स्थितियां बहुत चैलेंजिंग हैं और ऐसे में जो थोडा कमजोर हैं और जिनके सामने सपोर्ट नहीं उनके लिए निश्चित ही स्थितियां अत्यंत कठिन हैं. पहले भी ऐसी स्थितियां थीं. वान गाग आदि के सामने भी ऐसा दौर था जब उनके सामने अपने काम को बेचकर जीविका चलाना कठिन था लेकिन आज का जो कॉर्पोरेट कल्चर है इसमें केवल पैसा ही महत्वपूर्ण है और आपके सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं सिवा इसके कि आप उनके अनुसार काम करते रहिये. उनके गुलाम रहिये. वे सारी संस्थाओं का उपयोग कर लेते हैं और अपने अनुसार क़ानून बनवा लेते हैं.
इस सन्दर्भ में मैं थोडा सा अपना अनुभव जोड़ना चाहूँगा हालाँकि मेरा यह आशय कतई नहीं है कि युवाओं के सामने कोई निराशाजनक बात करूं. मैं एक ज़माने में शब्दों, कैमरे और रंगों के माध्यम से अपने दौर को चित्रित कर रहा था लेकिन धीरे धीरे मैंने पाया कि कला की दुनिया के वैल्यूज भी बदल रहे हैं. यहाँ ओरिजिनल काम के प्रति एक उदासीनता और मिडियाकरी के प्रति सम्मान था. मैं स्वयं अपना काम इस स्तर पर नहीं बेच सका कि सम्मानजनक ढंग से रोटी खा सकूं. तो मुझे काफी निराशा हुई और सर्वाइवल के लिए मुझे अभिनय आदि में और उसमें भी कॉमर्शियल क्षेत्र में जाना पड़ा जहाँ उस तरह के जनसरोकार बिलकुल नहीं थे जिनसे मैं प्रेरित होता रहा था. फिर जीने के लिए यह करना था. लेकिन मेरे भीतर का वह इन्सान और कलाकार अब भी मुझे चैन से नहीं बैठने देता है और मैं उन माध्यमों की ओर एक बार फिर शिद्दत से लौटना चाहता हूँ जिनके जरिये अपने भीतर की उस दुनिया तक उतर सकूं जिसे बाहर ने लगातार बनाया है.
अब मैं आपके प्रश्न पर आता हूँ – मेरा मानना है कि निश्चित रूप से कलाकार को इन स्थितियों यानि सांस्कृतिक जड़ता के खिलाफ खड़ा होना चाहिए और अगर पहले का तरीका काम का न रह गया हो तो नये तरीकों को आजमाना चाहिए. एक क्रिएटिव व्यक्ति की यही विशेषता होती है. इतिहास में ऐसा होता रहा है. इतिहास हमें इसकी सीख देता है. जनता चाहती है हमेशा कि कोई उसकी बात करे. और जब कोई ऐसा करता है तो लोग साथ आते भी हैं. रिसेंटली अन्ना हजारे का उदहारण हम देख सकते हैं जिन्हें भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अभूतपूर्व जन समर्थन मिला.
पहले इप्टा था. पी डब्लू ए था और ये सभी संगठन नाटकों, सम्मेलनों और प्रदर्शनियों के जरिये अपनी बात कहते थे. बड़े-बड़े कवियों, नाटककारों को मंच देते थे और उनके जरिये जनता से एक संवाद होता था. जनता उसमें भागीदार होती थी. अब वह नहीं रहा लेकिन अब भी वह तरीका कारगर है, बेशक नागार्जुन या त्रिलोचन या शमशेर के न रहने पर अब यह कार्यभार युवा रचनाकारों पर आ गया है.
मीडिया के वर्चस्व ने विरोध की राजनीति में एक दूसरे को बेनकाब करने के माहौल को जरूर पैदा कर दिया है लेकिन फिर भी लोग इस बात को नहीं पकड़ पा रहे हैं कि चैनल झूठ बोल रहे हैं या लफ्फाजी कर रहे हैं. दूसरे, नेता तो दिखाई पड़ते हैं लेकिन वे जिन सरमायेदारों के लिए काम कर रहे हैं या लड़ रहे हैं, वे नहीं दिखते.
बेशक हमारा समय बहुत ख़राब है लेकिन आपको सामने तो आना ही पड़ेगा. ऐसा कब तक होगा कि फासीवाद, सरमायेदारी, शोषण और अन्याय का बोलबाला हो और आप उसके शिकार होते रहे हैं और चुप रहें. कलाकार अपने दौर की आँख-कान होते हैं. वे किन्हीं कारणों से जगह-जगह बिखरे पड़े हैं. लेकिन संगठनों को उन्हें अपने साथ लाना पड़ेगा वरना न केवल उनकी, बल्कि विचारों की भी विश्वसनीयता पर सवाल उठेंगे . मुझे लगता है यह एक जरूरी परियोजना होनी चाहिए और इसके साथ ही ध्यान देने की बात है कि संगठनकर्ताओं की समझ और आग्रह भी अधिक जेनुइन और सच्ची होनी चाहिये.
( रामजी यादव से बातचीत पर आधारित )
सुरेन्द्र राजन सुप्रसिद्ध अभिनेता, चित्रकार एवं कथाकार हैं । मुन्नाभाई एम.बी. बी.एस , आर राजकुमार , लीजेंड ऑफ भगत सिंह आदि उनकी प्रसिद्ध फिल्में हैं।
यह लेख धरातल की बात कही गई है। अभी के मिडिया संस्थाओं सरकार के चापलूसी और रखैलगिड़ी में व्यस्त हैं हां कुछ सोशल मीडियाओं और छोटे-छोटे व्यवसाइटो को छोड़कर…. ।