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बिहार : गांव को कुपोषण मुक्त बनाने के लिए मजबूत पहल की जरूरत

ग्रामीण क्षेत्रों में भी कुपोषण की समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। हालांकि केंद्र और राज्य सरकार इस दिशा में काफी गंभीर प्रयास कर रही है। लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की समस्या नज़र आती है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के छठे दौर के सर्वे का काम शुरू हो गया है. इसे केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर कराया जाता है। इसके माध्यम से देश की जनसंख्या, परिवार नियोजन, बाल और मातृत्व स्वास्थ्य, पोषण, वयस्क स्वास्थ्य और घरेलू हिंसा इत्यादि से संबंधित मुख्य संकेतकों का आकलन किया जाता है। केंद्र सरकार की ओर से कराये जाने वाला यह सर्वेक्षण देश में स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति को समझने में सहायक सिद्ध होता है। दरअसल आज भी हमारे देश में में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में इसका आंकड़ा ज्यादा नजर आता है। इसकी प्रमुख वजह कमज़ोर आर्थिक स्थिति मानी जा सकती है। जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली किशोरियों और महिलाओं को पोषणयुक्त आहार उपलब्ध नहीं हो पाता है।  इसका प्रभाव बच्चों के स्वास्थ्य पर भी नज़र आता है।

बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में भी कुपोषण की समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। हालांकि केंद्र और राज्य सरकार इस दिशा में काफी गंभीर प्रयास कर रही है। लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की समस्या नज़र आती है। ऐसा ही एक गांव गया का कैशापी पुरानी डिह है। जिला मुख्यालय से 32 किमी और डोभी प्रखंड से करीब 5 किमी दूर इस गांव की कई महिलाएं, किशोरियां और बच्चे कुपोषण की समस्या से जूझते नज़र आ जायेंगे। इस संबंध में 28 वर्षीय मालती पासवान बताती हैं कि उनके चार बच्चे हैं। पति खलासी (कंडक्टर) का काम करते हैं। आमदनी इतनी नहीं है कि घर में सभी के लिए पौष्टिक आहार उपलब्ध हो सके। इसलिए अक्सर वह और बच्चे कई प्रकार की बीमारियों का शिकार रहते हैं। एक अन्य महिला 32 वर्षीय विमला कहती हैं कि गर्भवती महिलाओं को आंगनबाड़ी से पौष्टिक आहार उपलब्ध हो जाता है। जिससे इस दौरान उनकी सेहत अच्छी रहती है। लेकिन अन्य दिनों में घर में अनाज की व्यवस्था करना कठिन काम होता है।

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पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जाति बहुल कैशापी पुरानी डिह गांव में 633 परिवार आबाद हैं। जिनकी कुल आबादी लगभग 3900 है।  इनमें करीब 1600 अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग परिवार रहता है। गांव में पासवान और महतो समुदायों की संख्या अधिक है। ज़्यादातर परिवार के पुरुष नोएडा, सूरत, कोलकाता और अमृतसर जैसे शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में दैनिक मज़दूर के रूप में काम करने जाते हैं। कुछ मकान उच्च जाति के लोगों की है, जो आर्थिक रूप से संपन्न होने के कारण बड़े पैमाने पर कृषि कार्यों से जुड़े हुए हैं। यहां के 48 वर्षीय पूरन महतो बताते हैं कि आर्थिक रूप से कैशापी पुरानी डिह के लोग बहुत कमज़ोर हैं। आय के साधन सीमित हैं। ऐसे में बच्चों, महिलाओं व किशोरियों के लिए पोषण युक्त खाने की व्यवस्था करना परिवार के लिए संभव नहीं है। आमदनी इतनी ही होती है कि किसी प्रकार परिवार का गुज़र बसर हो जाए। वह कहते हैं कि सरकार की ओर से आंगनबाड़ी और स्कूल में मिलने वाले मध्यान भोजन (मिड डे मील) की सुविधा के कारण बहुत से घरों के बच्चों को अच्छा भोजन उपलब्ध हो पाता है। 7वीं में पढ़ने वाली 12 वर्षीय किशोरी पूजा बताती है कि वह अपने भाई-बहन के साथ प्रतिदिन स्कूल इसीलिए जाती है क्योंकि वहां दोपहर खाने के लिए अच्छा भोजन मिलता है।

गांव में संचालित आंगनबाड़ी केंद्र की संचालिका आशा देवी बताती हैं कि कैशापी पुरानी डिह गांव के लगभग सभी परिवार की महिलाएं, बच्चे और किशोरियां कुपोषण से ग्रसित नज़र आएंगी। इसकी प्रमुख वजह उनका आर्थिक रूप से कमज़ोर होना है। ज़्यादातर परिवार की आमदनी इतनी ही है कि उनका किसी प्रकार गुज़ारा चलता है। पोषण की कमी के कारण महिलाओं में खून की कमी पाई जाती है। जिससे उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है और वह कई बीमारियों का शिकार हो जाती हैं। पर्याप्त संतुलित आहार की कमी के कारण किशोरियों में भी खून की कमी होती है।  जिससे उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आशा देवी बताती है कि पहले की अपेक्षा अब गांव में कम उम्र में ही लड़कियों की शादी लगभग समाप्त हो गई है लेकिन दो बच्चों के बीच अंतराल की समस्या गहरी है। पौष्टिक आहार की कमी और जल्दी जल्दी गर्भधारण के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य पर सबसे अधिक असर पड़ता है।  कई बार प्रसव के दौरान खून की कमी के कारण महिला की मौत भी हो जाती है।

आशा देवी कुपोषण के कारणों पर बात करते हुए बताती हैं कि जिस व्यक्ति के शरीर में प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन और विटामिन की कमियां होती हैं उसे कुपोषण की श्रेणी में रखा जाता है। इसकी वजह जहां गांव में गरीबी और रोज़गार की कमी है। वहीं घर का अच्छा खाना पुरुषों को देने की सामाजिक और पारंपरिक प्रचलन से भी महिलाओं के हिस्से में नाममात्र के पौष्टिक आहार उपलब्ध हो पाते हैं। वह कहती हैं कि गर्भवती महिलाओं में कुपोषण की वजह से जच्चा और बच्चा दोनों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जबकि बच्चों में कुपोषण की कमी के कारण उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित होता है। आशा देवी के अनुसार कैशापी पुरानी डिह में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार लाने की बहुत ज़रूरत है। विशेषकर कुपोषण के विरुद्ध बहुत अधिक काम करने की जरूरत है क्योंकि इससे यहां की महिलाओं, किशोरियों और बच्चों का विकास प्रभावित हो रहा है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें दौर के दूसरे चरण की जारी रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण के मामले में पहले चरण की तुलना में मामूली सुधार हुआ है लेकिन अभी भी इस विषय पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है। भारत में अभी भी प्रतिवर्ष केवल कुपोषण से ही लाखों बच्चों की मौत हो जाती है। सर्वेक्षण के अनुसार करीब 32 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के कारण अल्प वज़न के शिकार हैं। जबकि 35.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की वजह से अपनी आयु से छोटे कद के प्रतीत होते हैं। वहीं करीब तीन प्रतिशत बच्चे अति कम वज़न के शिकार हैं। दरअसल बच्चों में कुपोषण की यह स्थिति मां के गर्भ से ही शुरू हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर महिलाएं एनीमिया की शिकार पाई गई है। जिसका असर उनके होने वाले बच्चे की सेहत पर नज़र आता है। रिपोर्ट के अनुसार 15 से 49 साल की आयु वर्ग की महिलाओं में कुपोषण का स्तर 18.7 प्रतिशत मापा गया है। हालांकि देश को कुपोषण मुक्त बनाने की दिशा में सरकार की पहल अच्छी है लेकिन अभी भी योजनाओं के तेज गति से क्रियान्वयन की आवश्यकता है ताकि ‘सभी आयु के लोगों में स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा’ देने के सतत विकास के लक्ष्य 3 को भी समय रहते प्राप्त किया जा सके। (साभार चरखा फीचर्स)

ममता कुमारी
ममता कुमारी
लेखिका गया (बिहार) में रहती हैं।

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