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द्रौपदी मुर्मू आदिवासी नहीं, अब ब्राह्मण हैं (डायरी 23 जून, 2022) 

यह महज संयोग नहीं है कि शिवसैनिकों ने महाराष्ट्र में अपने ‘गणेश’ उद्धव ठाकरे की सरकार को लगभग गिरा ही दिया है और एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू ने कल मयूरभंज जिले में एक शिवमंदिर को झाड़ू से बुहारा और बैल के कान में मन्नत जैसा कुछ कहा। इन दोनों […]

यह महज संयोग नहीं है कि शिवसैनिकों ने महाराष्ट्र में अपने ‘गणेश’ उद्धव ठाकरे की सरकार को लगभग गिरा ही दिया है और एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू ने कल मयूरभंज जिले में एक शिवमंदिर को झाड़ू से बुहारा और बैल के कान में मन्नत जैसा कुछ कहा। इन दोनों मसलों और इनके पीछे की अपनी समझ को बाद में दर्ज करता हूं। पहले तो यह कि पितृसत्ता का मान वह महिलाएं भी बहुत रखती हैं, जो न केवल शिक्षित हैं, बल्कि सार्वजनिक रूप से अत्यंत ही प्रभावशाली हैं।
बिहार की राजधानी पटना में पत्रकारिता के दौरान अनेक तरह के अनुभव मिले हैं। इनमें से एक अनुभव यह भी है। वह तब विधायक थीं और नीतीश कुमार की मंत्रिपरिषद की सदस्य भी। पढ़ी-लिखी तो वह हैं ही और कई सार्वजनिक मंचों पर मैंने उन्हें पितृसत्ता, जाति-भेद आदि के सवाल पर खूब बोलते देखा-सुना था। वह फुले को भी मानती थीं और आंबेडकर को भी। बात उन दिनों की है जब वह मंत्रिपरिषद की सदस्य बनीं। एक दिन साक्षात्कार हेतु फोन किया तो घर आने का अनुरोध कर दिया उन्होंने। फिर यह भी कि यहीं बैठकर साक्षात्कार भी कर लेना। मित्रता जैसी कोई बात नहीं थी हमारे दरमियान। यह मुमकिन है कि वह मुझे दलित-ओबीसी-आदिवासी-महिलाओं के विषयों पर लिखने वाला पत्रकार मानती हों।

[bs-quote quote=”इस प्रसंग का जिक्र केवल इसलिए कि महिलाएं जड़ता की शिकार हैं। कुछेक महिलाएं अपवाद जरूर हैं, लेकिन अधिकांश का संबंध फिल्म और साहित्य जगत से है। बोलनेवाली महिलाएं तो साहित्य जगत में ही मिलती हैं। सियासत के क्षेत्र में महिलाएं केवल कठपुतलियां होती हैं, यह बात मैं अपवादों के अलावा जो शेष हैं,उनके लिए कह रहा हूं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मेरे लिए यह सामान्य बात थी। निर्धारित तारीख को उनके आवास पर पहुंचा। उनके ड्राइंग रूम में हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरों के बीच ही तीन और तस्वीरें थीं। एक फुले, दूसरे आंबेडकर और तीसरे नीतीश कुमार। इसके अलावा उनकी कुछ तस्वीरें भी थीं, अलग-अलग समय के और अलग-अलग परिधानों में। सबसे पहले उनके पति से बातचीत शुरू हुई और उन्होंने एक बात जो गर्व के साथ कही कि मेरी पत्नी भले ही आज कैबिनेट मंत्री है, लेकिन वह इतनी पतिव्रता है कि बिना मुझे पैर छूकर प्रणाम किये वह अपने दिन की शुरुआत नहीं करती है। थोड़ी ही देर में मंत्री महोदया भी आयीं और उनके हाथ में आरती की थाली थी। वह आरती गा रही थीं और प्रतिमाओं को सुना रही थीं। फिर उसके बाद उनसे करीब आधे घंटे की बातचीत हुई और इस बातचीत को मैंने अपने मोबाइल में रिकार्ड कर लिया।
इस प्रसंग का जिक्र केवल इसलिए कि महिलाएं जड़ता की शिकार हैं। कुछेक महिलाएं अपवाद जरूर हैं, लेकिन अधिकांश का संबंध फिल्म और साहित्य जगत से है। बोलनेवाली महिलाएं तो साहित्य जगत में ही मिलती हैं। सियासत के क्षेत्र में महिलाएं केवल कठपुतलियां होती हैं, यह बात मैं अपवादों के अलावा जो शेष हैं,उनके लिए कह रहा हूं।
तो द्रौपदी मुर्मू की बात करता हूं। पूजा-पाठ करना सभी का अधिकार है। मान लें कि वह आदिवासी होतीं तो मुमकिन है कि किसी सरना स्थल पर जाकर प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करतीं। यदि उनका धर्म ईसाईयत होता तो किसी गिरजाघर में नजर आतीं। ऐसे ही यदि वह सिक्ख धर्मावलंबी होतीं तो गुरुद्वारे में और यदि मुसलमान होतीं तो मस्जिद में नजर आतीं। अब चूंकि द्रौपदी मुर्मू ने हिंदू धर्म को अपना लिया है तो वह उड़ीसा के मयूरभंज जिले के उस शिवमंदिर में गईं। जनसत्ता ने तो अपनी रपट में यह भी लिखा है कि झारखंड के राज्यपाल पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे मयूरभंज स्थित अपने घर में रह रही हैं और रोजाना शिवमंदिर जाकर शिव की सेवा करती हैं।
खैर, ऐसी महिला और ऊपर में वर्णित नीतीश कुमार के मंत्रिपरिषद की महिला सदस्य के बीच में मैं कोई अंतर नहीं पाता। बाकी गुणों और दोषों के पीछे अनेक कारक होते हैं। अब चूंकि भाजपा ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है तो इसके पीछे भी उसने उनके गुण-दोषों का मिलान जरूर किया होगा। हो सकता है कि उन्हें यह कहा हो कि आपको बस प्रतिमावत बने रहना है और हम आपको हिंदू धर्म की किसी देवी की माफिक पूजनीया बना देंगे।

[bs-quote quote=”द्रौपदी मुर्मू का मामला अब बन गया है। वह अब राष्ट्रपति का चुनाव जीत जाएंगीं। वजह यह कि भाजपा ने उनका रास्ता शिवसेना में बगावत कराकर साफ कर दिया है। वहां उनके गणेश एकनाथ शिंदे बने हैं। मात्र दसवीं पास एकनाथ शिंदे ने चुनाव आयोग को समर्पित अपने हलफानामे में इसका उल्लेख किया है कि उनके उपर 18 मुकदमे हैं। कुछ मामलों में तो बेहद सामान्य धाराएं हैं तो कुछ में बेहद गंभीर। चूंकि सारे मामले अदालतों में विचाराधीन हैं तो कोई उन्हें गुंडा नहीं कह सकता। यह कहा भी नहीं जाना चाहिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अब यह भी कम बड़ा स्वार्थ नहीं है कि कोई किसी को पूजनीया बना दे। मैं तो गणेश के बारे में सोच रहा हूं। गणेश का मतलब गणों का देवता। गण के दो अर्थ लगाए जा सकते हैं। एक तो किसी खास समूह का एक आदमी और दूसरा कोई सेवक। फिलहाल मैं पहले अर्थ पर ही विचार करता हूं तो पाता हूं कि गणेश किसी देवता का नाम नहीं, बल्कि एक उपाधि है। आप अन्य हिंदू देवताओं के नाम देखें तो आप पाएंगे कि वह उपाधि नहीं लगते। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण, शंकर का बड़ा बेटा कार्तिकेय। सबका नाम गणेश से अलग है।
दरअसल, गणेश नामक कोई देवता था भी नहीं। मुझे लगता है कि यह उपाधि गढ़ी गई उन लोगों के लिए जो थे तो द्रौपदी मुर्मू की तरह आदिवासी या फिर मूलनिवासी, लेकिन उन्होंने अपने लोगों से गद्दारी की और ब्राह्मणवादियों का साथ दिया। इसके बदले में ब्राह्मणवादियों ने उन्हें गणेश की उपाधियां दी। ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेज हुक्मरान भारतीय सामंतों और राजाओं को रायबहादुर जैसी उपाधियां दी थीं। और इसके बदले में अंग्रेजों ने उनकी वफादारी हासिल की थी। तो मेरे लिहाज से द्रौपदी मुर्मू कहीं से भी अलग नहीं हैं।
सबसे दिलचस्प यह कि ब्राह्मणवादियों ने भले ही गणेश को अपने लोगों से गद्दारी करने के इनाम के रूप में प्रथम पूजनीय होने का अधिकार दे दिया, लेकिन वे नहीं चाहते थे कि गणेश का कोई चेहरा भी हो। तो वर्चस्ववादियों ने उसका सिर ही काट दिया और उसके बदले हाथी का सिर लगा दिया। अब इसका एक फायदा यह हुआ होगा कि सारे गणेश तब खुश हो गए होंगे और सब कहते होंगे कि मैं भी गणेश हूं।
खैर, द्रौपदी मुर्मू का मामला अब बन गया है। वह अब राष्ट्रपति का चुनाव जीत जाएंगीं। वजह यह कि भाजपा ने उनका रास्ता शिवसेना में बगावत कराकर साफ कर दिया है। वहां उनके गणेश एकनाथ शिंदे बने हैं। मात्र दसवीं पास एकनाथ शिंदे ने चुनाव आयोग को समर्पित अपने हलफानामे में इसका उल्लेख किया है कि उनके उपर 18 मुकदमे हैं। कुछ मामलों में तो बेहद सामान्य धाराएं हैं तो कुछ में बेहद गंभीर। चूंकि सारे मामले अदालतों में विचाराधीन हैं तो कोई उन्हें गुंडा नहीं कह सकता। यह कहा भी नहीं जाना चाहिए।
लेकिन मैं यह सोच रहा हूं कि आज की राजनीति एकदम फिल्मों के माफिक हो गई है और विधायक जो कि जनता के द्वारा निर्वाचित होते हैं, किसी फिल्म के पात्र। हालांकि शिवसेना दो विधायकों ने इस गुंडागर्दी की पोल खोल दी है। इनका नाम है– नितिन देशमुख और कैलाश पाटिल। देशमुख ने कहा है कि उन्हें एकनाथ शिंदे के कहने पर बेहोशी की सुई  लगाई गई। वहीं कैलाश पाटिल ने कहा है कि वह भाग निकले और कई किलोमीटर तक भागते रहे। सूरत पुलिस पर उन्होंने जान से मारने की नीयत से हिंसा करने का आरोप भी लगाया है।
बहरहाल, इस देश की ऊंची जातियों के लोग खुश हैं। एक तरफ तो द्रौपदी मुर्मू आसानी से राष्ट्रपति बनेंगी तो आदिवासी अब उन्हें रोल मॉडल मानकर हिंदुत्व स्वीकार करेंगे। दूसरा लाभ यह कि अब वे आसानी से आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन पर कब्जा कर सकेंगे।
खैर, यह सब सियासत है। सब चलता रहेगा।
गाँव के लोग
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