जिंदगी में स्वाद का महत्वपूर्ण स्थान है। यह बात केवल हम मनुष्यों के लिए ही नहीं, बल्कि हर प्राणी पर लागू होता है। सभी यही कोशिश करते हैं कि वे हर उस चीज को ग्रहण करें, जो उनके मुताबिक सबसे अधिक स्वादिष्ट होता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कौन किस जगह रहता है और वहां किस तरह के खाद्य पदार्थ की उपलब्धता है। यही बात अन्य अहसासों पर भी लागू होता है। आंखें सुखद दृश्य देखना चाहती हैं। जीभ की बात तो पहले ही कह चुका। कान सुखद ध्वनि को लालायित रहते हैं। नाक के साथ भी यही मसला है। अन्य इंद्रियों को भी सर्वश्रेष्ठ अहसास की अभिलााषा रहती है।
मेरे हिसाब से इन सभी का समुच्चय ही जीवन है। मनुष्यों के मामले में खास यह कि उसके पास विवेक है और वह इसके सहारे अपने जीवन के लिए आवश्यक चीजों का उत्पादन कर लेता है। जबकि अन्य प्राणियों को प्रकृति पर आश्रित रहना पड़ता है। शिकार करनेवाले प्राणियों को हालांकि शिकार करने का जोखिम भले ही उठाना पड़ता है।
दरअसल, मानव जीवन इसलिए अच्छा है क्योंकि मनुष्य प्रयोग करता रहता है। वह प्रयोग इसलिए करता है ताकि वह अधिक से अधिक अच्छा अहसास हासिल कर सके। साहित्य से भी उसे ऐसी ही अपेक्षा रहती है। वह चाहता है कि उसे वही पढ़ने को मिले जो वह सबसे अधिक पसंद करता है। इसके आधार पर मनुष्यों को अलग-अलग कैटेगरी में बांटा जा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे कोई शाकाहार पसंद करता है तो कोई मांसाहार।
[bs-quote quote=”जब बात साहित्य की हो तो हमें भाषाओं पर भी गौर करना चाहिए और यह पूरी ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिए कि हिंदी पट्टी के साहित्यकारों ने आंचलिक भाषाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया है। रेणु अपवाद सरीखे नजर आते हैं, जिनकी रचनाओं में आंचलिक शब्द पूरी प्रतिष्ठा के साथ नजर आते हैं। .” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
साहित्य के साथ कुछ और मसले भी हैं। यह भी कहना अतिरेक नहीं कि हर साहित्य से नये अहसासों को उत्पन्न भी किया जाता है। मसलन, जब हम भिखारी ठाकुर की रचना बिदेसिया को पढ़ते-देखते-सुनते हैं तो हम पलायन करने वाले मजदूरों के सुख-दुख से रू-ब-रू होते हैं और एक अलग तरह के अहसास से भर जाते हैं। जब हम प्रेमचंद की रचनाओं को पढ़ते हैं तो हम स्वतंत्रता पूर्व भारतीय समाज में हो रही उठापटक को पाते हैं। उनमें दुख भी है और सुख भी। रेणु की कालजयी रचना मैला आंचल तो भावनाओं का समुच्चय है। आप इस उपन्यास में एक नवजात देश के अंदर हो रही हलचल को पाते हैं। इसमें शहर भी है और गांव भी। राजनीति और रोमांस भी है। बाद के रचनाकारों ने भी कमाल का काम किया है। सबके पास लिखने को अलग विषय रहे हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि सभी ने अपने हिसाब से समाज को समझने की कोशिश की और अपने हिसाब से समझाने का प्रयास भी किया। मसलन, राजेंद्र यादव का स्मरण करें तो हम पाते हैं कि हंस के संपादक के रूप में वह नाना प्रकार के प्रयोगाें को बढ़ावा देते हैं। अलग-अलग तरह के अहसासों को प्रस्तुत करना उनकी खासियत रही। यह उनका ही श्रम था कि आज दलित और स्त्री विमर्श इतना मुखर हो सका है।
खैर, जब बात साहित्य की हो तो हमें भाषाओं पर भी गौर करना चाहिए और यह पूरी ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिए कि हिंदी पट्टी के साहित्यकारों ने आंचलिक भाषाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया है। रेणु अपवाद सरीखे नजर आते हैं, जिनकी रचनाओं में आंचलिक शब्द पूरी प्रतिष्ठा के साथ नजर आते हैं।
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दरअसल, आजादी के बाद से ही देश का स्वाद बदल गया था। इसकी एक वजह तो यह भी रही कि देश गुलाम से आजाद हो गया था। तो स्वतंत्रता पूर्व जो स्थितियां थीं, वह खत्म हो चुकी थीं। इसकी एक वजह यह भी रही कि देश के पास एक ऐसा संविधान था, जो किसी भी प्रकार के भेदभाव को खारिज करता है। इन सबका संयुक्त रूप से समाज पर असर होना ही था। सबसे अधिक प्रभावित वह तबका हुआ, जिसके पास कुछ था। कुछ का मतलब अच्छे से खाने-पीने-रहने भर संसाधन। इस तबके को तकनीकी तौर पर हम चाहें तो उच्च आय वर्ग और मध्य आय वर्ग कह सकते हैं। इस वर्ग से आए साहित्यकारों ने इसी वर्ग को ध्यान में रखकर साहित्य का सृजन किया। कवियों ने भी वीर रस का परित्याग कर दिया था। हालांकि चीन के साथ युद्ध के दौरान कवियों में वीर रस का प्रवाह अवश्य हुआ था लेकिन वह दौर बहुत छोटा था। बाद के दौर में तो साहित्य शहरी जीवन, व्यक्तिगत अहसासों आदि तक सीमित रह गया।
[bs-quote quote=”कुल मिलाकर यह कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया जारी है। फिर चाहे वह संसाधनों पर हिस्सेदारी घटने-बढ़ने का मामला हो या फिर राजनीति और साहित्य का। ऐसे में कोई एक मानक मुमकिन नहीं है जिसके आधार पर हम बदलावों की समीक्षा कर सकें। हम अगर कुछ कर सकते हैं तो अच्छे साहित्य का सृजन करें ताकि समाज सकारात्मक दिशा में सोचे और विचारे। बाकी जो है वह बदलावों का रिफ्लेकशन है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, मैं यह मानता हूं कि साहित्य को एक मानक के रूप में देखा जा सकता है। कौन सा समाज कैसा है, यह उसके साहित्य पर निर्भर करता है। मतलब यह कि वह क्या पढ़ता है और क्या देखता है। देखने का मतलब सिनेमा व नाटक आदि से है। एक समय था जब इप्टा जैसी संस्थाएं सक्रिय रहती थीं और नाटकों में जनवाद नजर आता था। सिनेमा के क्षेत्र में भी इसकी कुछ झलकियां देखने को मिलती थीं। हालांकि सिनेमा के मामले में सबसे अधिक बदलाव आया। फिर चाहे वह मुगले आजम की भव्यता हो या फिर शोले में हिंसा की पराकाष्ठा।
इन सबका असर पड़ा है। असर यह कि जो हिंदी साहित्य में बदलाव हुए, वैसे ही बदलाव आंचलिक साहित्य पर भी पड़ा। एक प्रतिस्पर्धा भी दिखी, जिसमें आंचलिक साहित्य की हार भी हुई। सिनेमा में भी यही हुआ।
इतनी सारी बातें इसलिए दर्ज कर रहा हूं क्योंकि कल गांव के लोग पत्रिका के द्वारा आयोजित ऑनलाइन कार्यक्रम में यह विषय मेरे सामने था– भाषा की मर्यादा और समाजशास्त्र। इस कार्यक्रम के दौरान भोजपुरी सिनेमा में हुए बदलावों पर भी हमने बातचीत की। दरअसल, मैं यह मानता हूं कि भोजपुरी सिनेमा में जो बदलाव हुए हैं, उसमें केवल इतना ही नयापन है कि अब पिछड़े समाज के कलाकार भी बतौर नायक कबूल किये जा रहे हैं। यह इस वजह से भी कि 1990 के बाद हिंदी पट्टी में पिछड़े वर्ग ने राजनीति में अपनी हिस्सेदारी मजबूत की है। आज यूपी में चुनाव है तो देखिए कि लड़ाई कैसे पिछड़ा बनाम अगड़ा की है।
दरअसल, मैं यह मानता हूं कि समाज में अश्लीलता जैसा कुछ भी नहीं होता है। जब हम अश्लीलता पर विचार करते हैं तो हम यह भूल जाते हैं कि समाज किस दिशा में सोच रहा है। आज का सच यही है कि भारतीय समाज बदलाव के फेज में है। मजदूर वर्ग भी बदलाव का आकांक्षी है और तरह-तरह के स्वादों का अनुभव लेना चाहता है।
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मैं तो दिल्ली के जिस इलाके में रहता हूं, वह एक शानदार उदाहरण है। यहां बगल के लक्ष्मीनगर इलाके में एक चौराहे पर मुझे चार तरह के स्ट्रीट फूड मिल जाते हैं। ये चार हैं– लिट्टी-चाेखा, डोसा, चाइनीज फूड और पिज्जा। मजे की बात यह है कि इन सबको अपना आहार बनानेवाले सभी हैं। ऑटो चालक व रिक्शा चालकों को भी मैं यहां पिज्जा खाते देखता हूं। मोमोज और चाइनीज फूड्स भी लोगों को पसंद हैं।
कुल मिलाकर यह कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया जारी है। फिर चाहे वह संसाधनों पर हिस्सेदारी घटने-बढ़ने का मामला हो या फिर राजनीति और साहित्य का। ऐसे में कोई एक मानक मुमकिन नहीं है जिसके आधार पर हम बदलावों की समीक्षा कर सकें। हम अगर कुछ कर सकते हैं तो अच्छे साहित्य का सृजन करें ताकि समाज सकारात्मक दिशा में सोचे और विचारे। बाकी जो है वह बदलावों का रिफ्लेकशन है।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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