छोटी सी उम्र में जिंदगी की तमाम कठिनाइयों का सामना करने वाली नूनी पूर्ति का चेहरा उस वक्त हारा हुआ दिखता है, जब वह इस भीषण गर्मी में पत्थरों से रिसते पानी को जमा कर घर ले जाने की जद्दोजहद करती है। 14 साल की यह आदिवासी लड़की जंगलों-पहाड़ों से महुआ चुनकर लौटी थी। मिट्टी के चूल्हे पर भात की हांडी चढ़ाकर वह पीने के लिए पानी जमा कर रही थी।
नूनी पूर्ति के बाबा बुधुआ पूर्ति इन दिनों पांव से लाचार हैं। वे अपने मिट्टी के जीर्ण-शीर्ण घर के बाहर बैठे थे। इसलिए नूनी पर घर संभालने का ज्यादा बोझ आन पड़ा है।
नूनी ने मुंडारी भाषा में बताया, ‘जब से होश संभाली हूं, इसी पेड़ के नीचे से रिसते पानी को डेकची में जमा करती हूं। फिर इसे लेकर ऊंचाइयां चढ़ती हुई घर ले जाती हूं।‘
ये तस्वीर बिरसा मुंडा की धरती खूंटी में जटुआ टोले की है। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 90 किलोमीटर और खूंटी जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर बीरबांकी पंचायत में आने वाला यह टोला आदिवासियों के लिए रिजर्व संसदीय क्षेत्र खूंटी का हिस्सा भी है।
झारखंड में लोकसभा की 14 सीटों में से कम से कम तीन सीटों पर देश भर की निगाहें होती हैं। इनमें बिरसा मुंडा की धरती खूंटी भी शामिल है।
केंद्र में जनजातीय मामलों तथा कृषि व किसान कल्याणमंत्री अर्जुन मुंडा खूंटी संसदीय क्षेत्र से बीजेपी का उम्मीदवार हैं।
2019 के चुनाव में अर्जुन मुंडा ने कांग्रेस उम्मीदवार कालीचरण मुंडा 1445 वोटों के अंतर से हराया था। इस बार भी अर्जुन मुंडा का सीधा मुकाबला कांग्रेस उम्मीदवार कालीचरण मुंडा से होता दिख रहा है।
खूंटी में 13 मई को चुनाव है। चुनाव की अधिसूचना जारी होने के साथ ही चुनावी सरगर्मियां जोर पकड़ने लगी है।
जंगलों से घिरा इलाका
लोकतंत्र के इस महापर्व में बिरसा मुंडा की धरती पर आदिवासियों का हाल जानने के लिए हम जंगलों-पहाड़ों वाले इलाके में पहुंचे थे। खूंटी के दूरदराज इलाके में फिलहाल चुनावों का शोर नहीं है। लोग बताते हैं कि तारीख नजदीक आने के बाद हलचल बढ़ेगी।
जंगलों-पहाड़ों से घिरे इलाके में दूर-दूर तक आदिवासी परिवारों को जिंदगी की जद्दोजहद करते हुए देखा। पहाड़ की चोटियों में बसे गांवों में पानी का हाहाकार मचा है। गर्मी की वजह से पहाड़ी नदियां सूख रही हैं। इससे भी जनजीवन पर प्रतिकूल असर पड़ता दिख रहा है।
बीरबांकी पंचायत से आगे बढ़ने पर कुटुम्बा टोला है। रास्ता नहीं होने की वजह से गाड़ी जटुआ टोला तक नहीं जा सकती थी। जंगलों में उबड़-खाबड़ रास्ते पर चार किलोमीटर पैदल चलते हुए हम जटुआ पहुंचे थे।
इस टोले में 21 आदिवासी परिवार रहते हैं। सभी 21 परिवारों के घर मिट्टी और लकड़ी के जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं।
जटुआ पहुंचने पर कुछ युवकों और महिलाओं ने ‘जोहार दीकू’ कहकर इमली के एक पेड़ के नीचे बैठने को कहा, जहां पहले से गांव के कई लोग बैठे हुए थे।
‘जोहार’ का मतलब अभिवादन करना और ‘दीकू’ का अर्थ बाहर से आने वाला अथवा बाहरी होता है।
बातचीत में पता चला कि हाल ही में इन 21 परिवारों ने तीन-तीन हजार रुपए आपस में इकट्ठे कर जेसीबी से मिट्टी कटवाया है। इसके बाद श्रमदान से करीब एक किलोमीटर तक रास्ता बनवाया है। इन परिवारों ने ये पैसे वनोत्पाद बेचकर जुटाए थे।
जटुआ टोला के अधिकतर लोग मुंडारी भाषा में बात कर रहे थे। कैरा सामद बताने लगे ‘रास्ता बनाने में जमा किए पैसे खर्च हो गए। आगे नून-तेल खरीदना मुश्किल होगा।‘
साऊ हासा का घर कई जगह धंस गया है और खपड़े भी टूटे पड़े हैं। वे बताते हैं, ‘मरम्मत के लिए पांच सौ रुपए के बांस खरीदे हैं। आगे और भी पैसे खर्च करने पड़ेंगे, पर हाथ खाली होने की वजह से काम शुरू नहीं कर पा रहे।’
इस बीच माथे पर पानी भरा डेकची, बर्तन लेकर जंगल की तरफ से कुछ बच्चे और महिलाएं दिखीं।
रंदाय टूटी बता रही थीं कि सिंगबोंगा (आदिवासियों के अराध्य) की कृपा है कि इस भारी गर्मी में भी डाड़ी (छेटे गड्ढे) में पहाड़ों का पानी रिसकर आ रहा है। गांव में एक भी कुआं या चापाकल नहीं है।
गांव के लोग बता रहे थे कि जंगल में एक जगह पर्याप्त पानी है, पर वहां भौरे के छत्ते लगे हैं। भौरों के हमले के डर से वहां से पानी लाने नहीं जाते।
जटुआ टोला में आज तक कोई सरकारी योजना नहीं पहुंची है। गांव के एक युवा शनिका मुंडा का कहना था, ‘सरकारी अनाज भर मिलता है, बाकी कोई भी योजना हमारे तक नहीं पहुंची। अनाज लेने के लिए लोगों को चार किलोमीटर दूर लुंपुगपीड़ी जाना पड़ता है।‘
आदिवासी युवकों की पीड़ा रोजगार को लेकर है। बिरसा टूटी का कहना था ‘हाथ को काम मिल जाता, तो जीवन स्तर में सुधर आता। सब कुछ जंगलों के भरोसे चलता है। ये जंगल नहीं होते, तो जीना मुश्किल हो जाता।‘
चुनावों के बारे में पूछे जाने पर कैरा सामद का कहना था, ‘पता नहीं कब है और कौन चुनाव लड़ रहे, पर टोले के लोग वोट देने बीरबांकी जाएंगे। अभी इस बारे में सामूहिक रूप से कोई चर्चा नहीं हुई है।‘
कैरा सामद का कहना था कि सरकार सड़क बना दे और घर, पानी का इंतजाम कर दे, तो उनकी दुनिया बदल जाएगी। इसके बाद उदासी के साथ कैरा सामद अपने घर के दरवाजे पर जाकर बैठ गए।
इधर पेंशन की आस में खुदी पूर्ति और निया पूर्ति यह समझ रहे थे कि कोई सरकारी बाबू गांव में आया है।
हाल ही में भाजपा ने चुनावों को लेकर संकल्प पत्र जारी किया है। इसमें और तीन करोड़ पक्का आवास देने का भी जिक्र है। इसकी भी चर्चा की गई है कि अब तक केंद्र सरकार ने चार करोड़ पक्का आवास जरूरमंदों को दिए हैं। इधर झारखंड की सरकार भी बीस लाख अबुआ आवास देने की योजना पर काम कर रही है।
इन सबके बाद भी जटुआ के आदिवासी परिवारों के हिस्से आवास की कोई योजना नहीं पहुंची है। जटुआ के अलावा खूंटी के सैकड़ों गांव-टोले में रहने वाले आदिवासी परिवारों को आजादी के 75 साल बाद भी एक अदद पक्का आवास का इंतजार है।
बिरसा की धरती और तस्वीर
जंगलों से पैदल लौटने के दौरान बीरबांकी पंचायत के पूर्व मुखिया जावरा पाहन बता रहे थे कि इस बार इमली, महुआ, लाह, चिरौंजी, कुसुम जैसे वनोपज पेड़ों पर कम आए हैं, जबकि बाजारों में उनके दाम अच्छे मिल रहे हैं। इससे भी जंगलों-पहाड़ों वाले इलाके में रहने वाले आदिवासियों की मुश्किलें बढ़ी हैं। उन्होंने कहा कि जटुआ टोला तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचे, इसकी कोशिशें जारी रहेगी।
सरकारी योजना, आदिवासियों के विकास, कल्याण और चुनावों को लेकर बातचीत के दौरान जवरा पाहन की यह पीड़ा भी झलकती रही कि बिरसा मुंडा के सपने साकार करने के तमाम दावे किए जाते रहे हैं, पर हाल-ए-सूरत नहीं बदलती।
जानकारी मिली कि बिरसा की जन्म स्थली उलिहातू से ही दर्जनों लोग काम की तलाश में दूसरे प्रदेशों में पलायन कर गए हैं। गांव में सिंचाई की सुविधा नहीं होने से भी लोगों में हताशा-निराशा है।
उलिहातू के पूर्व वार्ड सदस्य सामुएल तिर्की बताते हैं कि रोजगार बड़ा सवाल बना है। यहां गांवों में काम बामुश्किल मिलता है। काम मिला भी तो दिहाड़ी के 200 रुपए मिलते हैं। जबकि दूसरे प्रदेशों में 400-500 रुपए मिल जाते हैं। इसलिए युवा लगातार पलायन कर रहे।
सामुएल के मुताबिक ग्राम सभा की बैठकों में पानी, सिंचाई और रोजगार के सवाल पर चर्चा होती रही है। सरकारी तंत्र को भी दुखड़ा से वाकिफ कराया जाता है, लेकिन तस्वीर बदलती नहीं दिखती।
खूंटी जिला मुख्यालय से 30 किमी दूर पश्चिमी सिंहभूम की सीमा से सटे पंचायत राजस्व ग्राम इंदीपीड़ी के उड़ीकेल टोला से कम से कम दर्जन भर युवक रोजगार की तलाश में गांव से पलायन कर गए हैं।
गौरतलब है कि लोकसभा चुनावों को लेकर भाजपा ने जो संकल्प पत्र जारी किया है उसमें यह शामिल किया गया है कि बिरसा मुंडा की 150वीं जन्म जयंती को वर्ष 2025 में ‘जनजातीय गौरव वर्ष’ के रूप में मनाया जाएगा।
जहां जाएंगे, बेबसी नजर आएगी
बिरसा मुंडा की धरती पर कई दफा आना-जाना होता रहा है। दूरदराज के कई जगहों पर आते-जाते एक बदलाव ने भी इस बार ध्यान खींचा। वह था – खूंटी के कई इलाके अब पक्की सड़कों से जुड़ गए हैं। सड़कों के बन जाने से जनजीवन का स्तर भी बदला है, लेकिन पानी और रोजगार का दर्द कहीं ज्यादा गहरा है।
तपती दुपहरी में हम कई गावों से गुजरते रहे। रूक कर तस्वीरें उतारते रहे। युवाओं और बुजुर्गों से बातें कर हालात समझने की कोशिश करत रहे।
पड़ासू के पास काली सड़क के किनारे जंगल हैं। सड़क से दूर एक महिला जंगल से माथे पर पानी का बर्तन लेकर आती दिखीं। सानी मुंडा ने बताया यह तकलीफ रोजमर्रा में शामिल है।
खूंटी जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर तिनतिला पंचायत के कोवा और मुर्गीडीह में भी आदिवासी परिवारों के सामने पानी का संकट भीषण रूप धारण करता जा रहा है।
इसी तरह अड़की प्रखंड में मालूटी गांव की आदिवासी महिलाओं को डेकची भर पानी के लिए पहाड़ से नीचे उतरने के लिए एक किलोमीटर तक उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलना होता है।
जल जीवन मिशन
गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने 2019 में एक महत्वाकांक्षी योजना – जल जीवन मिशन की शुरुआत की है। इस मिशन का लक्ष्य था कि 2024 तक देश में नल के जरिए गांवो में रहने वाले हर घर तक पानी पहुंचाया जाएगा। इस योजना के तहत पर कैपिटा 55 लीटर पानी मुहैया कराया जाना है।
खूंटी के कई गांवों में यह योजना जमीन पर उतरी है, जबकि आदिवासियों की बड़ी आबादी को अब भी नल से जल का इंतजार है। इस गर्मी कई गांवों में बोरिंग फेल होने की खबरें भी मिल रही हैं। कई गावों में आधा-अधूरा काम हुआ है।
जल जीवन मिशन – हर घर जल को लेकर भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि झारखंड में इस योजना के तहत 62, लाख 24 हजार 363 हाउस होल्ड को जोड़ा जाने का लक्ष्य है। इसके विरूद्ध अब तक 32, 69, 166 ( 52. 49 प्रतिशत) हाउस होल्ड को टैप से जोड़ा जा सका है। हालांकि केंद्र सरकार कई दफा राज्य सरकार से इस योजना की प्रगति को लेकर आगाह भी कराती रही है।
सुबह से लेकर भर दुपहरी उबड़-खाबड़ रास्ते पर कभी पैदल चलना, कभी पक्की सड़कों पर गाड़ियों का सफर, जगह-जगह लोगों से बातचीत, तस्वीर उतारते, हालात समझते दिन ढलने लगा था। पानी की बोतलें खाली हो जाने पर कई मौके आए, जब डांड़ी का पानी से प्यास बुझाई। कुछ जगहों खट्टी इमली और महुआ का फल चखा।
इस सबके बीच एक सवाल मन को काफी देर तक मथता रहा कि रोजगार के अवसर क्यों नहीं मिल रहे। आदिवासी युवाओं में हताशा-निराशा क्यों है? गांव से लकर शहर तक के कुछ युवाओं को इन सवालों पर कुरेदने की कोशिशें की।
ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर रहे जोनास सुरीन अपनी तस्वीर लेने से मना करते है। इसके साथ ही वे बताने लगे कि खूंटी में बदलाव तो बहुत कुछ हुआ है, पर जहां से इस बदलाव की शुरुआत होनी थी, वह नहीं हो सका।
शहर का विस्तार हो रहा है। गांवों में दुकानें खुल रही हैं। सड़कें बन जाने से गाड़ियों की आवाजाही बढ़ी है, लेकिन ‘सिस्टम’ अब भी आखिरी पायदान पर खड़े लोगों तक पहुंचने या योजनाओं के पारदर्शी ढंग से जमीन में उतारने में नाकाम रहा है। रोजगार के अवसर अगर गांव में मिलने लगे, तो युवा पलायन क्यों करेंगे।
सुरीन आगे कहते हैं बताने लगे, पंचायत सचिवालय का हाल देखिये, अधिकतर जगहों पर कायदे से फंक्शनल नहीं हैं। पारंपरिक खेती से लोग जुड़े कैसें, जब सिंचाई का मुक्कमल साधन नहीं मिले। कई मौके आते हैं जब यह दर्द सालता है कि खूंटी ने देश में कई दिग्गज आदिवासी नेता दिए, लेकिन आदिवासियों का जीवन संघर्षों में ही गुजरता रहा है।