सुमंगला का नाम बुद्धकालीन थेरियों में सबसे पहले गिना जाता है। सुमगंला का अपना नाम क्या था, इसकी जानकारी तो बुद्ध-साहित्य में नहीं मिलती, परन्तु ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध का एक प्रिय शिष्य था जिसका नाम था स्थिवर सुमंगला। सुमंगला इसी सुमंगला की मां थी। इसी स्थिवर बेटे के नाम पर मां का नाम सुमंगला पड़ गया। पुत्र के नाम से माँ का नाम होना यह भी सिद्ध करता है कि बुद्धकाल से पहले और बाद में तथा आज तक भी दलित स्त्रियों की अपनी कोई स्वतन्त्र पहचान नहीं है। यह भारतीय समाज की विडंबना ही है कि उनकी सारी प्रतिभा, बुद्धि और ताकत को पुरुष सत्तात्मक समाज अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग कर लेता है तथा परिवार और समाज में उसे फलने-फूलने का मौका नहीं दिया जाता।
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सुमंगला एक पारिवारिक स्त्री थी। सुमंगला का पति छाता बनाने का काम करता था। जितनी परिश्रमी, सुन्दर, भावुक हृदय सुमंगला थी, उसका पति उतना ही कुरूप और निर्दयी था। वह उसे छाता बनाने के सामान से भी हीन समझता था तथा उस पर नित्य अत्याचार करता था। प्राचीनकाल से लेकर आज तक दलित महिलाएं तिहरा शोषण सह रही हैं, एक तो दलित जाति का होने के कारण, दूसरा दलित जाति में भी स्त्री होने के कारण तथा उस पर भी गरीब स्त्री होने के कारण। इन तीनों वजहों से वे कई तरह के अत्याचार सहती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि रात-दिन पति व घर की सेवा करने के बावजूद, बुद्ध काल में भी दलित स्त्री के जीवन और भविष्य का कोई ठिकाना नहीं था। सामाजिक, आर्थिक-पारिवारिक अन्याय सहती हुई कितनी ही स्त्रियां असमय काल के मुँह में समा जाती थीं। कितनी तो आत्महत्या कर लेती थीं और कितनी सामाजिक भेदभाव की शिकार होकर कलंकित जीवन जीने को मजबूर थीं, परन्तु सुमंगला अत्यन्त धैर्यवान होने के साथ-साथ बहुत साहसी भी थी।
घर में सब कामकाज करते हुये, पति की रात-दिन सेवा करते हुये उसके मन को एक विचार हमेशा मथा करता था कि उसकी ऐसी दयनीय स्थिति क्यों है? तथा उसके साथ-साथ और औरतें भी क्यों दु:खी हैं? संसार में दुख केवल स्त्रियों के हिस्से में ही क्यों आता हैं? क्या इसका एकमात्र कारण हमारा स्त्री होना ही है? सुमंगला जब-जब इस विषय पर सोचती तब-तब उसकी मानसिक पीड़ा और बढ़ जाती। वह अपने पुत्र को अत्यन्त प्यार करती थी तथा उसके बड़े होने तक वह अपनी मां होने की जिम्मेदारी पूर्ण रूप से निभाना चाहती थी। जब उसका पुत्र बड़ा हो गया तब उसने एक दिन अपने पति से अलग होकर घर छोड़ने का निर्णय लिया। उन दिनों ऐसी दु:खी सताई स्त्रियों का एक मात्र ठिकाना बुद्ध के विहार थे जहां सबको पूर्ण बराबरी से अधिकार थे तथा उन्हें मनुष्य होने का पूर्ण सम्मान प्राप्त था।
सुमंगला गृहत्याग करने के बाद बुद्ध की अनुयायी बन गई। सुमंगला का महत्व केवल इतना नहीं है कि वह बुद्धकाल की एक थेरी थी, अपितु उससे भी अधिक यह है कि एक दलित महिला, जो समाज द्वारा लादे गये विभिन्न नियम-उपनियमों में बंधी होती है, ने इन बन्धनों को तोड़ अपनी स्वतन्त्र राह बनाई। सुमंगला द्वारा लिखी गई कविताएं आज भी नारी पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति हैं। सुमंगला की कविताएं जहां एक ओर दलित महिला द्वारा भोगी गई आर्थिक-सामाजिक पीड़ा की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है वहीं दूसरी ओर उनकी कविताओं में नारी मुक्ति का स्वर भी प्रधान है। सुमंगला घर छोड़ने के उपरान्त अपनी स्थिति पर सोचते हुए लिखती है।
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अहो/ मैं मुक्त नारी हूँ/ मेरी मुक्ति कितनी धन्य है/ पहले मैं मूसल लेकर धान कूटा करती थी/ आज मैं उनसे मुक्त हूँ/ मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे बर्तन भांडे/ जिनके बीच में मैं मैली-कुचैली बैठती थी/ मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों में भी तुच्छ समझता था/ जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था/
परन्तु जब सुमंगला घर छोड़ बुद्ध-विहार में दाखिल हुई तब उसने महसूस किया कि वास्तविक जीवन कैसा होता है। अभी तक परिवार में बिताया उसका जीवन एक पशु के सामान था। जहां वह रात-दिन खटती थी, पति की मार खाती थी और सब कुछ सहने के बाद भी कहने को उसका अपना कुछ नहीं था। अपना अस्तित्व तो वह कब का खो चुकी थी, वह यह भी भूल चुकी थी कि वह भी अपने पति और पुत्र के समान एक मनुष्य है, उसकी भी कुछ इच्छाएं-अभिलाषाएं हैं। घर छोड़ने के बाद बुद्ध-विहार में प्रव्रज्ज्या लेने के बाद सुमंगला के अन्दर सोई नारीवादी कवयित्री जाग उठी। बुद्ध विहार के उच्च मननशील स्वस्थ वातावरण में सुमंगला का व्यक्तित्व निखर उठा। वह उच्च कोटि की कवयित्री और समाजसेविका सिद्ध हुई। सुमंगला ने गांव-गांव, शहर-शहर घूमकर दु:खी, पीड़ित, शोषित, अपमानित बहनों के घाव पर अपनी मीठी स्नेहपूर्ण वाणी से ज्ञान, चेतना और स्वतन्त्रता का मलहम लगाया। पूर्ण स्वतन्त्रता का स्वाद चख सुमंगला का मन आनंदित होकर गा उठा-
अहो/ मैं पूर्ण स्वतन्त्र नारी/ अब उस जीवन की आसक्तियों और मलों को मैनें त्याग दिया/ मैं आज पेड़ों के नीचे बैठ ध्यान करती हूँ/ जीवन-यापन करती हूँ/ अहो/ अब मैं कितनी सुखी हूँ/ मैं कितने सुख से ध्यान-साधना करती हूँ/
आज भी थेरी सुमंगला उन दलित, शोषित, प्रताड़ित स्त्रियों के लिए आदर्श है, जो विभिन्न प्रकार के अत्याचार सहते हुए संघर्ष कर रही हैं तथा स्त्री मुक्ति का रास्ता ढूंढ रही है। थेरी तथा कवयित्री सुमंगला अपनी उच्च कोटि की स्त्रीवादी कविताओं तथा अपने निर्भीक और स्वतन्त्र नारीवादी विचारों के कारण सम्पूर्ण स्त्रियों के लिए प्रेरणा स्रोत है तथा हमेशा रहेगी।
अनीता भारती जानी-मानी कवि-कथाकार और दलित लेखक संघ की अध्यक्ष हैं।
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