Saturday, July 27, 2024
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खतरनाक लोगों के साथ पहाड़ में सफर

  इधर क्योंकि घूमना-फिरना काफी बढ़ गया है इसलिए बहुत कुछ शेयर करने लायक इकट्ठा हो जाता है। कई जगह से घूम-घाम कर कुछ दिन नैनीताल में ठहरा। नैनीताल से काठगोदाम लगभग 40 किलोमीटर है और बस डेढ़ घंटा और टैक्सी एक घंटा लेती है। टूरिस्ट सीजन अप्रैल से शुरू होता है इसलिए आने-जाने की […]

 

इधर क्योंकि घूमना-फिरना काफी बढ़ गया है इसलिए बहुत कुछ शेयर करने लायक इकट्ठा हो जाता है। कई जगह से घूम-घाम कर कुछ दिन नैनीताल में ठहरा। नैनीताल से काठगोदाम लगभग 40 किलोमीटर है और बस डेढ़ घंटा और टैक्सी एक घंटा लेती है। टूरिस्ट सीजन अप्रैल से शुरू होता है इसलिए आने-जाने की वैसी मारामारी नहीं है । सीजन में शेयर टैक्सी 100 रु. प्रति सवारी लेती है और चार या पांच सवारी बिठाकर चलते हैं । इसके लिए लंबी लाइन लग जाती है ।

लेकिन ऑफ सीजन में सवारी मिलना मुश्किल है। जिसे रोकता, वही कहता कि 10 मिनट में अगर और सवारी नहीं मिली तो पूरा चार सौ देना होगा।

मैंने कहा दस की बजाय 30 मिनट तक इंतजार कीजिए, मुझे कोई जल्दी नहीं है । फिर भी कोई नहीं माने । एक स्वस्थ सा लड़का आखिर मान गया और मल्ली ताल से तल्ली ताल (नैनी ताल के किनारे माल रोड लगभग एक किलोमीटर) रास्ते में सवारियों के लिए चिल्लाता आया। दो-चार मिले भी लेकिन 100 पर राजी नहीं हुए, ऑफ सीजन में इतना क्यों दें ! ड्राइवर भी रेट का पक्का, कहे कि एक पैसा कम नहीं ।

आधा घंटा हो गया और मन मारकर उसने जब मुझे 200 पर अकेले ले जाने की पेशकश की और मैं मान गया तो उसने एक और चांस लिया । तभी उसे कोई जान-पहचान का मिल गया जो आकर पीछे बैठ गया और उसके साथ दो और । इस तरह चार सवारी पूरी हो गई । आगे की सीट पर मैं और पीछे वे तीनों ।

नैनीताल से अभी निकले ही थे कि एक पीछे वाले ने टैक्सी वाले से कहा – “अल्समन भाई, जरा किनारे करके रोको, अपनी ससुराल का दर्शन करते चलें।”

पहली बार मैंने पीछे बैठे लोगों को मुड़कर देखा कि कौन से दामाद हैं । देखते ही मैं तो चौंक गया । काफी अजीब, खुरदरे और खतरनाक से चेहरे जैसे अक्सर जेल के फिल्मी सीन में दिखाई देते हैं । एक थोड़ा बड़ा और दो नौजवान ।

मैंने टैक्सी वाले से पूछा कि क्या है यहां !

“अरे कुछ नहीं साहब, नैनीताल जेल है, जहां से ये तीनों एक महीना पहले ही छूटे हैं ।”

“क्यों भाई, जेल में कैसे चले गए !” मैंने यूं ही पूछा ।

“अरे साहब, यह तो अपनी ससुराल है, आना-जाना लगा ही रहता है । अभी पिछले महीने ही तो एक केस में छूटे हैं पांच महीने बाद ।”

मैंने माहौल को थोड़ा नार्मल टर्न देने के लिहाज से पूछा – “क्यों ऐसा क्या कर रहे हैं आप लोग !”

“ कुछ खास नहीं साहब, हर वक्त इन पर दो-चार मर्डर, लूटिंग, गैंग्स्टर केस चलते ही रहते हैं । महीने में दो-बार कचहरी आना होता है और किसी केस में जेल हो जाती है । आज भी ये केस के सिलसिले में ही हलद्वानी से आए हैं, कोई नैनीताल टूर पर थोड़े ही हैं।”

अब तो मुझे पक्का हो गया कि आज इस टैक्सी वाले ने फांस लिया है । मन ही मन शुरू से ही उसकी हरकतों का आकलन किया तो पाया कि उसका तो सब कुछ योजनाबद्ध ही था मुर्गा फंसाने के लिए । ऑफ सीजन में 100 रुपए की जिद से सवारियों को बिठाने से मना करना, फिर ऐन वक्त पर परिचित का मिल जाना, फिर उसके साथ और दो लोगों का बैठ जाना और फटाक से चल देना । गेम तो बिल्कुल साफ था, मुझे ही कैसे समझ में नहीं आया ।

अपने गावदूपन पर एक बार फिर बहुत गुस्सा आया । यह हरेक पर आंख बंद करके विश्वास करने की आदत आजकल के जमाने में अच्छी नहीं ।

लेकिन अब क्या किया जा सकता है । सामान टैक्सी की डिक्की में है और सड़क पर बहुत आवाजाही भी नहीं है कि सहायता के लिए दूसरों को कह सकें या भाग सकें । वैसे आजकल कौन किसी की सहायता करके आफत मोल लेता है ! सबको अपनी-अपनी पड़ी है । और फिर ये तो छंटे हुए बदमाश हैं जो दिन दहाड़े सरे बाजार मर्डर कर देते हैं । उनसे किस राहगीर की हिम्मत होगी कुछ कहने की !

माहौल को सहज करने के लिहाज से ड्राइवर से ही कहा –“क्यों भाई, तीन-तीन मर्डरर, गैंग्स्टर को बिठा कर ले जा रहे हो तो सब सेफ तो है न !”

“ अरे साहब, ये क्या गेंग्स्टर हैं, अपने चेले हैं ।”

ओह नो ! सोचा था कि चार में से एक आदमी तो कुछ शरीफ सा है । वही कुछ करेगा । वह उनका भी बाप निकला । अपनी हालत कुछ बलि के बकरे की हो रही थी । यही सोच कर चुपचाप बैठा था कि न जाने कब वे टैक्सी रोकेंगे और मुझे उतरने का इशारा करेंगे और सब सामान-पैसे वगैरह लेकर वहीं छोड़ चलते बनेंगे ।

चलो कोई बात नहीं । तीन हजार ही तो हैं, एक घड़ी है, मोबाइल है और बैग में कपड़े और कुछ कागज हैं । एक क्रैडिट कार्ड है । ले लें और जान छोड़ें । कोई दूसरी टैक्सी रुकवाकर हालत बयान करेंगे और दिल्ली तक चलने के लिए कहेंगे जहां पेमेंट कर देंगे ।

फिर विचार आया कि ये तो पेशेवर मर्डरर हैं सब, इस मामूली से माल-असबाब से ही संतुष्ट न हुए तो क्या करेंगे ! शायद चलती टैक्सी में ही काम तमाम कर देंगे और बाहर लुढ़का देंगे या शायद बाहर उतार कर मारेंगे और जंगल में फेंक देंगे ।

यही सब दिमाग में चल रहा था ।

उधर मुझसे बेखबर वे एक के बाद एक अपने किस्से सुनाए जा रहे थे । सब मर्डर, डकैती, पुलिस, कचहरी के किस्से । एक भी ऐसी बात नहीं जिसमें मानवीय संवेदना का कोई आभास हो ।

कि अचानक एक खिड़की खुली और ताजा हवा का झोंका सा आया । उनमें से जो अधेड़ था वह अपनी स्कूल जाने वाली बेटी के बारे में कुछ कह रहा था कि उसकी टीचर फीस के लिए उसे बहुत तंग कर रही है सो एक दिन उसे टपकाना होगा ।

इसका मतलब है उसका घर-परिवार है और वह लड़की को स्कूल भेजता है और उसकी परवाह करता है ।

बस फिर क्या था! इसी में मैंने थोड़ी सेंध लगाई। बोला –“ यह हुई न कोई बात। आखिर आपको भी तालीम की अहमियत मालुम है। बच्ची को पढ़ा रहे हो।”

“अरे साब क्या बात कर रहे आप! एक नहीं पांच-पांच बच्चों को पांचवीं दर्जा तक पढ़ाया है । तीन अपने और दो दूसरी बीवी के गैलड़। उसकी दोनों लड़कियों की शादी भी कर चुका । अब यही एक लड़की रह गई है । कोई बंधी इन्कम तो है नहीं, काम मिल गया या हाथ लग गया तो कुछ पैसा आ जाता है, नहीं तो फाके पर चलते हैं। फीस भी कहां से दें । कोई इस बात को समझता थोड़े ही है । लोग समझते हैं मवाली हैं पैसा तो होगा ही।”

“ बहुत नेक काम कर रहे हैं आप बच्चों को पढ़ाकर। पढ़-लिख गए तो कुछ हुनर तो आ जायगा, अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे ।”

“कोशिश तो यही है साब ! लेकिन बहुत मुश्किल करते हैं सब। हमें देखते ही कोई स्कूल वाला बच्चे को लेता ही नहीं । ले भी लिया तो पहले तो और बच्चे ही तंग करते हैं, बाद में टीचर भी तंग करते हैं । अब हमारे घर में तो कोई माहौल नहीं, बच्चे अच्छी चीजें, बोलने-चालने का तरीका कहां से सीखेंगे। जब हम जेल के अंदर जाते हैं तो स्कूल वाले मौका देख बच्चों को निकाल बाहर करते हैं । बहुत मुश्किल है यह सब।”

“वैसे आपका नाम क्या है जनाब!”

“अरे साब क्यों शर्मिंदा करते हैं। जनाब-वनाब नहीं अपुन को खलील रिक्शावाला कहते हैं ।”

“वाह भई क्या नाम पाया है– खलील । जानते हैं खलील जिब्रान दुनिया के एक बहुत बड़े लेखक हुए हैं !”

“नई साब । अपुन के लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है । कभी स्कूल नहीं गया।”

“खैर, आप खलील के नाम राशि हैं तो अब उनके एक-दो किस्से तो सुन ही लीजिए।“

अब हम आपस में खूब अपनापा बिठा चुके थे और मित्रों की तरह बात कर रहे थे । मेरे मन से उनका डर निकल गया था और उनके मन से साहबी का खौफ । मैंने उन्हें खलील जिब्रान की दो लघु-कथाएं सुनाईं । सुनकर वे काफी देर तक तो मतलब की गहराई में गोते खाते रहे, फिर उसकी ऊंचाई का कुछ आभास करके बोले –

“साब हम तो जबसे आपको टैक्सी में देखा तो समझ गए कि यह साहब और लोगों की तरह कोई मामूली आदमी नहीं, खास है । साब क्या करते आप !”
“मैं भी खलील जिब्रान की जाति का एक मामूली सा लेखक हूं ।”

“ क्या बात है साब ।” खलील अपने साथियों से मुखातिब होकर बोला । “अरे यार ये लेखक बहुत बड़ी चीज होता है । अखबार वाले, टी.वी. वाले तो बस फटाफट वाले होते हैं । सैकड़ों साल की शेरो-शायरी सबको याद है । लेखक बहुत बड़ी चीज होता है।”

माहौल काफी अच्छा हो गया था। वे भी खुल गए थे। मौका देखकर मैंने पूछ ही लिया कि क्यों करते हो ये सब अपराध!

खलील बोला कि हम कहां करते हैं हमसे तो कराए जाते हैं। हम बाल-बच्चेदार गरीब अदमी हैं । हमें क्या चाहिए । बस हमें और परिवार को दो-जून रोटी मिल जाय और बच्चों की पढ़ाई का बंदोबस्त हो जाय तो हमें और कुछ नहीं चाहिए । इतना रिक्शा से हो जाता है।

“ तो फिर कौन कराता है ये सब अपराध!”

“पुलिस, और कौन! एक बार हमें किसी छोटे-मोटे कसूर में पकड़ लेती है और फिर हवालात में बंद कर पिटाई करती है और न जाने कौन से पिछले हत्याओं के केस जबरदस्ती कबूलवा लेती है। जब हमें लंबी सजा मिलती है तो फिर हमें बचाने के नाम पर हमसे अपराध कराती है और हम मजबूरी में सब करते हैं।’’

“ हैं! ये तो ज्यादती है। आप ऊपर शिकायत क्यों नहीं करते!”

“अरे साब क्या बातां करते आप। हम गरीब लोगों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। एक-के-बाद एक अपराध करते जाते हैं और फंसते जाते हैं। बहुत गुस्सा आता है पर क्या करें! कई लोगों ने तो बाहर आकर पुलिस को ही मार डाला।’’

इसी किस्सा-कहानी में काठगोदाम आ गया। मैं टैक्सी से उतरने लगा तो वे लोग बहुत भावुक हो गए। उतर कर पैर छूने लगे तो मैंने उठा गले से लगाया। अपना फोन सबको दे विदा ली ।

नहीं मालूम फिर कभी भेंट होगी या नहीं।

गाँव के लोग
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