वाराणसी। एक दिन बाद, 31 जुलाई आ रही है। और उस दिन लमही में बड़ा मेला लगेगा। दूर-दूर से लोग, वहां देखने आते हैं। तमाम प्रशासनिक अमला, लेखकों का हुजूम और प्रेमचंद के प्रशंसक वहाँ पहुँच, वहाँ अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, साथ ही यह जानते हैं कि लमही में प्रेमचंद की स्मृतियां किस तरीके से सुरक्षित हैं और लमही के लोग प्रेमचंद के कृतित्व से कितने परिचित हैं? यह जानने के लिए मैं और राहुल पहुंचे लमही गांव। अब लमही, गाँव नहीं रह गया, बल्कि वाराणसी नगर निगम का हिस्सा है और यहां 33 लाख बिस्वा में जमीनें मिल रही हैं।
दूरदराज से अनेक लोग यहां आकर बस गए हैं। प्रेमचंद स्मारक के केयर टेकर ने बताया कि केवल 25 प्रतिशत लोग ही पुराने रह गए हैं। असल में अब यह गाँव, गाँव नहीं रहा बल्कि शहरी गाँव हो गया है। कुछ ही दूर यानी सात आठ सौ मीटर दूर रिंग रोड है, जिसके कारण यह अंदर का पूरा इलाका अब जमीन की खरीद-फरोख्त का एक बड़ा केंद्र बन गया है और जमीन का भाव आसमान छू रहा है। यहाँ बड़े-बड़े आलीशान घर बन गए।
किसी जमाने में लमही एक गाँव था और प्रेमचंद ने बहुत सारे चरित्रों को इसी गाँव से उठाया। मसलन! गाँव में जो पोखरा दिखाई पड़ता है और रामलीला का जो मैदान है। हम समझते हैं कि उनकी प्रसिद्ध कहानी रामलीला में उसका जिक्र है। लमही के पास ही एक ऐसी बस्ती है, जहां से निकल कर ईदगाह का हामिद और उसके साथी नदेसर स्थित ईदगाह की तरफ रुख करते हैं।
बीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में जब यह कहानियां जन्म ले रही थी। तब बनारस शहर न इतना घना था और ना ही आज की तरह ही भीड़भाड़ वाला। न ही आज की तरह मंदिर-मस्जिद के नए झगड़े में फँसने वाला। अब बनारस हिंदुत्व का केंद्र बना दिया गया है और अब प्रेमचंद अपने ही गाँव में ही बेगाने हैं।
मैंने और राहुल ने जब गाँव के प्रवेश किया तो हम चाय-पकौड़े की गुमटी में रुककर एक बुजुर्ग (जिन्होंने अपना नाम जीउत बताया) से प्रेमचंद स्मारक कितनी दूर है… पूछा? उन्होंने कहा यहाँ से एक किलोमीटर आगे चले जाइए। उनसे पूछा- आप जानते हैं प्रेमचंद को? कहा- जानते हैं। अभी 31 जुलाई को मेला लगने वाला है। वे कहानी लिखते थे। पढ़े हैं? मैं कोई पढ़ा-लिखा तो हूँ नहीं। उसी गुमटी को चलाने वाले दीपक से भी रहा नहीं गया और प्रेमचंद का नाम सुनते ही वह भी बाहर आ गये। कक्षा आठ तक पढ़े दीपक ने बताया कि जब स्कूल में थे, तब उनकी दो-तीन कहानियाँ पढ़ी थीं, लेकिन रोजी-रोजगार के कारण अब कुछ याद नहीं रह गया।
लमही जाकर हमने अनेक लोगों से मुलाकात की। सबसे पहले हमने प्रेमचंद स्मारक ट्रस्ट के अध्यक्ष सुरेश दुबे से मुलाकात की। वे यहाँ के पुस्तकालय के केयर टेकर हैं, लेकिन उन्होंने अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर दिया है और 22 साल से यहाँ के पुस्तकालय के साथ स्मारक की देख-रेख करते हुए उसे संभाले हुए हैं। हालांकि, पुस्तकालय की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, क्योंकि इसकी देख-रेख के लिए प्रशासन या सरकार की तरफ से कोई भी आर्थिक अनुदान नहीं मिलता। जन सहयोग से ही जितना हो सकता है, करते हैं। चार साल पहले मैं वहां प्रेमचंद जयंती के उपलक्ष्य में गई थी। तब मैंने देखा था कि प्रेमचंद की विरासत के जो कुछ सामान बचे हुए थे। उनका रेडियो, उनकी पिचकारी, उनकी लालटेन और भी कुछ छोटी-मोटी चीजें है। वह फर्श पर नीचे ही अखबार बिछाकर प्रदर्शनी के लिए रखी गई थी। किसी तरीके का म्यूजियम या कोई संग्रहालय तैयार नहीं था और आज भी नहीं है। प्रेमचंद जैसे क्लासिक लेखक की विरासत को बचाने और सहेजने के लिए फिलहाल कोई बड़ा कदम सरकार नहीं उठा रही।
उनका पुराना घर जो बिना देख-रेख में लगातार टूट-फूट रहा था। तब यही मकान और कुआं नागरी प्रचारिणी के देख-रेख में था। 1959 में राजेन्द्र प्रसाद ने इसे स्मारक बनाए जाने के लिए शिलान्यास किया। तब दो कमरे बने। इसके बाद इसके बाद 2005 में यहाँ उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, मानव संसाधन मंत्री जयपाल रेड्डी और सरला माहेश्वरी के आने पर धरना-प्रदर्शन किया गया, ताकि प्रेमचंद के जन्मस्थली को सही तरीके से सहेजा जा सके।
सांस्कृतिक विभाग ने उनके पुश्तैनी घर को पक्का बनवा दिया, जो ऐसे ही उपेक्षित और खाली पड़ा हुआ है। बस 2005-06 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने इस स्मारक को बनवाने के लिए 5 करोड़ रुपये दिए थे। फिलहाल, यह प्रेमचंद स्मारक संस्कृति विभाग के संरक्षण में है। हालांकि पुस्तकालय का निर्माण तब भी नहीं हुआ। यह बाद में व्यक्तिगत प्रयासों से स्थापित की गई। इसका संचालन पिछले 22 वर्षों से यहाँ के केयर टेकर सुरेश दुबे कर रहे हैं।
यहाँ चार आलमारियों में बहुत पुरानी किताबें बाइन्ड की हुई दिख रही थीं। उसके बारे में सुरेश दुबे ने बताया कि प्रेमचंद की उर्दू की किताबें उनके छोटे सौतेले भाई मेहताब राय के बेटे राम कुमार राय (जो बीएचयू में पढ़ाते थे) के निजी पुस्तकालय में थीं। उनका घर स्मारक से लगा हुआ है। उनके बाद उनका बेटे प्रदीप राय ने प्रेमचंद की इस विरासत को संभालने में असमर्थता ज़ाहिर की, जिसके बाद राम कुमार राय की सारी किताबें इसी पुस्तकालय में ले आई गईं, जिसमें प्रेमचंद का उर्दू साहित्य के साथ कुछ धार्मिक ग्रंथ भी हैं। उर्दू की एक रामायण भी है। लेकिन उन किताबों की हालत बहुत अच्छी नहीं है। जब तक मुझसे सधेगा, देख-रेख करूंगा।
अभी किताबें लोहे की आलमारी में व्यवस्थित तरीके से रखी हुई हैं, इस बात का जिक्र करने पर उन्होंने बताया कि पीएनबी और यूको बैंक ने लोहे की दो-तीन आलमारियां भेंट की हैं, जहां पर उनकी किताबें और कुछ सामग्री रखी गई है। उन्होंने प्रेमचंद को पूरी तरह से पढ़ा है और उसका विश्लेषण भी किया है, क्योंकि जब चर्चा के दौरान कुछ बात निकलती थी तो वह बिना रुके एक सांस में उनकी वह सारी जानकारी मुझे दिए, जिनको मैं जानना चाहती थी। उनकी किताबें उन्होंने किन-किन मैगजीन में संपादक का काम किया, कहां लिखा-कहां गए, कब उनका घर बना, उनकी शादी कब हुई, उनके परिवार के बारे में एक-एक जानकारी उनको मुंह जबानी याद है।
प्रेमचंद के गाँव में उनको लेकर क्या सोचते हैं लोग
प्रेमचंद को लेकर आज गाँव में क्या सोचते हैं लोग? इस बात को पूछने पर उन्होंने कहा कि चलिये आपको मैं ले चलता हूँ गाँव में, आप खुद ही देख लीजिए। यह कहकर तेज गति से वह आगे-आगे चल पड़े। साथ-साथ उन्होंने स्मारक के आस-पास का पुराना भूगोल भी बताया कि पहले यहाँ कच्चे घर थे। दुकानें नहीं थीं, यह जो तालाब दिख रहा है, एक समय इससे गाँव में पानी की जरूरत पूरी होती थी। पास पहुँचने पर उस तालाब से बहुत दुर्गंध आ रही थी। उन्होंने कहा कि अब पानी सड़ चुका है। मैंने कहा कि पानी की निजी व्यवस्था हो जाने के कारण शायद इस तालाब की साफ-सफाई पर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया होगा इसलिए इसकी यह दुर्गति हो चुकी है।
वे मुझे 80 साल के एक बुजुर्ग से मिलवाना चाह रहे थे, लेकिन वह तो नहीं मिले, चाय-पान की दुकान पर उनके 45 वर्षीय बेटे विजय कुमार पान लगा रहे थे। उनसे मैंने पूछा कि आप प्रेमचंद के बारे में कुछ जानते हैं? ‘हाँ, इसी लमही गाँव के थे। कहानियाँ लिखते थे।’ आपको उनकी कोई कहानी याद है? उन्होंने कहा- ‘नहीं मुझे उनकी कोई कहानी याद नहीं।’
कक्षा दस तक पढ़े हुए विजय ने कहा कौन जमाना में पढ़े थे। याद नहीं और अब तो पढ़ने का समय ही नहीं मिलता, न मन होता है। हमें विजय ने नींबू मसाले वाली स्वादिष्ट चाय पिलाई।
हम बात कर ही रहे थे कि वहाँ एक व्यक्ति आकर खड़े हो गए और हम लोगों की बातें सुनने लगे। मैंने उनसे पूछा कि आपको प्रेमचंद की कौन-सी कहानी याद है? मुझे लगा शायद वह ईदगाह का नाम लेंगे, लेकिन उन्होंने कहा- ‘मैंने उनकी अनेक कहानियाँ पढ़ी हैं, लेकिन मुझे ‘मंत्र’ आज तक याद है। कहानी में डॉक्टर चड्ढा और भगत के बीच जो संवेदना की खाई है, उसको लेकर उन्होंने अपनी राय दी। उन्होंने कहा कि गरीब आदमी हमेशा अमीर की मदद करता है। प्रेमचंद की यही सबसे बड़ी बात दिखती है कि उन्होंने साधारण लोगों की तरफदारी की है। आठवीं तक पढ़े और दूध का व्यवसाय करने वाले भैयालाल यादव की बात सुन बहुत अच्छा लगा। उन्होंने कहा कि आगे पढ़ नहीं पाया और अब तो पढ़ने का समय ही नहीं मिलता, लेकिन मन हमेशा होता है।
रमाशंकर मिश्रा, जो बिहार सिवान के रहने वाले हैं। पहले यह हुकुलगंज में रहते थे और कॉलेज में समाजशास्त्र पढ़ाते थे। रिटायर होने के बाद लमही में ही घर बनवा लिए और अपने परिवार के साथ यहीं रहते हैं। उनसे सड़क पर मुलाकात हुई। वे प्रेमचंद पुस्तकालय ही जा रहे थे और यहाँ रोज बैठते हैं, सुरेश दुबे से बतियाते हैं। उनसे जब बातचीत की तो उन्होंने कहा कि वह बहुत ही प्रसिद्ध लेखक कवि रहे हैं और उनकी कई कहानियां बहुत चर्चित रही हैं। मैंने पूछा- आपने उनकी कौन-सी कहानी पढ़ी है? वे अगले-बगले झांकने लगे। कहने लगे कहां समय मिलता है, घर-द्वार, शादी-ब्याह मरणी-जन्मी, नाते-रिश्तेदारों में ही पूरा समय चला जाता है तो पढ़ने का तो समय ही नहीं मिलता। मुझे थोड़ा अचरज हुआ कि कॉलेज में पढ़ाने वाले प्रोफेसर जो केवल प्रेमचंद को उनके नाम से ही जानते हैं, उनकी कोई कहानी कभी नहीं पड़ी। इससे अनुमान लग सकता है कि केवल अपने विषय की जानकारी के अलावा आसपास की दुनिया और साहित्य से कितने अपरिचित रहते हैं। ऐसे में वह बच्चों को किताबी और सैद्धांतिक ज्ञान ही दे पाते होंगे।
लमही में प्रेमचंद के नाम से तीन संस्थान चल रहे हैं। पहला प्रेमचंद स्मारक ट्रस्ट, जिसके अध्यक्ष सुरेश दुबे हैं। दूसरी, राजीव गोंड द्वारा प्रेमचंद साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए रेडियो प्रेमचंद के नाम से रेडियो चैनल की शुरुआत 15 फरवरी, 2021 को किया। इस दिन का चयन उन्होंने इसलिए किया कि 15 फरवरी, 1921 के दिन प्रेमचंद ने अंग्रेजों की नौकरी से इस्तीफा दिया था। सौ साल होने पर इस दिन उन्होंने रेडियो प्रेमचंद की शुरुआत की, जिसका एक एप बनवाया। वैसे यह 24 घंटे चलता है, लेकिन प्रेमचंद स्मारक पर रोज शाम एक घंटे यानी 5 से 6 बजे तक लाउडस्पीकर में इसे चलाते हैं। राजीव गोंड ने नई पीढ़ी को प्रेमचंद की लेखनी से परिचित करवाने के लिए 31 जुलाई, 2022 से ही प्रेमचंद मित्र की शुरुआत की, जिसमें बच्चों को एक सदस्यता फॉर्म भरकर इसमें शामिल होना है। कहानी-कविता पढ़ने और लिखने के लिए प्रेरित करना इसका मुख्य उद्देश्य है। अभी इसमें 143 सदस्य हैं। साथ ही एक त्रैमासिक पत्रिका प्रेमचंद पथ का प्रकाशन भी करते हैं। इनकी संस्था का नाम है प्रेमचंद मार्ग दर्शन केंद्र ट्रस्ट।
लमही में तीसरी संस्था है- प्रेमचंद आवासीय विकास योजना समिति। इसे संचालित करने वाले दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव स्वयं को प्रेमचंद के परिवार का हिस्सा कहते हैं। उनकी अपनी दिक्कतें हैं। वे अपने तरीके से प्रेमचंद की विरासत की बात करते हैं और पिछली बार जब मैं उनसे मिली थी, तब उन्होंने बताया कि प्रेमचंद के कमरे से चोर पंखे निकाल ले गए और उनकी कोई सुरक्षा नहीं हो सकी। हमने सीलिंग की तरफ ध्यान दिया तो पता लगा, वहां कोई पंखा नहीं है। दुर्गा प्रसाद बार-बार यह कहते हैं कि उनके परिवार के लोग प्रेमचंद की स्मृतियों और विरासत के विकास के लिए जो पैसा मिला, उसकी बंदरबांट में शामिल हो गए हैं। कहने वाले कहते हैं कि हर व्यक्ति ने प्रेमचंद के नाम पर यथासंभव प्रसाद पाया है।
पता नहीं कितने लोग आज प्रेमचंद के वंशज होने का दावा कर रहे हैं, जबकि ऐसा है नहीं। लमही गाँव में रहने वाले कायस्थ हो सकता है, प्रेमचंद की पट्टीदारी के हों लेकिन कौन उनके वास्तविक परिवार के लोग हैं यह तो दुर्गा प्रसाद स्वयं बता सकते हैं। इतना जरूर है कि प्रेमचंद अभी भी एक कमाऊ व्यक्तित्व हैं, जो कोई उन्हें अपने जीवन में रखेगा, वह पुनः-पुनः प्रसाद पा सकेगा।
प्रेमचंद के दोनों बेटों के बच्चे अब शायद ही कभी लमही आते हैं। उन्हें लमही से कोई मतलब ही नहीं है। प्रेमचंद से जुड़ी अनेक चीजें ऐसी हैं, जो लमही के नाम से है। मसलन, लखनऊ से प्रकाशित पत्रिका लमही, जिसकी अपनी राजनीति है और उसके संपादक विजय राय हैं। विजय राय प्रेमचंद की सौतेले भाई मेहताब राय के नाती लगते हैं और इस नाते लमही से उनका संबंध जुड़ता है। हालांकि, इस गाँव के नाम पर पत्रिका निकालने के बावजूद वे उसे कोई यादगार पत्रिका नहीं बना पाए।
इसी तरीके की और भी बहुत-सी चीजें हैं, जिन्होंने समय के साथ-साथ प्रेमचंद को एक बिकाऊ माल में तो तब्दील कर दिया, लेकिन प्रेमचंद की बातें, प्रेमचंद की कहानियां, प्रेमचंद का चिंतन उन तमाम सारी चीजों से बाहर होता गया है। 31 जुलाई को तमाम प्रशासनिक लोग यहां आते हैं और प्रेमचंद की मूर्ति पर फूल चढ़ाते हैं। वह फोटो खिंचवाकर यह जाहिर करते हैं कि उनकी साहित्यिक अभिरुचियां बहुत अच्छी हैं, लेकिन असल में प्रेमचंद को लेकर जब हमने इस बात का सर्वेक्षण किया कि जो प्रेमचंद सामाजिक, भाईचारे और धार्मिक-सांप्रदायिक एकता की बात करते थे, वह उनके भीतर कितना बचा है तो इसका कोई भी माकूल जवाब नहीं मिल पाया। प्रेमचंद की जयंती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी मनाने लगे हैं, क्योंकि इससे वे जनता के बीच अपने संदेश देते हैं। बजरंग दल और विहिप जैसे संगठनों ने प्रेमचंद के नाम पर संस्थाएं बनाए हुए हैं।
एक सबूत तो इसी बात से मिल जाता है कि प्रेमचंद की कमरे के ठीक सामने एक बड़ा शिव मंदिर बन गया है। तीन साल पहले जब मैं वहां पहुंची थी तो बनारस के एक अध्यापक और सामाजिक चिंतक विजय नारायण सिंह ने कहा कि संघ कुछ दिन में यह भी साबित कर देगा कि प्रेमचंद इसी शिवलिंग पर जल चढ़ाते थे। उनकी खिड़की ठीक शिवमंदिर के सामने है। वहीं से वह प्रेरणा लिया करते थे। फिर वह ठठाकर हंसे और कहा- ‘हमारे समाज में अपने लेखकों से कुछ सीखने और उनकी विरासत को बचाने की कोई विशेषता और परंपरा नहीं है।’
प्रेमचंद के घर के सामने ही बीएचयू द्वारा संचालित प्रेमचंद शोध संस्थान लमही है। यह शोध संस्थान केवल 31 जुलाई के दिन ही खुलता है। यहाँ बने हुए ऑडिटोरीयम में कार्यक्रम सम्पन्न होते हैं। उसके बाद इस पर ताला लटक जाता है। यह सवाल उठना वाजिब है कि इस शोध संस्थान में शोध करने और कराने वाले कौन हैं?
लमही का पूरा इलाका इस गांव के लोगों द्वारा की जाने वाली दुकानों से भरा हुआ है। कालोनियों का लगातार विस्तार हो रहा है। गांव के वही लोग अब यहाँ रह गए हैं, जो बाहर नौकरी करने नहीं गए और छोटा-मोटा रोजगार करके अपनी आजीविका चला रहे हैं।
प्रेमचंद के नाम पर अब बहुत लाग-डाँट हैं। प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी है लाग-डाँट जिसमें दो घरानों के बीच में हर स्तर हदबंदी है। अलग विचार हैं, इसलिए फसल सूख रही है, लेकिन पानी नहीं मिलेगा। एक घराना स्वराज के विचारों का अनुयायी है तो दूसरा आधुनिकता का और यह अंतर्विरोध इतना ज्यादा है कि संवेदनात्मक रूप से वे एक-दूसरे के खिलाफ काम करते हैं। वह लाग-डाँट हम देखते हैं कि आज प्रेमचंद की विरासत को लेकर बहुत ज्यादा है, लेकिन असल में इसके पीछे अपने आर्थिक फायदे और वर्चस्व की अनेक कथाएं हैं। ये कथाएं दुख और विरक्ति पैदा करती हैं।
यह सब निराश पैदा करने वाली बातें हैं, लेकिन एक दिन बाद ही यहाँ पर मेला लगने वाला है। बहुत रज-गज होगा। उनकी कहानियों पर नाटक होंगे। बड़ी-बड़ी बातें होंगी। शायद यही एक लेखक के रूप में प्रेमचंद का हासिल है।
(फोटो – राहुल यादव)
बहुत ही दुखद वार्तांकन है ! हमारे देश में प्रेमचंद हो या शरतचंद्र या भागलपुर की बेगम रूकिया शेखावत यह दोनों नाम इसलिए लिया हूँ कि मैं भागलपुर दंगे के बाद 1990 से हरसाल जाने का क्रम है और शरदबाबु की ननिहाल भागलपुर रही है और श्रीकांत जैसे मशहूर उपन्यास का लेखन भागलपुर – कलकत्ता जलमार्ग की यात्रा पर आधारित हैं और बेगम रूकिया शेखावत के शौहर भागलपुर में सरकारी अधिकारियों के नाते रहे हैं और उस दौरान शायद संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा की शुरुआत करने वाली बेगम रूकिया शेखावत आज भागलपुर में किसी को भी याद नहीं है और बेगम रूकिया शेखावत शायद भारत की पहली सायन्स फिक्शन और अन्य ललित लेखन करने वाली महिला थी ! हालांकि मुलतः वह बंगला देश की थी वहां शायद रंगपूर विश्वविद्यालय उनके नाम से है और कलकत्ता में लॉर्ड सिन्हा रोडपर उनके नामका लडकियों का विद्यालय है ! भारतीय उपमहाद्वीप प्रतिभाशाली लोगों बारे में शुरू से ही उदासीनता धारण करने वाला रहा है ! जितना धार्मिक पगडा है और आज की तारीख में परवान पर है और संघ इस माहौल को बनाए रखने से लेकर उससे लाभ उठाने में सब से आगे है !