धर्म व सत्ता द्वारा आदिवासी समाज का शोषण सदियों से होता चला आ रहा है। ये समाज मुख्यधारा के समाज से दूर जंगलों में निवास करता है। इनकी रहन-सहन व संस्कृति अपने ढंग की है। बदलती सभ्यता के दौर में नयी योजनाओं के माध्यम से इनका विकास नहीं हुआ। इसलिए ये लोग कमजोर पड़ते गये। इनके कमजोर होने का का लाभ उठाकर मुख्यधारा के लोगों द्वारा इन पर तरह तरह के अत्याचार और ज़ुल्म किया गया है। कहा जाता है कि 21वीं सदी का युग परिवर्तन का युग है। अब हर वर्ग व समाज अपने अधिकारों को जानने व समझने लगा है तथा विभिन्न पटल पर एवं गोष्ठियों सेमिनारों में थोड़ी बहुत चर्चा, परिचर्चा व विमर्श भी करने लगा है, अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी जान गया है। फिर भी शक्ति व अधिकार के अभाव में आदिवासी समाज अभी हाशिए पर ही हैं। वास्तव में यह देश मूल रूप से आदिवासियों का देश रहा है किंतु आर्य समाज द्वारा इन्हें लगातार सत्ता और अधिकारों से बेदखल किया है। इनके बारे में तमाम प्रकार की गलत अवधारणाएं फैलाकर इनके जल, जंगल व जमीन को छीन कर अपने अधीन कर लिया। जिसके कारण आदिवासियों का पलायन होना शुरू हुआ और अब तक हो रहा है। इनका पलायन होना राष्ट्र के लिए गम्भीर समस्या है।
आदिवासियों के बारे में पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आदिवासी कौन है? आदिवासी दो शब्द आदि और वासी से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है- मूलनिवासी। पुरातन साहित्य में आदिवासियों को अंबिका और बनवासी भी कहा जाता है था। आदिवासियों को भारत में जनजाति रूप में भी जाना जाता है। आदिम समाज में इन्हें अज्ञानी या रूढ़िवादी माना जाता है। गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन कहा था। संविधान के अनुच्छेद 342 के अंतर्गत इन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। इन्हें भौगोलिक व सांस्कृतिक रूप से आम जन-समुदायों से अलग माना गया है, जिनसे घुलने-मिलने में मुख्यधारा के लोग प्रायः संकोच करते हैं। भारतीय वेदों में असुर शब्द का जिक्र है सुरेन अशासित असुरा कह कर उनकी व्याख्या की गई है।
हमारे देश के अधिकांश हिस्सों में आदिवासी ही रहते हैं। ये उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार उत्तराखंड व पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक रूप में तथा मिजोरम, नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में बहुसंख्यक हैं। भारत में उनकी भी अनेक जनजातियां हैं- संथाल, गौड़, भील, मुंडा, टोडा, थारू, नागा, उराव, बुक्सा, बिरहोर, गद्दी, लद्दाख, खासी, खरिया, भाटिया, मीणा आदि। आदिवासियों में मीणा जनजाति सबसे सम्पन्न जनजाति मानी जाती है। मुंडा आदिवासी झारखंड में सबसे प्राचीन जनजाति है।
सरकार, शासन-प्रशासन व ठेकेदारों के द्वारा उन्हें रोजगार देने के नाम पर उनके वनो को काटा जा रहा है। उनके जमीन पर जबरदस्ती अधिकार कर लिया जाता है, उनकी बहन-बेटियों की इज्जत लूट ली जाती है। विरोध करने पर उन्हें नक्सल घोसित करके मार दिया जाता है। यही कारण है कि वे अपना जल, जंगल, जमीन छोड़ने को मजबूर हैं।
आज भी लोग आदिवासियों को असभ्य, अमर्यादित, जाहिल और कुसंस्कारित के रूप में देखते व समझते हैं किंतु व्यवहार में वे ऐसा नहीं है, वे मुख्यधारा के समाज से ज्यादा सभ्य व सुसंस्कृत हैं। यदि सही ढंग से देखा जाए तो उनमें जाहिलपन बिल्कुल नहीं है। यह हमारे विकसित समाज द्वारा उनके बारे में तरह-तरह की फैलाई गयी वितंडावाद हैं। उनका समाज वर्ण, जाति विहीन समतामूलक समाज रहा है। उनके यहाँ ऊँच, नीच व छुआछूत की भावनाएं कभी नहीं रही। किंतु हिंदू समाज के प्रभाव के कारण कुछ मात्रा में यहाँ भी इस प्रकार की विकृतियां आ गयी है। उनका जीवन जितना दूरूह है, अपने व्यवहार में वे उतने ही सरल व सहज हैं। वे स्वभाव से निष्छल होते हैं। उनके इन्हीं व्यवहारों के कारण उन्हें सम्मान व अपनापन देने के बजाय मुख्यधारा के समाज से निरंतर दूर रखा गया है। सामाजिक और राजनीतिक छल के कारण उनका अस्तित्व आज खतरे में है।
पौराणिक काल में असुर आदिवासियों के साथ अनेक छद्म व अलावे किए गए हैं। समुद्र मंथन से चौदह रत्नों में एक अमृत की प्राप्ति हुई थी, जो असुरों के हाथ आयी थी, किंतु मोहिनी वेषधारी विष्णु ने असुरों का हिस्सा अमृत देवताओं को पिला दिया था। देवताओं के राजा इन्द्र ने छल से अहिल्या का बलात्कार किया किंतु उनके इस कुकृत्य की आलोचना करने का साहस किसी में नहीं हुआ। द्रोणाचार्य ने छल से महान धनुर्धर एकलव्य का अंगूठा माँग लिया ताकि किसी आदिवासी को महान धनुर्धर होने का गौरव प्राप्त न हो सके। इस प्रकार का छल-कपट आदिवासियों के साथ आज भी जारी है। सरकार, शासन-प्रशासन व ठेकेदारों के द्वारा उन्हें रोजगार देने के नाम पर उनके वनो को काटा जा रहा है। उनके जमीन पर जबरदस्ती अधिकार कर लिया जाता है, उनकी बहन-बेटियों की इज्जत लूट ली जाती है। विरोध करने पर उन्हें नक्सल घोसित करके मार दिया जाता है। यही कारण है कि वे अपना जल, जंगल, जमीन छोड़ने को मजबूर हैं। रिजर्व वन क्षेत्र में नए कानून के तहत आदिवासियों को वन एवं लकड़ी काटना अपराध घोषित किया गया है। जिनसे उनके रोजगार नष्ट हो गए। पूंजीवादी ताकतों द्वारा आदिवासियों का सदियों से नियमित शोषण किया जाता रहा है। उनके अधिकार व रोजगार छिनने की कवायद लगातार बढ़ती जा रही है। स्वतंत्रता के पहले व बाद में उनके खिलाफ सशक्त कानून बनाकर उनके उपर तरह-तरह के शोषण व अत्याचार हुए हैं। पिछले दस पन्द्रह सालों में लाखों की संख्या में आदिवासियों का वहाँ से पलायन हुआ है, जिसकी चिंता किसी सरकार को नहीं है। कश्मीरी पंडितों के पलायन पर हो-हल्ला मचाने वाले तथाकथित विद्वान, प्रवक्ता व क्रातिकारी लोग आदिवासियों के पलायन पर चुप क्यों हैं? संसद में इनके हक की आवाज क्यों नहीं गुँजती? इनके पलायन पर टीवी चैनलों पर डिवैट क्यों नहीं होतें? इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
गाँव-जवार में डेरा डालकर रहने वाले, शहरों में ओवर ब्रीज के नीचे व रेलपटरियों के आसपास खुले आसमान में रहने वाले लोग पलायन आदिवासी ही हैं। उनका जीवन बद से बदतर हो चुका है। कुछ तो ईट भट्ठों पर काम करते हुए मिल जाते हैं। जिन्हें बहुत कम मेहनताना मिलता है। वे दर दर भटकने को मजबूर हैं। शासन व सत्ता में बैठे लोगों को अपने ए सी कमरे से निकलकर इन्हें देखना होगा।
देश की संस्कृति व कलायें आदिवासियों द्वारा विकसित हुई है। उनके द्वारा आग और पहिए की खोज विकास का मूल आधारभूत ढाँचा है। औजार और वस्त्र बनाने की शुरुआत आदिवासियों के यहाँ से हुई। सिद्धिकारक मंत्रों, उपचारात्मक औषधियों की भी खोज इन्होने ही की। कुल मिलाकर राष्ट्र का स्तंभ आदिवासियों ने तैयार किया। फिर कैसे कह सकते हैं कि वे जाहिल और गंवार हैं।आदिवासियों ने आज तक जो कुछ हासिल किया है, अपने परिश्रम के बल पर हासिल किया है। इन्होंने किसी के बने-बनाये चीजों का नाम बदलकर अपने नाम करने की कोशिश कभी नहीं किया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि झारखंड धातु, खनिज और औद्योगिक दृष्टि से भारत का सबसे समृद्ध राज्य है। देश के समस्त औद्योगिक स्त्रोत का 60% झारखंड में है। देश में लोहा स्पात के सबसे बड़े दो कारखाने बोकारो, और टाटा झारखंड में ही हैं। जबकि आदिवासी बहुल उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले में राउरकेला इस्पात के रूप में मशहूर स्टील अथारिटी ऑफ इंडिया का कारख़ाना है। झारखंड में कोयला और बिजली भी सबसे अधिक पैदा होती है, सम्भवतः 90 प्रतिशत कोयला खादान व और तीन हजार से ज्यादा जल-विद्युत बाँध है किंतु उस पर वहाँ के स्थानीय लोगों का अधिकार नहीं होता। देश को चकाचौंध रोशनी में रखने वाले वहाँ के लोग आज भी अंधेरों में रहते हैं। उपनिवेशी सत्ता ने इनके सारे खजानों को अपने अधीन कर लिया। वहाँ आदिवासियों की हिस्से में न रोटी, कपड़ा, मकान है न कोई अन्य सुविधाएं। उनके हिस्से में अगर कुछ है तो वह है -अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी और विस्थापन। दुर्भाग्य है कि वे अपने ही जल, जंगल, जमीन का उपयोग नहीं कर सकतें। इसलिए आदिवासियों का समाज व परिवार लगातार विखंडित होता जा रहा है।
गाँव-जवार में डेरा डालकर रहने वाले, शहरों में ओवर ब्रीज के नीचे व रेलपटरियों के आसपास खुले आसमान में रहने वाले लोग पलायन आदिवासी ही हैं। उनका जीवन बद से बदतर हो चुका है। कुछ तो ईट भट्ठों पर काम करते हुए मिल जाते हैं। जिन्हें बहुत कम मेहनताना मिलता है। वे दर दर भटकने को मजबूर हैं। शासन व सत्ता में बैठे लोगों को अपने ए सी कमरे से निकलकर इन्हें देखना होगा। इन्हें भूखमरी, गरीबी व जहालत से बाहर निकलना होगा। अगर इन्हें आरक्षण का लाभ देते हुए मुख्य धारा के समाज से जोड़ने का प्रयास नहीं किया गया तो देश के गरीबी और अमीरी की खाईं को कम किया जा सकता, निश्चय ही देश एक दिन पूँजीपतियों का गुलाम बन जायेगा, मध्यम वर्ग के लोग भी निम्न स्तर का जीवन जीने के लिए मजबूर हो जायेगे। आदिवासियों की दुर्दशा तो हो ही रही है।
दीपक शर्मा युवा कवि-कथाकार और अध्यापक हैं।