Thursday, March 28, 2024
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कोरोनाकाल और युवाओं के भविष्य पर अनिश्चितता की तलवार

इन तमाम समस्याओं को खत्म करने के लिए बहुत जरूरी है कि हम अपनी सोच में परिवर्तन लाएँ, यदि बचपन से ही बच्चों को यह सिखाया और दिखाया जाता कि घर के काम करना सिर्फ महिलाओं और लड़कियों का नहीं हैं बल्कि लड़के भी खाना बना सकते हैं उनकी रोटी भी गोल और मुलायम हो सकती है, बाहर कमाना सिर्फ लड़कों का ही काम नहीं हैं महिलाएं भी बाहर जा कर काम कर सकती हैं।

 हमारे देश में किसी को परमानेंट सरकारी नौकरी मिलना ऐसा है जैसे हीरे की खान हाथ लग जाना । देश में बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी से जूझ रहे युवा वर्ग का एक लंबा समय प्रतियोगी परीक्षाओं का फार्म भरने, तैयारी करने और परीक्षा, इंटरव्यू के इंतजार में निकल जाता है। प्रतियोगी परीक्षाओं को समय पर पूरा करना हमेशा से ही देश की शासन व्यवस्था के लिए चुनौतियों भरा रहा है ये समय पर तभी संभव हो पाता है जब चुनाव नजदीक हों, छात्रों की तैयारी भी चुनावी तैयारी के साथ तेज हो जाती है, उनका अनुभव और अनुमान उनको ऐसा करने पर मजबूर करता है । एक मध्यम वर्गीय परिवार के लड़के लड़कियों को प्रयागराज, दिल्ली, कोटा जैसी जगहों में जाकर रहना और बहुत ही सीमित संसाधनों में घंटों किताबों में खोया हुआ देखा जा सकता है और उनकी उम्र का एक लंबा समय ऐसे ही किताबों को रटने और तैयारी करने में चला जाता हैं। इसमें भी यदि हम लड़कियों को घर से बाहर जाकर तैयारी करते हुए देखें तो लड़कों की तुलना में उनको घर से दूर जाकर परीक्षा की तैयारी करने का अवसर बहुत ही कम मिलता है । जिसके कारणों से आप भलीभाती परिचित होंगे। लड़की बाहर रहकर तैयारी करती है ये सुनने में ही हमारे समाज में थोड़ा अटपटा लगता है ।

कोविड 19 के बाद से तो अब ये शहर छात्रों के इंतजार में है । बहुत से छात्र शहर छोडकर अपने गाँव घर चले गए, और दुबारा अभी तक वापिस आने की स्थित में नहीं हो पाए, कारण कोरोना के समय में उन सभी परिवार की आर्थिक स्थिति का डगमगा जाना है। कोरोना ने लगभग सभी व्यक्ति को आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक  आघात पहुँचाया है।

किधर जाएँ क्या करें !

ऐसे बहुत सारे युवा हैं जिनके सपने अब धीरे-धीरे कर कहीं गुम हो रहें हैं। आईएएस, पीसीएस, डॉक्टर, प्रोफेसर बनने के सपने देखने वाले युवा आज रात-दिन एक करके बस ये प्रयास कर रहें हैं कि कैसे भी करके उनको एक ऐसी नौकरी मिल जाए जिससे उनका और उनके परिवार की बेसिक जरूरतें पूरी की जा सकें। इसके साथ ही एक और चुनौती है जो युवा लड़के लड़कियों के सामने है और वो है विवाह की चुनौती, पिछले दो वर्ष से घर बैठने के बाद अब ज्यादातर युवा  लड़के-लड़कियों का कहना हैं कि उन पर शादी का दबाव हैं।  30 की उम्र पार कर चुके लड़के और लड़की के परिवार, रिश्तेदार  के लिए तो अब यही उद्देश्य है कि कैसे भी करके उनके बच्चे की शादी हो जाए । ऐसे में बहुत से लड़की लड़कों के सामने समस्या हैं कि उनके पास नौकरी नहीं हो पाने की वजह से उनकी पसंद के व्यक्ति के साथ शादी नहीं हो पा रही हैं । बहुत सी लड़कियां जो घर से बाहर रहकर पढ़ती थी या नौकरी करने कुछ बनने के सपने देखती थीं, उनको अब ये बात सता रही हैं कि बिना नौकरी के शादी कैसे कर लें? क्योंकि ज़्यादातर लड़कियों मानना है कि शादी के बाद लड़कियों को करियर बनाने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है क्योंकि शादी के बाद ऐसी बहुत सी जिम्मेदारियाँ उन पर संस्कार और आदर्श बहू के नाम पर थोप दी जाती हैं जिसे पूरा करते-करते वो खुद को ही भूल जाती हैं की अपने जीवन में वह क्या चाहती थी?उनके सपने क्या थे?  उन्हे दुबारा मौका बहुत कम ही मिलता है । क्योंकि लड़कियों को नौकरी करने के सपने ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं माने जाते हालांकि अब ये सोच कुछ हद तक टूट भी रही है बढ़ती महंगाई और खर्चे को देखते हुए अब लड़कियों को भी नौकरी करना जरूरी समझा जा रहा है लेकिन शादी के बाद दोहरी जिम्मेदारियों संभालते हुए नौकरी करने के सपने को पूरा करना उनको असंभव सा लगता है यदि पार्टनर और परिवार अच्छा मिल गया तब तो कुछ हद तक वह भी अपने सपने पूरे कर सकती हैं लेकिन यह तो शादी के बाद ही पता चलता है ।

वहीं लड़कों की चिंता है कि यदि नौकरी नहीं मिली तो घर परिवार का खर्च कैसे चलेगा उनकी शादी कैसे होगी । बेरोजगार लड़के से बेरोजगार लड़की भी शादी नहीं करना चाहती है ऐसा इस लिए कि हमारे समाज में पुरुषों को यह बचपन से ही यह सिखाया और दिखाया जाता है कि वह मर्द हैं और मर्द ही घर के आर्थिक बोझ को उठाता है। ऐसे में बेरोजगार युवक से भला कौन माँ-बाप अपनी बेटी की शादी करना चाहेंगे । लड़कियों को भी यह लगता है कि बेरोजगार लड़का उनकी जिम्मेदारियाँ और उनके शौख को कैसे पूरा करेगा क्योंकि बह भी बचपन से यदि देखती और सुनती आती हैं कि पत्नी बच्चों की आर्थिक ज़िम्मेदारी उठाना पति का कर्तव्य है ।

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दूसरी तरफ यदि लड़का पढ़लिख कर कुछ बन जाता है तो परिवार वाले एक ऐसी लड़की ढूंढ निकालते हैं जो कमाती भी हो और जहां से दहेज भी मिल जाए और फिर अच्छी ख़ासी दहेज लेकर उसकी शादी कर देते हैं और उस वक्त वह लड़का जो अपने कॉलेज दोस्तों के बीच अपने प्रोग्रेसिव विचारधारा के लिए पहचाना जाता था वह भी यह कहकर दहेज जैसी प्रथा पर कुछ भी बोलने से परहेज करता हैं कि यह बड़े लोगों के बीच की बात है और वह इसमें कुछ भी नहीं बोल सकता ।  वह जो भी सोच रहें है और कर रहें हैं सबकी  भलाई के लिए कर रहें हैं । दूसरी तरफ बहुत बार लड़कियां भी दहेज मांगने वालों के खिलाफ आवाज नहीं उठाती हैं क्योंकि उनको यह लगता है कि अपने परिवार से संपत्ति के रूप में वह थोड़ा बहुत उनको दहेज के माध्यम से मिलता है तो क्या गलत हैं।  हालांकि बहुत सारी शादियों में यह दहेज का पैसा लड़की के नाम से दिया जाता है बावजूद इसके इसमें से एक भी पैसा लड़की खुद की मर्जी से खर्च नहीं कर पाती है।

सरकार के खेल और बढ़ता हुआ तनाव

तो सवाल यह है कि ये जितनी भी समस्याएँ है चाहे वह बेरोजगारी की हो, लड़के लड़कियों के शादी-ब्याह की हो, नौकरी करती लड़की के ऊपर काम और घर के दोहरी ज़िम्मेदारी की हो, बेरोजगार युवक से शादी करने की हो या फिर पढ़ने- लिखने के बाद भी दहेज लेने और देने की हो । क्या हम इस सब इन समस्याओं को खत्म करने के बारे में सीरियस हैं? और यदि हैं तो फिर ये समस्याएँ जस की तस क्यों बनी हुई हैं।

हमारी सरकार यदि बेरोजगारी को दूर करने के लिए सिर्फ नौकरियों की घोषणाएँ और वादे करने के बजाय उन वादों को पूरा करने की दिशा में भी कदम उठाती, सभी परीक्षाएँ समय पर करवाती, रिजल्ट समय पर देती और ज्वाइनिंग समय पर करवाती, शिक्षा व्यवस्था को रोजगारपरक बनाने का प्रयास करती तब भी कुछ हद तक स्थिति बदल सकती थी । एक-एक फॉर्म भरने के बाद दो-दो साल तक परीक्षा का लंबा इंतजार, युवाओं को तनाव की तरफ ले जाता है ।

इन तमाम समस्याओं को खत्म करने के लिए बहुत जरूरी है कि हम अपनी सोच में परिवर्तन लाएँ, यदि बचपन से ही बच्चों को यह सिखाया और दिखाया जाता कि घर के काम करना सिर्फ महिलाओं और लड़कियों का नहीं हैं बल्कि लड़के भी खाना बना सकते हैं उनकी रोटी भी गोल और मुलायम हो सकती है, बाहर कमाना सिर्फ लड़कों का ही काम नहीं हैं महिलाएं भी बाहर जा कर काम कर सकती हैं। उनके पति भी घर पर रहकर बच्चों को पाल सकते है परिवार कि देखरेख कर सकते हैं घर और बाहर का हर काम ऐसे होता की आदमी और औरत के कामों का फर्क करना मुश्किल हो जाता दोनों ही एक दूसरे के साथी, सहयोगी बनकर काम को करते न की अपने हिस्से का काम समझकर प्रेशर में करते ।

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लड़कियों की दहेज में दिए जाने वाले धन को उनके हिस्से की संपत्ति कह कर देने के बजाय ये सोच अपनाते कि, लड़कियों को उनके पिता के संपत्ति में अधिकार देते उन्हे यह एहसास कराते की  बेटी तुम पराया धन नहीं हो यह तुम्हारा घर है और इस घर पर तुम्हारा भी अधिकार है। ससुराल में किसी भी प्रकार की समस्या होने या जब भी तुम्हारा मन हो तुम पूरे हक से अपने मायके में आकर रह सकती हो और पढे-लिखे लड़के खुद दहेज लेने से मना करते तो दहेज के नाम पर बहुओं पर प्रताड़नाएँ और हत्याएँ नहीं होती । लड़के लड़कियों के शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ नौकरी और शादी तक ही सीमित न होकर उस शिक्षा और ज्ञान का उपयोग व्यावहारिक जीवन में, समाज में नई क्रांति नए बदलाव लाने की दिशा में भी होनी चाहिए । जिस दिन हम अपने सोच में थोड़ा सकारात्मक परिवर्तन ला पाए उस दिन निश्चय ही हमारी स्थितियाँ भी बदलेंगी ।

   

डॉ राजलक्ष्मी चैतन्य
डॉ राजलक्ष्मी चैतन्य वाइज़ की धमतरी जिला समन्वयक और जेंडर एक्सपर्ट हैं   

4 COMMENTS

  1. बहुत शानदार लेख।
    युवाओं के लिए रोजगार वास्तव में बड़ी समस्या है। उसके रोजगार को देखते हुए उसके लिए रिश्ते तय होते हैं। कोरोनाकखल में ये समस्या और भी ज्यादा विकट हो गयी है।

  2. समान्य परिवार की जो अपने बच्चों के बारे में जो सोच है और शिक्षा का उद्देश्य बहुत बेहतर ढंग से समझाया गया है।

  3. वर्तमान समस्या का सूक्ष्म और अध्ययनात्मक विश्लेषण

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