आज 6 दिसंबर है। 1956 में इसी दिन समय ठहर सा गया था, जब सदियों के दबे-कुचले अछूतों, सताए व दबाये गए लोगों तथा समाज के तिरस्कृत वर्ग के प्रबल पक्षधर, उनके अधिकारों व विशेषाधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले अद्भूत योद्धा, योग्यतम प्रशासक, महान संविधानवेत्ता, कूटनीतिज्ञ व मानव जाति के इतिहास महानतम बुद्धिजीवी बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने अंतिम सांस ली थी। उनके परिनिर्वाण के बाद महानगरों, शहरों, कस्बों और गांवों में असंख्य शोकसभाएं आयोजित हुईं थीं। तब उन शोकसभाओं में देश व विशेषकर दलितों के लिए की गयी उनकी सेवाओं को याद करते हुए उनके उस श्रेष्ठ मिशन को पूरा करने का संकल्प लिया था, जिसके लिए वह आजीवन कठोर संघर्ष करते रहे। उनके ऐतिहासिक अवदानों को याद करने व उनके मिशन को पूरा करने का संकल्प लेने का सिलसिला आज भी जारी है और कल भी रहेगा। आज देश-विदेश के बड़े-बड़े शहरों से लेकर भारत के छोटे-छोटे कस्बों तक में उनका परिनिर्वाण दिवस मनाया जा रहा है। किन्तु देश-विदेश में फैले कोटि-कोटि आंबेडकरवादियों में बहुत कम लोगों को इस बात का इल्म है कि खुद भारत में आंबेडकरवाद संकटग्रस्त हो चुका है और अगर इसे संकट-मुक्त नहीं किया गया तो आने वाले कुछ दशकों में लोग आंबेडकर को भूलना शुरू कर देंगे। इसे देखते हुए आंबेडकरवाद को संकट-मुक्त करने में होड़ लगाना सामाजिक न्यायवादी दलों, बहुजन बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों का अत्याज्य कर्तव्य बन गया है। ऐसे में इस दिशा में अपना कर्तव्य निर्धारित करने के पहले आंबेडकरवादियों को आंबेडकरवाद और इस पर आये संकट को ठीक से समझ लेना जरुरी है।
“जिन वंचित जातियों को विश्व प्राचीनतम शोषकों से आज़ादी दिलाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने वह संग्राम चलाया। जिसके फलस्वरूप वह मोजेज, लिंकन, बुकर टी. वाशिंग्टन की कतार में पहुँच गए। वह जातियां आज विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुकी हैं। ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था।”
वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति, नस्ल, लिंग इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत ही आंबेडकरवाद है और इस वाद का औंजार है- आरक्षण। भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों के द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत किये गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक माध्यम मात्र है। बहरहाल दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है, जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया। ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से धर्म के आवरण में लिपटी उस वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया, जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही। इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, भूस्वामित्व, राज्य संचालन, सैन्य वृत्ति, उद्योग-व्यापारादि सहित गगन स्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित की गयी। स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं।
हिन्दू आरक्षण ने चिरस्थाई तौर पर भारत को दो वर्गों में बांट कर रख दिया। एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी सवर्ण वर्ग और दूसरा शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे। इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए। लेकिन दुनिया के दूसरे अशक्तों और गुलामों की तुलना में भारत के बहुजनों की स्थिति सबसे बदतर इसलिए हुई क्योंकि उन्हें आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से भी बहिष्कृत रहना पड़ा। इतिहास गवाह है मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी समुदाय के लिए शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियां धर्मादेशों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध नहीं की गयीं, जैसा हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था के तहत बहुजनों के लिए किया गया। यही नहीं इसमें उन्हें अच्छा नाम तक भी रखने का अधिकार नहीं रहा। इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही। वे गुलामों के गुलाम रहे। इन्ही गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ. आंबेडकर के कन्धों पर सौंपी, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया।
यह भी पढ़ें….
अगर ज़हर की काट ज़हर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी, जो हुई भी। इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई। हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था, अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे। इससे धीरे-धीरे वे सांसद-विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे। दलित-आदिवासियों पर आंबेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए। संविधान में डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया, उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिससे पिछड़ी जातियों के लिए भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। और उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वादम्लान पड़ते गए। लेकिन 7 अगस्त, 1990 को प्रकाशित मंडल की जिस रिपोर्ट के बाद आंबेडकरवाद ने जरुर नित नई ऊंचाइयां छूना शुरू किया, उसी रिपोर्ट से इसके संकटग्रस्त होने का सिलसिला भी शुरू हुआ। मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही हिन्दू आरक्षण का सुविधाभोगी तबका शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए बहुजनों के खिलाफ मुस्तैद हो गया। इसके प्रकाशित होने के साल भर के अन्दर ही 24 जुलाई, 1991 हिन्दू आरक्षणवादियों द्वारा बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप ही आज आंबेडकरवाद संकटग्रस्त हो गया है।
यह भी पढ़ें..
जिन वंचित जातियों को विश्व प्राचीनतम शोषकों से आज़ादी दिलाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने वह संग्राम चलाया। जिसके फलस्वरूप वह मोजेज, लिंकन, बुकर टी. वाशिंग्टन की कतार में पहुँच गए। वह जातियां आज विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुकी हैं। ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था। बहरहाल, भारत में आज वर्ग संघर्ष का खुला खेल खेलते हुए शासक दलों ने आंबेडकरवाद को संकटग्रस्त करने के क्रम में जिन स्थितियों और परिस्थितियों का निर्माण किया है, उसमें बहुजनों को अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की लड़ाई की तरह एक नया स्वाधीनता संग्राम छेड़ने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बचा है। और इस संग्राम का लक्ष्य होना चाहिए आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा, जिसका सपना सिर्फ बाबा साहेब ही नहीं लोहिया, सर छोटू राम, बाबू जगदेव प्रसाद, मान्यवर कांशीराम इत्यादि ने भी देखा था। चूँकि सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि शक्ति के स्रोतों के लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य अन्यायपूर्ण बंटवारे से होती रही है, इसलिए बहुजनों के स्वाधीनता संग्राम का एजेंडा शक्ति के स्रोतों का भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों- सवर्ण, ओबीसी, एससी/ एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों के मध्य न्यायपूर्ण बंटवारे पर केन्द्रित होना चाहिए। अब अगर बहुजनों के स्वाधीनता संग्राम का लक्ष्य विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा है तो इस मामले में बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के दस सूत्रीय निम्न एजेंडे को लागू को लागू करवाने की लड़ाई से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता।
- सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार नौकरियों
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जाने वाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जाने वाली खरीदारी
- सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकी-व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों के संचालन, प्रवेश व अध्यापन
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जाने वाली धनराशि
- देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जाने वाली धनराशि
- प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं फिल्म के सभी प्रभागों
- रेल-राष्ट्रीय राजमार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की जमीन व्यवसायिक इस्तेमाल के लिए एससी/एसटी के मध्य वितरित हो तथा पौरोहित्य
- ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, सांसद-विधानसभा, राज्यसभा की सीटों एवं केंद्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों, राष्ट्रपति- राज्यपाल, प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में,
यह भी पढ़ें..
अगर भारत के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा ही बहुजन-मुक्ति लक्ष्य है तो उपरोक्त दस सूत्रीय एजेंडे को लागू करवाने से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता। अगर उपरोक्त एजंडे को लागू करवाने की लड़ाई जीत लिया जाय तो अम्बेडकरवाद शर्तिया तौर पर संकट मुक्त हो जायेगा। ऐसे में आज बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस का यही सन्देश है कि आंबेडकरवाद को संकटमुक्त करने के लिए हिन्दू धर्म की तमाम वंचित जातियां अपने स्वाधीनता संग्राम को अंजाम तक पहुँचाने की परिकल्पना में निमग्न हो जाएं!
[…] अम्बेडकर के लिए काम कीजिये वर्ना लोग भ… […]
[…] अम्बेडकर के लिए काम कीजिये वर्ना लोग भ… […]
[…] अम्बेडकर के लिए काम कीजिये वर्ना लोग भ… […]