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मेहनत और कारीगरी का काम करने वालों को कभी इज्जत नहीं मिली

नन्दा भैया बनारस के एक मोची हैं। पहले वह बनारसी साड़ी की बुनाई करते थे लेकिन अब कई वर्षों से मोची का काम कर रहे हैं। वह कहते हैं कि हमारा समाज उंच-नीच की भावना से इतना ग्रस्त है कि वह मेहनत करनेवालों को कभी भी इज्जत नहीं देता।

उनको सब लोग नंदा भैया कहते हैं। उनकी उम्र अस्सी के करीब हो चुकी है। और वे अपनी पचास साल पुरानी साइकिल से यहाँ आते हैं, साइकिल दिखने में खटारा जरूर हो गई है लेकिन नन्दा भैया की अच्छी और पक्की सवारी है। चक्के में हवा भराया और चल पड़े जिधर जाना होता है। मालिक यानी हरचन्नर यादव की जूते की दुकान के पास सड़क के किनारे उनका ठीहा है। दोनों तरफ अनेक दुकानें हैं। ठेलों पर बिकती पालक, मटर, टमाटर, धनिया और गोभी आदि सब्जियों का ढेर यहाँ से वहाँ दिखता है। यह शिवपुर सट्टी है। इसलिए यहाँ लोगों का जमावड़ा हमेशा लगा रहता है। चाय-पान की अनेक गुमटियाँ और दुकानें सुबह से शाम तक गुलज़ार रहती हैं। लोगों की व्यस्तता को देखते हुए लगता है कि यहाँ लोग सबसे ज्यादा फ़ुरसतिया और निठल्ले हैं। किसी जमाने का बहुत गहरा तालाब छुछुआ पोखरा अब भले राजस्व की फाइलों में मौजूद हो लेकिन अब उसके ऊपर अनेक इमारतें बन चुकी हैं। नई पीढ़ी के लोग अब उसका नाम भी नहीं जानते होंगे। शिवपुर जाने पर हम मालिक की दुकान पर ज़रूर जाते हैं। इसलिए हमेशा नंदा भैया दिखते हैं। वे या तो अपने काम में लगे होते हैं या अपने में मगन ठीहे पर बैठे मिलते हैं।

आज जब मैं पहुँची तो वे आरा मशीन पर काम करने वाले मज़दूरों को पहनने वाले बख़्तर की मरम्मत कर रहे थे। गाड़ी खड़ी करते ही उन्होंने हम दोनों को नमस्ते किया। मैं वहीं उनके ठीहे के पास रखे ईंट पर ही बैठ गई। वे पहले सकुचाए और मुझे बोरा देते हुए भोजपुरी में कहा – अरे एप्पर बैठा। मैंने मना करते हुए कहा यहीं ठीक हूँ और ऐसे ही उनसे बतियाने लगी।

नन्दा भैया और पचास साल पुरानी साइकिल आज भी एक-दूसरे का सहारा बने हुए हैं

इसी बीच बगल के ठेले पर सब्जी बेचने वाली लड़की ने उनसे कहा कि आपको दुकानदार बुला रहे हैं। नन्दा भैया ने कहा कि उनसे कहिए आता हूँ, बात करके। फिर मालिक की दुकान से बुलावा आया। मतलब यह कि इतने सालों से यहाँ बैठते आ रहे हैं सभी उन्हें साधिकार बुलाकर चाय-पान आदि लाने के लिए पास की दुकानों में भेजते और वे भी बिना किसी ना-नुकूर के तुरंत ही सबका काम कर देते हैं। एक बात और जेहन में आई कि उनके काम को लेकर किसी के मन में कोई भेद नहीं है। उनकी लाई चाय और पान सभी प्रेम से खाते हैं। हर बार जब चाय आती है, तब नन्दा भैया भी साथ में ज़रूर पीते हैं। यह देखकर मुझे बहुत ही अच्छा लगा।

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लेकिन कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो न कोई देखता है, न ही कोई किसी को दिखाता है। नन्दा भैया अपने काम से बिलकुल असंतुष्ट नहीं हैं। वे काफी फक्कड़ाना अंदाज में बतियाते हैं लेकिन जब मैंने उनसे पूछा कि आप चाहेंगे कि आपकी आगे की पीढ़ी मोची का काम करे तब उन्होंने छूटते ही कहा कि ‘नहीं, बिलकुल नहीं। क्योंकि इस काम को करने वालों के प्रति लोगों का नज़रिया अच्छा नहीं है। वे साधारण व्यवहार में सम्मान बिलकुल नहीं करते।’ हालांकि इस बात की चिंता भी ज़ाहिर की कि यदि इस काम को करने वाला कोई नहीं होगा तो जूते-चप्पल और एनी सामान की मरम्मत कौन करेगा?

फिर देर तक तफसील देते रहे कि ‘अब समय बदल गया है। नई पीढ़ी पढ़-लिख रही है तो उसे दूसरा काम करना चाहिए। इसमें अब सिर्फ वही आता है जिसके सामने कोई दूसरा काम नहीं रहता। आजकल जूते भी ऐसे नहीं आते जिनकी मरम्मत की जरूरत पड़े। मुझे जीवन भर इस काम में मज़ा आया। इसी से मैंने अपना परिवार चलाया लेकिन कभी भी नहीं भूल पाया कि मैं चमार हूँ और यह बहुत छोटा काम है। ऐसा काहे साहब! क्योंकि कर्म ही पूजा नहीं है। मेहनत और कारीगरी का काम करने वालों को कभी इज्जत नहीं मिली।’

नन्दा भैया ने बताया कि ‘मैंने एक समय मजदूरी भी की और रिक्शा भी चलाया। ये सब मशक्कत के काम हैं। मैंने मोची का काम इसलिए किया, यह भी मजदूरी ही है लेकिन इसमें तुरंत पैसा मिल जाता है। मेरे लिए तो यह एक कला है। एक कील या एक टांका गलत लग जाएगा तो सारी इज्जत गड़बड़ हो जाएगी। बात यह है कि यह कला गरीबों के लिए है। मज़दूरों और किसानों के लिए है। वे ही हैं जो जूता फटने पर सिलाकर काम चलाते हैं। लेकिन गरीब ही जातिवाद का शिकार भी है।’

उन्होंने बताया कि पुश्तैनी घर हरहुआ-चिरईगाँव रिंग रोड से लगे हुए छतरीपुर गाँव में है। अब माता-पिता तो रहे नहीं लेकिन अपने दो बेटों के परिवार के साथ मजे से रहते हैं। नंदा भैया मालिक की दुकान के सामने एक बोरी बिछाकर पिछले चालीस वर्ष से बैठते हैं। उन्होंने अपने काम, अपनी ज़िंदगी और अपने अनुभव के बारे में काफी खुलकर बताया।

चालीस साल पहले तक वे बनारसी साड़ियों को बाजार में बेचने का काम करते थे। बुनकरों से लेते और उसे बेचते थे। उन दिनों पावरलूम नहीं आया था। बनारसी साड़ियाँ को बनाना एक कलाकारी माना जाता था। हैन्डलूम पर ही साड़ियाँ तैयार की जाती थीं। एक साड़ी तैयार होने में महीने भर लग जाते थे। और इस साड़ी को तैयार करते हुए अनेक लोगों को रोजगार मिलता था। उन्होंने बताया कि उन दिनों ज़िंदगी को लेकर बहुत आपाधापी थी, न ही इतनी महंगाई थी।

नन्दा भैया अपनी कहानी सुनाने के बाद फोटो खिंचवाने को तैयार

मैंने पूछा कि आपने साड़ी वाला काम क्यों छोड़ दिया और इस काम को कैसे और क्यों करने लगे? तब उनकी आँखें दूर तक कुछ देखते हुए अतीत की तरफ चली गईं और डूबकर बताने लगे कि बनारसी साड़ी के काम में एक समय मंदी आई और इससे मेरे काम में रुकावट। तब कोई काम नहीं होने के कारण मैं खाली समय में शिवपुर रेलवे फाटक के पास बैठने वाले मोची चतुरी के पास जाकर गपशप करता था और इन्हीं दिनों मैंने चतुरी से मोची का काम सीखा। हमारे घर में यह काम कभी किसी ने नहीं किया, क्योंकि यह हमारा पेशेवर काम नहीं था।

लेकिन जब साड़ी के काम में मंदी आई तो उसके बाद मैंने भी इस काम का सामान खरीद लिया और तब से मालिक की दुकान के सामने बैठता आ रहा हूँ। और अब 80 वर्ष से ज्यादा का हो चुका हूँ लेकिन अब मैं केवल अपने मनोरंजन के लिए यहाँ बैठता हूँ और जब मन नहीं करता तो नहीं भी बैठता हूँ। किसी दिन पचास रुपये कमा लेता हूँ तो किसी दिन दो सौ रुपया और किसी-किसी दिन कुछ भी नहीं। मुझे किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है। बेटा-बहू ध्यान रखते हैं। बढ़िया घर बना हुआ है। पोते हैं। लेकिन घर पर सबके अपने काम हैं। खाली रहता हूँ तो यहाँ चला आता हूँ। यहाँ आने पर अनेक लोगों से मुलाकात हो जाती है। देश-दुनिया की बातचीत होती है।

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ठीक-ठाक खेती है। मैं अपने पिता का इकलौता हूँ। हाँ, पढ़ने पर किसी ने जोर नहीं दिया तो कभी स्कूल नहीं गया। अफसोस होता है? यह पूछने पर कहा कि अब तो समय निकल गया अफसोस करके क्या होगा? हाँ, मैंने अपने दोनों बेटों को पढ़ाया और अब उनके बच्चे यानी मेरे पोते भी स्कूल जा रहे हैं। वह दूसरा समय था अब समय बदल चुका है।

मैंने पूछा कि ‘उस समय जब इस काम को शुरू किए तो आपके घर पर किसी ने विरोध नहीं किया?’ उन्होंने कहा, ‘नहीं, किसी ने नहीं कहा कि बनारसी साड़ियों के काम के बदले मोची का काम क्यों करना शुरू कर रहे हो। पहले अच्छी कमाई हो जाती थी लेकिन आज इसमें कम आमदनी है। बाजार ने मोची, दर्जी, लुहार जैसे लोगों के पेट पर लात मारी है। पहले लोग जूता-चप्पल टूटने या खराब होने पर उसे सुधरवा कर पहन लेते थे लेकिन आज बाजार में हर दाम का जूता-चप्पल मौजूद है इसीलिए लोग सुधरवाने की बजाय नया खरीद लेते हैं। मैं और कोई काम नहीं आने की वजह से इसी काम में लंबे समय तक रह गया।

पुराने दिनों को याद करते हुए उन्होंने यह कहा कि पहले कम में भी जीवन का सुख था। दो जोड़ी कपड़े में ही ज़िंदगी के सारे काम हो जाते थे। चाहे शादी हो, जन्म हो या मृत्यु। पैसे और सामान की हाव-हाव नहीं थी। संयुक्त परिवार होता था। सभी मिलजुल कर कमाते और परिवार चलाते थे। परिवार में किसी भी तरह की मुसीबत आने पर एक को परेशान होने की ज़रूरत नहीं होती थी। अब देखता हूँ परिवार में सब सुविधा है लेकिन उसके बाद भी कमी है। आए दिन बाजार भागना और खर्च करना। पहले ज़रूरत होती लेकिन अब शौक के नाम पर ज्यादा खर्च होता है।

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बात करते हुए उनसे पूछा कि आज की राजनीति पर आपका क्या कहना है तो थोड़ा गंभीर होते हुए जवाब दिया कि ‘मैंने तो वोट देना ही छोड़ दिया है, क्योंकि नेता केवल वोट लेते हैं और उन्हें जनता की चिंता तनिक भी नहीं होती। योगी का नाम लेते हुए कहा कि जिस तरह की स्थिति आज बना दी गई है जाति और महंगाई को लेकर। उससे आने वाली पीढ़ी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। हमारे पुराने दिनों में नेताओं में कम से कम नैतिकता तो थी। लेकिन आज तो सभी चिकने घड़े हैं। उनसे कुछ भी कहिए किसी के लिए कोई प्रेम भाव नहीं है।’

उन्होंने अपने जीवन और अनुभव से जितनी भी बातें बताई सभी खरी-खरी थीं। लेकिन इसके बाद भी वे बहुत खुश और संतुष्ट दिखाई दे रहे थे क्योंकि ज़िंदगी जीने का गुर उन्होंने हासिल कर लिया है।

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।
2 COMMENTS
  1. बहुत ज्वलन्त मुद्दे पर जरूरी बातें सामने रखी गयी हैं। समाज क्या संज्ञान लेगा ?एक चिंतन होनी चाहिए

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