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भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक है अदालतों और चुनाव आयोग की ‘चुप्पी’

भारत में आए दिन धर्म की चर्चा बनी रहती है। कभी दशहरा, कभी दीपावली, कभी ईद, कभी बड़ा दिन तो कभी कुछ न कुछ होता ही रहता है। बीते दशहरा के दौरान मेरे कॉलोनी वासियों द्वारा या यूँ कहें कि कॉलोनी के राम-भक्तों द्वारा जाने क्यों राम नहीं, ‘शिव मन्दिर’ की स्थापना हेतु भूमि-पूजन किया […]

भारत में आए दिन धर्म की चर्चा बनी रहती है। कभी दशहरा, कभी दीपावली, कभी ईद, कभी बड़ा दिन तो कभी कुछ न कुछ होता ही रहता है। बीते दशहरा के दौरान मेरे कॉलोनी वासियों द्वारा या यूँ कहें कि कॉलोनी के राम-भक्तों द्वारा जाने क्यों राम नहीं, ‘शिव मन्दिर’ की स्थापना हेतु भूमि-पूजन किया गया। शिव-मन्दिर की स्थापना हेतु नियत भूमि के नजदीक टेंट आदि की व्यवस्था के साथ-साथ शिव के जीवन और उनके कार्य-कलाप की प्रदर्शनी तथा प्रवचन हेतु मंच की व्यवस्था की व्यवस्था की गई थी। भक्ति-संगत गीतों का आधुनिक स्वर-प्रणाली के तहत डीजे की व्यवस्था के जरिए प्रसारण भी जारी था। बीच-बीच में धर्म-वेताओं के द्वारा राम-भक्तों को लाभ प्रदान करने का उपक्रम भी जारी रहा। ऐसे आयोजनों में जो देखने को मिलता है, वह मात्र इतना ही कि शायद धर्म ही एक मात्र ऐसा साधन है, जिसके जरिए एकता, समीपता और सौहार्द्र को जन्म मिलता है। किंतु आयोजकों के दिमाग में यह बात हमेशा घर किए रहती है कि कोई अन्य धर्म का चहेता, उनके धर्म के विपरीत कार्य न कर दे। वह इसलिए कि भारत में मुख्यत: देखा जाता है कि किसी धर्म-विशेष के व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को बड़े ही सम्मान से अपने धार्मिक आयोजनों में आमंत्रित करते हैं। दूसरे धर्म के लोग ऐसे आयोजनों मे शामिल भी होते हैं। किंतु इसका मुख्य कारण अपने आप को उच्चतर समझने मात्र ही होता है।

कहा जाता है कि कोई अन्य व्यक्ति दूसरे के दुख-सुख को समझ तो सकता है, परंतु महसूस करके उसका साथ देने में खुद को असमर्थ पाता है, क्योंकि धर्म उसके आड़े आता है। फलत: ठीक इसी तरह धार्मिक अनुष्ठानों में जो अनुभूति या अभिव्यक्ति अपने धर्म के अनुयाईयों के प्रति होती है, दूसरे धर्मों के अनुयाईयों के प्रति नहीं होती। धर्म के जरिए आपसी सौहार्द्र को जो जगह मिलती है, उसका मुख्य कारण यह है कि धर्म-विशेष के लोग देश के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं। यही कारण है कि किसी भी धर्म-विशेष के लोग एक दूसरे के पड़ोसी होने के नाते, अन्य धर्मों के लोग आपस में संपर्क बनाए रहते हैं। यही आपसी सौहार्द्र को जन्म देता है। परिणाम-स्वरूप प्रत्येक धर्मों के लोग एक दूसरे को अपने-अपने धार्मिक त्योहारों पर खुशियों को बाँटते हैं। दुख के समय दुख और सुख के समय सुख। परंतु जब कभी एक दूसरे पर छींटा-कशी हो जाती है तो सौहार्द्र के स्थान पर अलगाव पैदा हो जाता है। फलत: कभी वह आपस में लड़ बैठते हैं तो कभी बोल-चाल कम कर देते हैं। ‘भिन्नता में एकता’ केवल धार्मिक संदर्भो में सार्थक मानी जा सकती है, किंतु सामाजिक और आर्थिक मामलों कतई नहीं मानी जा सकती।

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अक्सर, ये देखा गया है कि किसी धर्म-विशेष के लोग बहुतायत में संगठित होते हैं तो आवेश में आकर, वे दूसरे धर्म के लोगों से किसी न किसी तरह भिड़ ही जाते हैं। और यह भावना ही देश में साम्प्रदायिक दंगों का रूप ले लेती है। कहना गलत नहीं होगा कि इस तरह के दंगों को तूल देने का कार्य आज की राजनीतिक पार्टियां ही ज्यादा कर रही हैं। धर्म के नाम पर वोट बंटोरने की राजनीति ने ऐसे साम्प्रदायिक दंगों को खूब बढ़ावा दिया है। सत्ता हथियाने के लिए राजनीतिक दलों ने कभी धार्मिक-स्थलों को नुकसान पहुँचाया तो कभी धर्म-विशेष के अनुयाईयों का संहार करवाया। लगता है कि साम्प्रदायिक दंगों को समाप्त करना, तभी संभव हो सकता है, जब धर्म-विशेष के लोग अपने-अपने गुटों में रहने लगें। उदाहरण एक नहीं अनेक हैं। गोरक्षा के नाम पर मॉबलिंचिंग, मंदिर-मस्जिद के नाम पर तेरा-मेरा, कश्मीर घाटी में निरंतर कौमी अराजकता, कभी हाथरस जैसी बलात्कार की घटनाएं, दलितों/ दमितों पर देशभर में जातीय अत्याचार, मणीपुर में महिनों तक नरसंहार आदि-आदि। और तो और भारत के दो भागों में बंटे पाकिस्तान और भारत को, हिन्दू एवं मुस्लिम राज्यों के रूप में जाना जाता है साथ ही जातियों के आधार पर दो अलग-अलग राष्ट्र माने जाते हैं, किंतु दंगे कम जरूर हो गए हैं। किंतु बदले में आतंकवाद को बढ़ावा जरूर मिला है। फिर भी आज की तारीख में भारत और पाकिस्तान के लोग, भारत और अन्य देशों से यहाँ-वहाँ जाकर बसने को आतुर हैं। इसका श्रेय खासकर शहरी क्षेत्रों को जाता है। ग्रामीण बेचारे तो रोटी के चक्र में फंसकर रह गए हैं।

मूल बात तो ये है कि राजनीतिक दल ही साम्प्रदायिक दंगों को पनपाने में अहम भूमिका अदा करते हैं। गौरतलब है कि विभिन्न राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी सेनाएं झंडा-बरदार हैं और सशस्त्र भी, जिनमें आरएसएस को प्रमुख रूप में देखा जा सकता है। आरएसएस नाम तो एक है किंतु बरगद की तरह इसकी अनेक हिंदूवादी सेन्य शाखाएं हैं। आरएसएस समाज और बदलती राजनीति के अनुसार, अपने रूप-रंग बदलता रहता है। वर्तमान में 2024 में होने वाले आमचुनावों में भाजपा को जिताने के लिए हिंदुवादी कट्टरपन को छोडकर सामाजिक सौहार्द्र की बातें करने लगी है। अनुसूचित जातियों/ जनजातियों/ ओबीसी को प्रदत्त आरक्षण का विरोध करने वाली आरएसएस अब आरक्षण के समर्थन में आ खड़ी हुई है। आरएसएस इस प्रकार के बदलते तेवर आरएसएस की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा करती है। यह कोई अच्छा संकेत नहीं है।

पुरातन-भारत के छोटे-छोटे राज्य इस तथ्य का खासा उदाहरण है। ऐसी गतिविधियाँ ठीक वैसी ही हैं, जैसी कभी रजवाड़ों के समय में हुआ करती थीं। आज भारत की केंद्रीय सत्ता की कमोबेश तानाशाही रुख से समाज भाजपा सरकार पर नित नए प्रश्न खड़े कर रही है। यह बिना वजह भी नहीं हैं। पुराने समय में जैसे एक राजा दूसरे राजा पर धाक जमाने के लिए अतिवादी गतिविधियाँ किया करते थे। जिस प्रकार वे नाम कमाने के लिए आपस में भिड़ जाते थे, ठीक वैसा ही तत्कालीन राजनीतिक दलों के बीच भी हो रहा है। भाजपा ने 2014 में सत्ता में आते ही आरएसएस के एजेंडे को कार्य रूप देने का इस तौर काम करना शुरू किया कि वो विपक्ष की हर बात को, चाहे वह ठीक भी हो, नज़र-अंदाज कर देता है। और तो और आज की तारीख में भाजपा सरकार ने 2024 में होने वाले चुनावों जीत हासिल करने के लिए तमाम सरकारी जाँच इकाईयों को विपक्ष के खिलाफ मैदान में उतार दिया है। सच तो यह है कि भाजपा जनहितों को साधने के बदले सत्ता में बने रहने के लिए हर वो काम कर रही जो आम जनता यानी वोटरों की नजर में अपनी साख गिराती जा रही है। मोदी की हठधर्मिता के चलगे उनकी साख तो यहाँ तक गिर गई है कि सामान्य तौर पर यह माना जाने लगा है कि यदि 2024 में भाजपा हार भी जाती है तो मोदी प्रधानमंत्री पद को आसानी से छोड़ने वाले हो सकते हैं।

देखने में तो यह भी आया है कि भाजपा ने अपने दल के दागियों पर तो उंगली उठाई ही नहीं, बल्कि विपक्ष के दागियों को अपनी पार्टी में शामिल करके न केवल पाक-साफ कर दिया अपितु उन्हें अपनी सरकारों में उच्च पदों पर भी आसीन कर दिया। और तो और विपक्ष के I. N. D. I. A. के रूप में एकत्र होते ही भाजपा ने इस कदर शोर मचाया कि ‘इंडिया’ शब्द पर ही बवाल हो गया। भारत को इंडिया कहने पर तरह-तरह के अनर्गल वार्तालाप जनता के सामने परोस दिए गए। किंतु विपक्ष, भाजपा के इस शोर-शराबे के बावजूद अपनी ‘लीक’ पर चलता जा रहा है। यह कैसा लोकतंत्र है? ऐसे में आशंका है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो कहीं लोकशाही पर तानाशाही हावी न हो जाए।

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आम आदमी से यदि ये पूछा जाए कि क्या वह भारत जैसे लोकतंत्र में धार्मिक-गठजोड़ की राजनीति चाहता है, शायद वह सामाजिक स्तर पर जरूरी अवयवों यथा समता, बंधुता, मैत्री और स्वतंत्रता की चाहत के चलते, इस प्रश्न को नकार देगा। किंतु वास्तविकता यह है कि जो भी उसके धार्मिक संगठन या धर्म-गुरु का आदेश होगा, वह वैसा ही करेगा। क्या यहाँ कथनी और करनी में कोई अंतर दिखाई नहीं देता? दरअसल, इसका मुख्य कारण अर्थ (धन) है। आज के समय में कोई भी राजनेता सत्ता इसलिए हासिल करना चाहता है कि वह अपनी आर्थिक हालत को और मजबूत कर सके और जनता के पैसे एशो-आराम कर सकें। वर्तमान सत्तासीन राजनेता इस सत्य के बहुत करीब हैं। इतना ही नहीं समाज में नाम भी हासिल करके युगपुरुष होने का ख्वाब पूरा कर सकें। सारा चक्कर तो धन और नाम का है। इस सोच के चलते भारत की राजनीति में परिवारवाद को खासा बढ़ावा मिला है। आज तो आलम यह है कि प्रत्येक राजनैतिक दल क्षेत्र-विशेष में उसी उम्मीदवार को चुनाव में उतारता है, जिसके क्षेत्र में उसकी जाति या उसके धर्म के ज्यादा-से-ज्यादा मतदाता हों ताकि वह किसी भी तरह सत्ता में आ जाए। हैरत की बात यह है कि सत्ता का सबसे सशक्त स्तम्भ सुप्रीम कोर्ट और भारतीय चुनाव आयोग, इस बारे में कोई आचार-संहिता न बनाने में क्यों मजबूर हैं? राजनैतिक दल जैसा चाह रहे हैं, वैसा कर रहे हैं। भारतीय चुनाव आयोग चुपचाप बैठकर तमाशा देखता रहता है। आखिर क्यों? योग में भी पुलिसिया आचरण आ चुका है। शिकायत आएगी तो कार्रवाई होगी, अन्यथा नहीं। क्या यह लोकतंतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप है?

इससे तो यही लगता है कि भारतीय लोकतंत्र का शासन-प्रशासन केवल मूक-बधिर ही नहीं अन्धा भी है।

 

 

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