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ग्राउंड रिपोर्ट

क्या पूना पैक्ट में गाँधी को जबरन खलनायक बनाया गया है?

आज से 92 साल पहले 26 सितंबर, 1932 के दिन ऐतिहासिक पूना समझौते पर यरवदा जेल के अंदर हस्ताक्षर हुए थे। हमेशा की तरह, इस समय भी उस पैक्ट को लेकर कुछ लोग गलतबयानी करते थे। बाद में गलतबयानी भी तथ्य की तरह स्थापित हो गई। अस्सी के बाद के दशकों में तो यह प्रवृत्ति इतनी परवान चढ़ी कि गांधी इसके एकतरफा खलनायक बना दिये गए। फिर भी आज पूना पैक्ट की 92वीं सालगिरह पर कुछ बात करना जरूरी है।

माननीय कांशीराम जब पुणे में कुछ समय के लिए डिफेंस में नौकरी कर रहे थे, उस दौरान उन्होंने ऐतिहासिक पूना पैक्ट का बाकायदा अध्ययन करने के दौरान एक दलित मराठीभाषी प्रोफेसर से दलित साहित्य तथा जाति व्यवस्था पर बातचीत करते थे, क्योंकि वे मराठी के चलते-फिरते और अधिकारिक संदर्भ ग्रंथ थे। एक बातचीत के दौरान मेरे इन मित्र ने मुझे बताया था कि,  ‘कांशीरामजी जब पूना में कुछ समय रहे, तब वे दलित सवाल पर मुझसे बातचीत करने के लिए नियमित रूप से आते-जाते थे। एक दिन अचानक उन्होंने कहा कि, ‘आज मुझे मेरी राजनीति का दुश्मन मिल गया।’ ‘कौन?’ पूछने पर उनका जवाब आया ‘महात्मा गांधी।’ उनका जवाब सुनकर मैं थोड़ा असहज हुआ और कारण जानना चाहा। तब उन्होंने कहा ‘पूना पैक्ट’ कारण है।

मेरे मित्र ने बताया कि उनके जवाब से मुझे अचरज हुआ। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने अपनी पत्रिका, ‘बहिष्कृत भारत’ के पहले ही अंक में प्रकाशित लेख में लिखा था कि, ‘काश महात्मा गाँधी के साथ मेरे संबंध और पहले बने होते तो कितना अच्छा होता। अंग्रेजों से मैंने सिर्फ 71 आरक्षित सीटें ही मांगी थी लेकिन गांधीजी के आग्रह पर 148 सीटें मिल गई थीं। मतलब दुगुनी से अधिक। साथ ही जिस तरह से उन्होंने संपूर्ण देश में अस्पृश्यता के खिलाफ जनजागृति की मुहिम शुरू की, उसका ऐतिहासिक महत्व था।’

इस देश में समाजवाद कब आएगा पता नहीं। भारत के साढ़े छह सौ लाख से अधिक गांवो में रहने वाले दलितों को अपनी जीविका के लिए, सवर्ण समाज के उपर निर्भर रहना रहना पड़ता है। वास्तविकता यह है कि उन्हें नाराज करते हुए, उस गांव में आसानी से नहीं रह सकते।

 भले ही डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने दलितों को गांवों को छोड़कर शहरों की तरफ चलने का नारा दिया हो लेकिन अधिकतर दलित आज भी गांवों में ही रहने के लिए मजबूर हैं। सतत इस तनाव में रहते हुए जीवन बसर करना कठिन होता है।

इस बात को महात्मा गाँधीजी ने पूरी तरह पहचाना था इसलिए अस्पृश्यता के खिलाफ, उन्होंने समय-समय पर भूमिका निभाने की कोशिश की। कांग्रेस के इतिहास में पहली बार 1920 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के एक सामान्य प्रतिनिधि की हैसियत से शामिल हुए। वहाँ पहली बार अस्पृश्यता के खिलाफ प्रस्ताव पारित कराने का विशेष रूप से प्रयास किया।
दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत के उनके सभी आश्रमों में सभी जाति, धर्म और विभिन्न देशों के लोग रहते थे। किसी भी तरह के छुआछूत या अस्पृश्यता के खिलाफ उन्होंने काम नहीं किया। जाति-व्यवस्था आधारित व्यवसाय करते हुए उन्होंने अपने आश्रम में खुद पाखाना साफ करने से लेकर, मरे हुए जानवर की चमड़ी निकालने तक सब काम किया।

उन्होंने कसम खाई कि अंतरजातीय विवाहों में वर-वधू में से एक सवर्ण और दूसरा दलित होगा तभी वह शादी में शामिल होंगे। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने भी कहा है कि,’जाति तब तक समाप्त नहीं होगी कि जब तक अंतरजातीय विवाह नहीं होंगे।’ यहीं जाति निर्मूलन के लिए कृतिशील कार्यक्रम का सुझाव दिया।

इसलिये मैंने इस लेख में बलराम नंदा की पुस्तक ‘गांधी और उनके आलोचक’ और अंग्रेजी में प्यारेलाल द्वारा लिखित पुस्तक ‘THE EPIC FAST’ का सहारा लिया। बलराम नंदा की किताब से पन्ना नंबर 31 से 39 तक ‘गांधीजी और जाति-प्रथा’ नाम के संपूर्ण अध्याय को यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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