बीबीसी हिन्दी (9 फ़रवरी 2021) के हवाले से, क्या ये बेहतर नहीं होगा कि चुनाव के माध्यम से नेता तय करने की जगह राज्य का नेतृत्व करने के लिए किसी अनुभवी व्यक्ति को तलाश किया जाए? ये बात लोकतंत्र का पालना कहे जाने वाले एथेंस के दार्शनिक प्लेटो ने अब से 2400 साल पहले अपनी किताब द रिपब्लिक के छठवें अध्याय में दावा किया था। ये न्याय, मानव स्वभाव, शिक्षा और पुण्य जैसे विषयों पर सबसे पहली और प्रभावशाली किताब है। इस किताब में सरकार और राजनीति को लेकर भी बात की गई है। बातचीत के रूप में लिखी गई इस किताब में सुकरात और प्लेटो एवं उनके दोस्तों के बीच राजसत्ता को लेकर बातचीत है। सारांशत: प्लेटो ने क्यों कहा था, लोकतंत्र से ही तानाशाही जन्म लेती है?
गुरु और शिष्यों के बीच बातचीत में बताया गया है कि एक सरकार, दूसरे से अच्छी क्यों है? इस किताब में डेमोक्रेसी पर उनके विचार में साफ दिखाई देता है – ग्रीक भाषा में लिखा है, ‘लोगों की सरकार, फैसले लेने के मामले में मुफ़ीद नहीं है।’ मित्रों की ये जोड़ी सवाल खड़ा करती है कि यदि आप समुद्र के बीच एक नाव पर हों तो क्या करेंगे? 1 – क्या आप नाव चलाने का तरीका तय करने के लिए एक चुनाव करवाएँगे? अथवा 2 – आप तलाश करेंगे कि नाव पर ऐसा कोई व्यक्ति मौजूद है जो नाव चलाने में माहिर है? जाहिर है कि समझदार व्याक्ति दूसरा विकल्प चुनेगा।इसका अर्थ यह हुआ कि आप मानते हैं कि इस तरह की स्थितियों में विशेषज्ञता अहमियत रखती है। आप नहीं चाहेंगे कि कोई नौसिखिया व्यक्ति जन्म और मरण वाली स्थिति में यह कयास लगाता रहे कि उसे आगे क्या करना है? उनका मानना रहा है कि डेमोक्रेसी में लोगों द्वारा चुनी गई सरकार फैसले लेने के मामले में मुफ़ीद नहीं होती है।
लोकतंत्र में किसी नेता के लिए मतदान करना उन्हें काफ़ी जोखिम भरा होता है, क्योंकि उनके मुताबिक़ मतदाता अप्रासंगिक बातों जैसे कि उम्मीदवार के रूपरंग, जाति, समुदाय, राजनीतिक दल विशेष आदि से प्रभावित हो सकते हैं। उन्हें ये एहसास नहीं रहेगा कि शासन करने से लेकर सरकार चलाने के लिए योग्यता की ज़रूरत होती है।
बीबीसी की हिस्ट्री ऑफ़ आइडियाज़ सिरीज़ में दार्शनिक नाइजल वारबर्टन बताते हैं, ‘प्लेटो सत्ता के शीर्ष पर जिन विशेषज्ञों को चाहते थे, वे विशेष रूप से प्रशिक्षित दार्शनिक होने चाहिए। उन्हें उनकी ईमानदारी, वास्तविकता की गहरी समझ (आम लोगों से कहीं ज़्यादा) के आधार पर चुना जाना चाहिए।’ किंतु लोकतंत्र में ऐसा होता नहीं है। ज्यादातर मतदाता अपना नेता चुनते समय उम्मीदवार के रूपरंग, जाति, समुदाय, राजनीतिक दल विशेष आदि को नहीं भुला पाते। फिर होता यह है कि लोकतंत्र में धीरे-धीरे सत्ता का स्वरूप बदलता जाता है और लोकतंत्र में तानाशाही पनपने लगती है। इस तरह की सरकार का स्वरूप अभिजात्य वर्ग का शासन कायम हो जाने का डर बना रहता है। फिर होता यह है कि सत्ता जनता की हितों को साधने और ‘बेहतरीन लोगों की सरकार’ चुनने में बेअसर होती चली जाती है। उल्टा होता यह है कि सत्ताधारी पक्ष सता में आने के तुरंत बाद अगले चुनाव को जीतने और अपनी पूरी ज़िंदगी नेता बनने के लिए तैयारी करने में व्यस्त रहते हैं। सत्ता गणतंत्र को चलाने की ज़िम्मेदारी को सार्थक रूप से निभा पाती और समाज के लिए बुद्धिमतापूर्ण फ़ैसले नहीं ले पाती। यदि जनता के हक में कुछ निर्णय लिए भी जाते हैं, तो अपने आपको सत्ता में बनाए रखने के भाव से लिए जाते हैं। परिणामत: आदर्श समाज हमेशा पतन की कगार पर खड़ा रहता है।
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पोर्टर कहती हैं, ‘उन्होंने आशंका जताई कि पढ़े-लिखे और बुद्धिमान लोगों के बच्चे आख़िरकार आराम एवं विशेषाधिकारों की वजह से भ्रष्ट हो जाएंगे। इसके बाद वे सिर्फ अपनी संपत्ति के बारे में सोचेंगे, जिससे डेमोक्रेसी एक सीमित लोगों में निहित सत्ता वाला शासन (ओलिगार्की) में तब्दील हो जाएगी। ग्रीक में इसका मतलब ‘कुछ लोगों का शासन’ होता है।’ इस प्रकार के शासन में ये अमीर और क्षुद्र शासक बजट के संतुलन को लेकर परेशान रहेंगे। इससे बचत करने पर ज़ोर होगा और असमानता बढ़ेगी। प्लेटो लिखते हैं, ‘जैसे-जैसे अमीर और अमीर होता जाएगा, वैसे-वैसे वह और दौलत बनाने पर विचार करेगा, मूल्यों के बारे में कम सोचेगा। जैसे-जैसे असमानता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे अशिक्षित ग़रीबों की संख्या अमीरों की संख्या के मुकाबले बढ़ने लगती है। इस तर्क से वो लोग कुछ असहज महसूस कर सकते हैं, जो लोकतंत्र की तारीफ़ सुनने के अभ्यस्त हैं। सिर्फ इतना ही नहीं अपितु लोकतंत्र ‘अराजकता के एक सुखद रूप बदल जाता है।’ और डेमोक्रेसी यानी लोगों का शासन निरंकुशता का पर्याय बन जाता है। सत्ता पक्ष इतना निरंकुश हो जाता है कि विपक्ष के खात्में की सोच से लबरेज हो जाता है। और तो और सत्ता पक्ष सरकारी तंत्र को अपने निजी राजनीतिक हितों को साधने के काम में लगाने लग जाता है। अत: इसकी वजह यह है कि जब लोग संपत्ति हासिल करने के लिए एक अंधी दौड़ में लग जाते हैं, तो समाज में समानता की माँग उठने लगती है और समानता की एक भूख पैदा होने लगती है। इसी तरह तृप्त न होने वाली आज़ादी की प्यास जनता में भी एक निरंकुशता आग भरने की मांग पैदा करती है।
यह एक ऐसा विचार है, जिसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल है। बात यह है कि जब लोगों को आज़ादी मिलती है तो वे और ज़्यादा आज़ादी चाहते हैं। अगर हर कीमत पर आज़ादी पाना लक्ष्य है तो आज़ादी की अधिकता गुटों और मत-भिन्नता को जन्म देती है। इनमें से ज़्यादातर तत्वों को संकीर्ण हितों की वजह से कुछ दिखाई नहीं देता।
ऐसे में जो भी नेता बनना चाहेगा, उसे इन गुटों को संतुष्ट करना पड़ेगा। इनकी भावनाओं का ध्यान रखना पड़ता है और ये किसी भी तानाशाह के फलने-फूलने के लिए मुफीद स्थिति है, क्योंकि वह लोकतंत्र पर नियंत्रण करने के लिए जनता को भ्रमित करता है।
यही नहीं, असीम आज़ादी एक तरह से उन्मादी भीड़ को जन्म देती है। ऐसा होने पर लोगों का शासक में भरोसा कम होता है। लोग परेशान होने लगते हैं। और उस शख़्स को अपना समर्थन देते हैं, जो कि उनके डरों को दूर करता है और स्वयं को उनके रक्षक के रूप में पेश करता है।
यथोक्त के आलोक में गंभीरता से देखा जाए तो आज हमारे लोकतंत्र की स्वायत्तता तानाशाही में बदलता जा रही है। सरकार पर किसी का कोई अंकुश नहीं रह गया है। सरकार बिना पगाह के बैल की तरह आरचरण करने में लगी है। स्वतंत्र कहे जाने वाली तमाम सरकारी ईकाइयां सरकार के इशारे पर केवल और केवल विपक्ष के नेताओं पर ही दण्डात्मक कार्यवाही करने पर उतारू रहती हैं। हाँ! अपवाद स्वरूप सत्ता पक्ष के नेताओं पर भी एक-दो केस दायर कर विपक्ष के इस आरोप को नकारने का असफल प्रयास करती है कि सरकार की ईडी, सीबीआई, आयकर जैसे आदि विभाग सत्तापक्ष पर भी नजर रखते हैं।
उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों में जांच एजेंसी ईडी ने लगातार सक्रियता दिखाई है। वह एक के बाद एक कई छापेमारी रही है और गिरफ्तारियां भी। हालांकि ईडी के निशाने पर लगभग सारे विपक्षी नेता और राजनीतिक दल ही रहे। इसी वजह से इस मुद्दे पर राजनीति तेज हो गई। विपक्षी दल ईडी को सरकार और बीजेपी का टूल बताने लगे हैं। सरकार ईडी को स्वतंत्र एजेंसी बताकर उसके कदमों को डिफेंड तो कर रही है, लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि ईडी की ओर से की गई कार्रवाई में बाढ़-सी आ गई हैं।
सरकार और बीजेपी विपक्षी दलों के नेताओं पर कसते ईडी के शिकंजे को करप्शन के खिलाफ बड़ी कार्रवाई के रूप में प्रॉजेक्ट कर रही है। वहीं, विपक्षी दल इस मसले पर जनता की सहानुभूति लेने की कोशिश कर रहे हैं। विपक्ष इसे अपने नेताओं को परेशान करने या विपक्ष शासित राज्य को अस्थिर करने की साजिश का हिस्सा बता रहा है। कुल मिलाकर संकेत साफ हैं कि आने वाले समय में ईडी की तमाम कार्रवाई अगले आम चुनाव में बड़ा मुद्दा बन सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही रहेगा कि क्या चुनावों में भ्रष्टाचार निर्णायक मुद्दा बन सकता है? इसका परिणाम क्या होगा या जनमानस पर इसका असर क्या होगा? इस मामले में अब तक के ट्रेंड विरोधाभासों से भरे रहे हैं।
2014 के बाद विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी के मामलों में 4 गुना उछाल पाकर, 95 फीसदी का आंकड़ा छू गया है। ईडी की केसबुक में विपक्षी राजनेताओं और उनके करीबी रिश्तेदारों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी देखी गई है। विपक्षी नेता भी लगातार इसे लेकर आवाज उठाते रहे हैं।
तानाशाही, सरकार का वह रूप है, जिसमें एक व्यक्ति या एक छोटे समूह के पास प्रभावी संवैधानिक सीमाओं के बिना पूर्ण शक्ति होती है। तानाशाही शब्द लैटिन शीर्षक तानाशाह से आया है, जो रोमन गणराज्य में एक अस्थायी मजिस्ट्रेट को नामित करता था, जिसे राज्य संकटों से निपटने के लिए असाधारण शक्तियां प्रदान की जाती थीं। हालांकि, आधुनिक तानाशाह प्राचीन तानाशाहों के बजाय उनसे मिलते-जुलते हैं। ग्रीस और सिसिली के अत्याचारों के बारे में प्राचीन दार्शनिकों के वर्णन आधुनिक तानाशाही को चित्रित करने की दिशा में बहुत आगे जाते हैं। तानाशाह आमतौर पर निरंकुश राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए बल या धोखाधड़ी का सहारा लेते हैं, जिसे वे धमकी, आतंक और बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता के दमन के माध्यम से बनाए रखते हैं। वे अपने सार्वजनिक समर्थन को बनाए रखने के लिए बड़े पैमाने पर प्रचार की तकनीकों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
19वीं और 20वीं शताब्दी में वंशानुगत वंश पर आधारित राजतंत्रों के पतन और लुप्त होने के साथ, तानाशाही दुनिया भर के देशों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली सरकार के दो प्रमुख रूपों में से एक बन गई, दूसरा संवैधानिक लोकतंत्र था। तानाशाहों के शासन ने कई अलग-अलग रूप ले लिए हैं। 19वीं सदी में लैटिन अमेरिका में, हाल ही में स्पेनिश औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए नए देशों में प्रभावी केंद्रीय सत्ता के पतन के बाद विभिन्न तानाशाहों का उदय हुआ। इनकॉडिलोस या स्व-घोषित नेता, आमतौर पर एक निजी सेना का नेतृत्व करते थे और एक कमजोर राष्ट्रीय सरकार पर चढ़ाई करने से पहले एक क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश करते थे। मेक्सिको में एंटोनियो लोपेज़ डी. सांता अन्ना और अर्जेंटीना में जुआन मैनुअल डी रोज़ास, ऐसे नेताओं के उदाहरण हैं। (व्यक्तिवाद देखें।) बाद में लैटिन अमेरिका में 20वीं सदी के तानाशाह अलग थे। वे प्रांतीय नेताओं के बजाय राष्ट्रीय थे और अक्सर राष्ट्रवादी सैन्य अधिकारियों द्वारा उन्हें सत्ता की स्थिति में रखा जाता था। वे आमतौर पर खुद को एक विशेष सामाजिक वर्ग के साथ जोड़ते थे और या तो अमीर या विशेषाधिकार प्राप्त अभिजात वर्ग के हितों को बनाए रखने या दूरगामी वामपंथी सामाजिक सुधारों को स्थापित करने का प्रयास करते थे।
उल्लेखनीय है कि 4 साल में मॉब लिंचिंग के 134 मामले मे शिकार लोगों में से 50% मुस्लिम समुदाय के हुए हैं। मॉब लिंचिंग करने वाली भीड़ को इकट्ठा कौन करता है? उन्हें उकसाता-भड़काता कौन है? कहते हैं कि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती। उनका कोई दीन-धर्म नहीं होता और इसी बात का फायदा हमेशा मॉब लिंचिंग करने वाली भीड़ उठाती है। पर सवाल यह है कि मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच बीते पाँच महीनों से जारी हिंसक संघर्ष के बीच गत दिनों मणिपुर की दो महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न का एक भयावह वीडियो सामने आया है।
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पश्चिम एशिया संकट के बीच और मुसीबत में दमित फिलिस्तीनी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब संसद के मानसून सत्र से पहले मीडिया से बात करने आए तो उन्होंने भी मणिपुर की घटना का ज़िक्र करते हुए केवल कहा कि उनका हृदय पीड़ा से भरा हुआ है। लेकिन मणीपुर का दौरा आज तक नहीं किया। पीएम मोदी ने आगे कहा कि देश की बेइज्जती हो रही है, दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा। यह पहली बार था कि जब प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर में जारी हिंसा पर कुछ कहा। विपक्ष मणिपुर पर पीएम मोदी के न बोलने को लेकर लंबे समय से सवाल उठा रहा था।
कहने को तो आरएसएस की विचारधारा भारतीय संस्कृति और नागरिक समाज के मूल्यों को बनाए रखने के आदर्शों को बढ़ावा देना है और बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को ‘मजबूत’ करने के लिए हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करता है। सारांशत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसे संघ के नाम से भी जाना जाता है, भारत में एक दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी, अर्धसैनिक, स्वयंसेवक और कथित रूप से उग्रवादी संगठन है। प्रारंभिक तौर पर आरएसएस कोई राजनीतिक संस्था नहीं है, किंतु आम चुनाव 2024 में भाजपा के गिरते राजनीतिक ग्राफ के चलते खुलकर भाजपा के समर्थन में उतर आई है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चीफ मोहन भागवत ने विजयादशमी के अवसर पर नागपुर की रैली में अपने भाषण में संघ के मुस्लिमों के बीच पहुंच बढ़ाने की कोशिश का भी जिक्र करते हुए बड़ा संदेश देने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि आखिर एक ही देश में रहने वाले इतने पराये कैसे हो गए? संघ प्रमुख का इशारा मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधियों से मुलाकात को लेकर स्वयंसेवकों की तरफ से उठ रहे सवालों की तरफ था। भागवत ने कहा कि ‘अविवेक और असंतुलन नहीं होना चाहिए। अपना दिमाग ठंडा रखकर सबको अपना मानकर चलना पड़ेगा।’ उन्होंने कहा कि ‘चुनावों में हमें सतर्क रहना है और किसी के बहकावे में आकर मतदान नहीं करना है। बेहतर कौन है, उसे ही वोट देना है।’ संघ प्रमुख ने कहा, ‘यह मानिसकता सही नहीं है कि उनकी वजह से हमें नहीं मिल रहा है या उनकी वजह से हम पर अन्याय हो रहा है। उन्होंने कहा कि ‘विक्टिम हुड की मानसिकता से काम नहीं चलेगा। कोई विक्टिम नहीं है, उन्होंने कहा कि ‘वे कहते हैं, मुझे किसी बस्ती में घर नहीं मिलता, इसलिए अपनी बस्ती में ही रहना होता है। एक ही देश में रहने वाले लोग इतने पराये हो गए? माना जा रहा है कि इस बयान के जरिए भागवत ने पीएम मोदी के मुसलमानों के बीच पहुंच बढ़ाने के कार्यक्रम को हरी झंडी दे दी है।
अफसोसनाक सत्य है कि भाजपा सरकार आम चुनाव 2024 को जीतने के लिए तमाम प्रशासनिक अधिकारियों और फौजी अफसरों का राजनीतिक प्रयोग करने में नहीं हिचक रही है। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के कुकृत्य पर कोई एक्शन लेने में मजबूर दिख रही है। क्या सरकार के इस तरह के प्रयोग तानाशाही की ओर बढ़ते कदम के रूप में नहीं देखे जाने चाहिए?