केंद्रीय बजट में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की हिस्सेदारी (डायरी 2 फरवरी, 2021)

नवल किशोर कुमार

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फैंटेसी किसे अच्छी नहीं लगती है? आदमी का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह फैंटेसी को इंज्वॉय करता है। मैं तो अपनी बात कर रहा हूं। मैं उनमें हूं जिसने अपनी दादी-नानी-मौसी को नहीं देखा। दादी का निधन हालांकि मेरे जन्म के बाद हुआ लेकिन तब मैं इतना छोटा था कि कुछ भी याद नहीं। नानी और मौसी का निधन तो मेरे जन्म के पहले ही हो गया था। मेरा घर पितृसत्तात्मक घर रहा है। बचपन से ही छड़दादा से लेकर दादा तक का नाम बताया जाता रहा है। लेकिन घर की महिला पूर्वजों के नाम बताने की परंपरा ही नहीं थी। इसलिए किसी का नाम भी याद नहीं। एक मौसी का नाम याद है। मेरी मां दो बहनें थीं। मां बताती है कि मौसी उनसे बड़ी थीं और उनका नाम झूना देवी था। मेरी मां का नाम रूना देवी है। तो दो बहनों की जोड़ी थी।
मां भी बचपन में खूब कहानियां सुनाती थी। सुनाती क्या थी, उसे सुनाना पड़ता था। दिन-भर की थकी-मांदी मेरी मां जब सोने को बिस्तर पर आती तब भी मैं उसे कहानियां सुनाने के लिए जिद करता था। काश कि बचपन में इस बात का होश रहता कि मेरी मां थक गयी है और उसे आराम करना चाहिए।
खैर, मां की कहानियों में फैंटेसी हुआ करता था। महलों की कहानी सुनाती तो ऐसा लगता कि हमारा घर भी एक दिन महल के जैसा होगा, जिसमें खूब बड़ा सा दरवाजा होगा। इतना ऊंचा होगा कि पूरे गांव में किसी के पास वैसा घर नहीं होगा। ऐसे ही जब वह उड़नेवाले घोड़े की कहानी कहती तो रात में सपने आते थे कि मैं एक उड़नेवाले घोड़े पर सवार हूं।

अगले 25 साल में भारत की अर्थव्यवस्था कैसी होगी, इसकी तैयारी इस साल के बजट में की गई है। यह महज एक फैंटेसी ही है। ठीक वैसे ही जैसे हमारे देश की इकोनॉमी 5 ट्रिलियन की होगी, की घोषणा हमारे देश के हुक्मरान ने की थी। हालांकि यह पहली बार नहीं है कि हुक्मरान ने भारतीय जनता को बेवकूफ बनाया है। वर्ष 2018 में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वर्ष 2022 में बेरोजगारी दर एकदम न्यूनतम हो जाएगी और हर भारतवासी के पास अपना घर होगा।

 

यह बात केवल मेरी नहीं है। मुझे लगता है कि विश्व के हर कोने में रहनेवाले बच्चे को ऐसी ही कहानियां सुनायी जाती हैं। उन्हें फैंटेसी अच्छी लगती है। लेकिन यही फैंटेसी ताउम्र बनी रहती है। हालांकि उम्र के हिसाब से फैंटेसी के स्वरूप बदल जाते हैं। मसलन, इन दिनों मेरी एक फैंटेसी है कि मैं अपनी प्रेमिका के साथ पहाड़ पर हूं और वहां देवदार के पेड़ हमारे प्यार के साक्षी बन रहे हैं।
मुमकिन है कि उम्र बढ़ने के साथ मेरी फैंटेसी का स्वरूप कोई और होगा।
खैर, मैं यह देख रहा हूं कि हमारे देश के हुक्मरान भी फैंटेसी का उपयोग कर रहे हैं। कल ही देश का बजट पेश किया गया। बजट के बारे में हुक्मरान का कहना है कि यह बजट 25 साल का बजट है। मतलब यह कि अगले 25 साल में भारत की अर्थव्यवस्था कैसी होगी, इसकी तैयारी इस साल के बजट में की गई है। यह महज एक फैंटेसी ही है। ठीक वैसे ही जैसे हमारे देश की इकोनॉमी 5 ट्रिलियन की होगी, की घोषणा हमारे देश के हुक्मरान ने की थी। हालांकि यह पहली बार नहीं है कि हुक्मरान ने भारतीय जनता को बेवकूफ बनाया है। वर्ष 2018 में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वर्ष 2022 में बेरोजगारी दर एकदम न्यूनतम हो जाएगी और हर भारतवासी के पास अपना घर होगा।
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खैर, बजट की बात करते हैं। एकदम स्पष्ट आंकड़ा है। इस साल सरकार ने कुल मिलाकर 39 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का निर्णय लिया है। इसमें से 22 लाख करोड़ रुपए का जुगाड़ तो वह देश के अंदर के संसाधनों से कर लेगी। इसमें विनिवेश के जरिए 78 हजार करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य भी शामिल है। हालांकि पिछले साल यह लक्ष्य पौने दो लाख करोड़ था। सरकार अपने लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रही। करीब 12 लाख करोड़ रुपए वह कर्ज लेगी। इसको यदि आमदनी और खर्च के हिसाब से देखें तो देश की अपनी कुल आय करीब 22 लाख रुपए होगी और खर्च वह करीब 39 लाख करेगी।
अब वह खर्च कहां करेगी, यह भी देखने की आवश्यकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार प्राइमरी सेक्टर है, जिसमें कृषि व प्रकृति प्रदत्त संसाधन हैं। कृषि की बात करें तो किसानों को इस बार ड्रोन टेक्नोलॉजी का लेमनचूस दिया गया है। इसको फैंटेसी ही कहिए। अब भारत के किसानों को कीटनाशकों का आदि का छिड़काव करने के लिए ड्रोन उपलब्ध होंगे। भारत के कितने किसान ऐसे होंगे जो इस सुविधा का लाभ ले सकेंगे। किसानों को खाद-बीज की कीमत में कोई राहत नहीं दी गयी है। यहां तक कि गन्ना किसानों के बकाये के भुगतान को लेकर भी सरकार ने बजट में कोई आवंटन नहीं किया है। यह बकाया तकरीबन 18 हजार करोड़ रुपए है।
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हुक्मरान ने सेकेंडरी सेक्टर और टर्सियरी सेक्टर पर अपना ध्यान फोकस किया है जो बमुश्किल 12 फीसदी रोजगार मुहैया कराता है। इसमें भी सबसे अधिक हिस्सेदारी सड़कों की है। हॉस्पिटल और कॉलेज, विश्वविद्यालय सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं। सरकार का जोर सड़कों के उपर है। रक्षा का बजट लगभग दोगुना बढ़ाकर पांच हजार करोड़ से अधिक कर दिया गया है।
बहरहाल, बजट में बेरोजगारों के लिए कुछ भी नहीं है। हालांकि स्टार्टअप को बढ़ावा देने की बात कही गई है। लेकिन स्टार्टअप के लिए लोन चाहिए और वास्तविकता यह है कि भारतीय बैंक उन्हें ही ऋण देने को तैयार होते हैं, जिनके पास असेट पहले से हो। ऐसे में स्टार्टअप का फायदा उन्हें ही मिलेगा जिनके पास पहले से संपत्तियां हैं। अब यह समझना मुश्किल नही है कि परिसंपत्तियां किनके पास विरासत के रूप में हैं। ये ऊंची जातियों के लोग हैं, जिनके पास जन्मना संसाधनों पर अधिकार है। तो मतलब यह कि सरकार उनके लिए ही फिक्रमंद है। इस देश के 85 फीसदी दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों के लिए इस बजट में कुछ भी नहीं। है तो केवल 25 साल की फैंटेसी। तब तक तो दो पीढ़ियां खप जाएंगीं।
कल एक कविता बजट को देखने के बाद जेहन में आयी थी–
हो बेरोजगार तो क्या हुआ, जुबां पर राम का नाम धर,
दिल्ली में है बैठी हुकूमत, चुपचाप उसका गुणगाण कर।
पेट की आग और गुरबत को तू दरकिनार कर,
साहब अभी बदल रहे कपड़े, तू उनको सलाम कर।
आदमी होकर तू हैवानों के जैसा व्यवहार कर,
गर्व से कहो खुद को हिंदू, और फिर कत्लेआम कर।
अखबारों में देख आंकड़े, दावों पर विश्वास कर,
तू नौजवान है हिंद का, यह काम बस महान कर।
कोई कहे सच तो फिर तू उसका अपमान कर,
खुश रहेगा राजा सदा, उसका तू एहतेराम कर।
हो बेरोजगार तो क्या हुआ, जुबां पर राम का नाम धर,
दिल्ली में है बैठी हुकूमत, चुपचाप उसका गुणगाण कर।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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