह क्षमता है कि अपनी किताब ख़ुद छपवा सके। उसे लगता है कि उसकी एक किताब आ गई तो वह भी नामी लेखकों के ग्रुप में आ गया है।

ग़ौर करने की बात है आज रचना की हैसियत गिरी है, किताब की नहीं। किताब का आज भी महत्त्व है। आदमी किताब पढ़कर ही इम्तिहान पास करता है, नौकरी पाता है। हम सब किताब पढ़कर ही बड़े हुए हैं। लेकिन ऐसे लोग फ़ेसबुक पर ज़्यादा हैं। फ़ेसबुक एक तरह का क्लब है। इस पर लिख रहे ज़्यादातर लोग कविता का मर्म नहीं जानते। कविता को लेकर उनके भीतर कुछ भ्रमात्मक वाक्य बैठे हुए हैं जैसे कि कविता भावनाओं की अभिव्यक्ति है। उनके लिए कविता का फ़ॉरमैट क्या है-छोटी-बड़ी लाइन। अब छंद का मामला ख़त्म हो गया है। सो ऐसे लोगों के लिए कविता लिखना बहुत आसान हो गया है। अब कोई मन की भावना इस तरह लिख सकता है कि ‘काले बादल छाये रहे, बारिश होती रही, मन भीगता रहा।’ अब इस पर ढेरों लाइक्स आ गए। लिखने वाला प्रसन्न हो गया। कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति तो है नहीं। वह उससे आगे की चीज़ है। लेकिन यह फ़ेसबुक पर लिख रहे अनेक लोगों को पता ही नहीं है। दरअसल वे पढ़ते नहीं हैं इसलिए वे अच्छी कविता समझ नहीं पाते। तकनीक ने कविता को भ्रमों से भर दिया है। हालाँकि फ़ेसबुक पर अच्छे कवि भी लिखते हैं। कुछ अच्छी कविताएँ भी समय-समय पर दिखाई दे जाती हैं।

कुंदन जी आगे कहते है कि अच्छी कविताओं का कम होना हमारे समय की दिक़्क़त है। अच्छी कविताएँ अच्छे कवियों के पास भी कम हैं। ज़्यादातर संग्रहों में प्रायः चार-पाँच ही अच्छी कविताएँ होती हैं। एक बार सत्यजीत राय से किसी ने पूछा था कि आपने फ़िल्म बनाना किससे सीखा। उन्होंने कहा, बायसिकिल थीफ़ के डायरेक्टर डेसिका से। उनका कहना था कि यह फ़िल्म उन्होंने पचास बार देखी। एक-एक शॉट को कई बार देखा। अब बताइए, आज कौन इस तरह सीखने को तैयार है। लोगों को लगता है सीखने की ज़रूरत ही क्या है।

ज़्यादातर कवियों द्वारा कहा जाता है कि पाठक कम हो गए हैं। क्या कोई ऐसा वक़्त था जब कविता के ढेरों पाठक थे? पहले तो छापेखाने भी आज जितने नहीं थे। चाँद जैसी पत्रिका पढ़े-लिखे घरों में आती थी। बच्चों की कई पत्रिकाएँ छपती थीं, पर ऐसा भी नहीं था कि वे लाखों में बिकती थीं। पहले तो लेखक ख़ुद ही अपनी किताब छपवाते थे। हिंदी प्रदेश की आबादी 60 करोड़ है, उसका एक प्रतिशत 60 लाख हुआ। उसका एक प्रतिशत 60 हज़ार हुआ। इतने लोग तो पढ़ते ही होंगे। हाँ, सभी लोग एक ही कवि को नहीं पढ़ते। कोई अज्ञेय को पढ़ता है तो कोई रघुवीर सहाय को। इस तरह एक कवि की पाँच-छह हज़ार किताब बिकती हैं। लेकिन यह बात प्रकाशक बताते नहीं। लखनऊ के पुस्तक मेले में मैंने अपनी किताब का पेपरबैक संस्करण देखा तो भौचक रह गया। मुझे इसके बारे में पता ही नहीं था। वैसे बांग्ला और ओड़िया में हिंदी की तुलना में कई गुना ज़्यादा किताबें बिकती हैं। आख़िर इसकी वजह क्या है? इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि आज़ादी की लड़ाई हमने हिंदी और भारतीय भाषाओं में लड़ी, लेकिन आज़ादी के बाद हमने उन्हें छोड़ दिया। सारा काम अंग्रेज़ी में होने लगा। इस तरह हम तो आज़ाद हो गए, लेकिन हमारी अपनी भाषा ग़ुलाम हो गई।

बड़े दुःख की बात है कि आजकल कुछ अच्छे और संभावनापूर्ण कवि भी ज़रूरी संवेदना और प्रतिभा से संपन्न होने के बावजूद कविता में अपने कथ्य की कंगालियत को अपनी शैली के नीचे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। यह वैसा ही प्रयत्न है जैसे कोई व्यक्ति अपने अंधेपन को रंगीन चश्मे के नीचे छिपाकर लोगों को ख़ुद के दृष्टि संपन्न होने का भरोसा दिलाने की अनावश्यक प्रयास करे। कई कवि तो इस प्रयास के दौरान गूढ़ दर्शन का ऐसा घटाटोप उत्पन्न करते हैं कि पाठक अस्पष्टता के अतल महासागर में डूबता-उतरता रहता है। वह अपने हाथ-पैर मारकर किनारे तो आना चाहता है परन्तु कविता उसे किनारे आने ही नहीं देती। या यूँ कहें कि पाठक को कहीं किनारा दिखता ही नहीं। मैंने ऐसे कवियों को अपनी अज्ञानता का उत्सव मनाते हुए, मूढ़ता के समक्ष दंडवत करते देखा है। इन्हें अपनी कविता की अपेक्षा पाठकीय की सच्ची-झूठी प्रसंशा से अधिक प्यार है।

प्रभात गोस्वामी जी कवि/लेखक की पीड़ा पर कुछ इस प्रकार अपने विचार प्रकट करते हैं कि जब भी कोई लेखक अपना काम पूरा करके उसे किसी समाचार पत्र या अख़बार में प्रकाशित करने के लिए भेजता है तो उसकी चिंता बहुत बढ़ जाती है। आजकल हर लेखक को लेखन में जन्म से दोगुनी पीड़ा होती है। पहली बार तब, जब वह अपने काम को जन्म देता है, और दूसरी बार तब, जब उसका काम किसी अख़बार या अख़बार में उसका पहला पन्ना भरता है। इंतज़ार के पल कितने कठिन होते हैं ये सिर्फ़ एक लेखक ही समझ सकता है। एक लेखक रात में बाथरूम जाता है और अपना मोबाइल खोलकर ई-पेपर का इंतज़ार करता है। इंतज़ार करना कितना कठिन होता है यह केवल एक लेखक ही समझ सकता है। आजकल लिखना लिखने से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है। इसे प्रकाशित हो जाने के बाद इसे विभिन्न सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म पर प्रकाशित करना भी उसकी चिंताओं में शमिल है; चिंता यह भी है कि अगर हमारे पसंदीदा लेखक की रचना पहले प्रकाशित होगी तो हमारी बारी कब आएगी? इसी चिंता में हर लेखक/कवि दुबला हो जाता है। किसी के बाल सफ़ेद हो रहे हैं तो किसी का शुगर लेवल बढ़ रहा है।

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आज मुक्त-छन्द कविता पर नाना-प्रकार से उँगलियाँ उठ रही हैं। वर्तमान दौर में दो तरह से कविता हो रही है। एक मन से, दूसरी मस्तिष्क से यानी लिखी जा रही है। ऐसा होना स्वाभाविक ही लगता है। समग्र साहित्य ने समय के साथ-साथ ख़ुद भी करवट बदली है। भक्ति-काल और छायावाद के बाद कविता मुक्त छन्द में लिखी जाने लगी। शिक्षा का क्षेत्र जो बढ़ गया। शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ-साथ मन के बजाय मस्तिष्क ने ज़्यादा काम करना शुरू जो कर दिया जो व्यावहारिक/स्वाभाविक ही है। अक्सर कहा जाता है कि आज कविता भी गद्य में लिखी जा रही है। क्या कविता पर भी किसी का ‘पेटेंट’ है कि कविता ऐसे लिखो? समय परिवर्तन के चलते न जाने कितने आयाम बदलते चले जाते हैं, फिर कविता (साहित्य) पर ये सवाल क्यों? आज कविता में छ्न्द-विधान का सवाल उठाना प्रासंगिक नहीं है। छ्न्द-विधान की परिधि में रहकर कविता करना शायद आज के कवि के वश की बात नहीं है, क्योंकि आज की कविता नितांत मन की बात नहीं है, दिमाग़ की भी है। फिर भी यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि छ्न्द-विधान आदि शर्तों की तलाश साहित्य-शिक्षकों अथवा आलोचकों की आवश्यकता हो सकती है, रचनाकार की नहीं। किन्तु कविता को प्रत्येक मायने में व्यावसायिकता से परे तो होना ही चाहिए।

फेसबुक पर दर्ज एक टिप्पणी में माननीय फूल चंद गुप्ता जी लिखते  हैं – हिन्दी कविता दुखी कविता है। वह विलाप बहुत करती है। उसमें संघर्ष नदारद है। उसका नायक शरणागत है। हिन्दी का कवि आक्रांताओं को धिक्कारता है। उनके अत्याचार गिनाता है। खीझकर उन्हें गालियाँ देता है। मैं जानता हूँ कि यह सब भी ज़रूरी है। किंतु यही अंतिम नहीं है। हिन्दी कविता स्थितियों में बदलाव की हामी भरती हुई भी बदलाव के लिए लड़ती नज़र नहीं आती। सर्वहारा वर्ग को लड़ने के लिए प्रेरित करती नज़र नहीं आती। हिन्दी कविता का नायक लड़ता नहीं है। वह युद्ध नहीं करता। वह अपनी बेड़ियाँ तोड़ने के लिए आक्रांताओं से सीधे तौर पर जूझता नज़र नहीं आता। वह अपनी परिस्थितियों से लड़कर न तो मरता हुआ नज़र आता है और न ही परिस्थितियों से जीत कर यथास्थिति से उबरता हुआ। परिस्थितियों को बदलता हुआ। वह युद्ध की बात करता है , परन्तु युद्धरत नहीं है। हिन्दी कविता दुखों की व्याख्या मात्र है। वह आम आदमी के संघर्षों की गाथा नहीं है। हिन्दी कविता आम आदमी से बहुत पीछे चलने वाली कविता है। समाज जिन रास्तों से गुजर चुका है हिन्दी कविता उन रास्तों की बात करती है। जो रास्ते आगे आने वाले हैं उनकी बात नहीं करती। उसकी आंखों में भविष्य के स्पष्ट स्वप्न नहीं हैं। इस तरह हिन्दी कविता जुलूस के आगे-आगे चलती हुई , जलती हुई मशाल नहीं , जुलूस के गुजर जाने के बाद पीछे छूट गया बुझा हुआ कोयला है , हवा में उड़ती हुई राख है। कारवाँ के पीछे का गुबार है।

एक और बात, हिन्दी का वर्तमान प्रतिरोध साहित्य सेफ ज़ोन साहित्य है। कवि, लेखक को ज्ञात है कि क्या लिखा जाये,  कब और कितना लिखा जाये कि शोषितों के पक्ष में खड़े हुए दिखाई भी दें , शोषक, शासक वर्ग और सत्ता की आलोचना और विरोध भी हो जाये और शोषक, शासक वर्ग और सत्ताधीशों को इतनी खरोंच भी न आये कि वे बंदूक लेकर मारने के लिए पीछे दौड़ पड़ें। वैसे भी पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी राजनीति साहित्यकारों को बहुत तवज्जो नहीं देता। उनके लिए इनका ज़्यादा महत्व नहीं है। उनके लिए साहित्य और साहित्यकार बहुत महत्व देने वाली चीजें नहीं हैं। साहित्यकार और साहित्य उनके लिए तब तक अनुल्लेखनीय, उपेक्षणीय और अनदेखी करने वाली चीजें हैं जब तक वे शासक शोषक वर्ग के हितों के लिए ख़तरा नहीं बन जातीं। दरअसल, शोषण शासक वर्ग में साहित्य कोई दहशत नहीं पैदा कर पा रहा। वह साहित्य अभी हिन्दी में लिखा जाना बाकी है जो पूँजीवादी गढ़ में दहशत पैदा करे।

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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