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आदिवासी हमेशा से ही सरकार और कॉरपोरेट के निशाने पर रहे हैं

पूरे देश के आदिवासी आज कॉरपोरेट के निशाने पर है और इन्हें भाजपा सरकार का पूरा समर्थन-संरक्षण हासिल हैं। सरकारों की इस कॉर्पोरेटपरस्ती के खिलाफ आम जनता के सभी तबकों की लामबंदी सुनिश्चित करनी होगी और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए एक व्यापक संघर्ष छेड़ना होगा।

भाजपा आदिवासियों के विकास और उनकी भलाई के बारे में लंबे चौड़े-दावे करती है। इन दावों की पड़ताल जल-जंगल-जमीन पर उनके स्वामित्व के अधिकार के संदर्भ में की जानी चाहिए, क्योंकि अधिकांश आदिवासी आज भी वन क्षेत्र में रहते हैं और उनकी आजीविका भी जंगलों से प्राप्त उत्पादों पर ही निर्भर करती है। आदिवासी वनाधिकार कानून में इस बात को स्वीकार किया गया है कि आदिवासी समुदाय सदियों से ऐतिहासिक अन्याय से पीड़ित है और यह कानून उनकी इस पीड़ा को दूर करेगा।

मध्यप्रदेश में भाजपा पिछले 20 सालों से राज कर रही है। इसलिए आदिवासियों की हालत जानने-समझने के लिए इस राज्य का अध्ययन उपयोगी हो सकता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी 1.53 करोड़ थी। आज उनकी संख्या 18 करोड़ से अधिक होने का अनुमान लगाया जा सकता है। आदिवासियों पर चल रहे मुकदमों को माफ करने की घोषणा भाजपा का प्रिय शगल है, क्योंकि यह एक लोक लुभावन घोषणा होती है। इसी शगल के चलते मई 2024 में भाजपा राज्य सरकार ने घोषणा की थी कि आदिवासियों पर चल रहे 8000 आपराधिक मुकदमों को वापस लिया जाएगा। भाजपा सरकार ने इस पर काफी वाहवाही भी बटोरी थी। लेकिन मुख्य वन संरक्षक, भोपाल ने यह जानकारी दी है कि 9 महीनों में लगभग 4500 मुकदमों को ही वापस लिया गया है।

लेकिन क्या आदिवासियों पर केवल 8000 मामले हीं दर्ज थे? वन विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार, वर्ष 2015-24 के बीच दस सालों में वन विभाग ने पूरे प्रदेश में आदिवासियों पर 5,18,091 मुकदमे दर्ज किए हैं। यदि 2015 से पहले के भी इतने ही मुकदमे मान लिए जाएं, तो आज मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय अपने खिलाफ लगभग 10 लाख मुकदमे झेल रहा है। इसका अर्थ है कि औसतन 18-20 आदिवासियों में से एक आदिवासी पर वन विभाग ने मुकदमा ठोंक रखा है। इतने बड़े पैमाने पर अन्य किसी भी राज्य में आदिवासी समुदाय मुकदमेबाजी में फंसा नहीं होगा।

भाजपा सरकार ने जिन 4500 मुकदमों को वापस लिया है, उसका विश्लेषण करें, तो आदिवासियों के खिलाफ ये मुकदमे जिन अपराधों के लिए दायर किए गए हैं, उनमें प्रमुख हैं : जंगल की कटाई; खनन; अतिक्रमण; तेंदूपत्ता, शहद, बांस, कुकुरमुत्ते जैसे लघु वनोपजों का संग्रहण; खूंखार की श्रेणी में नहीं आने वाले जंगली जानवरों, जैसे सुअर आदि का और पक्षियों का शिकार; मछली पकड़ना और कृषि और घर निर्माण के लिए और जलाने के लिए सूखी लकड़ी का संग्रहण आदि। ये सभी मुकदमे वनाधिकार कानून को दरकिनार कर भारतीय वन अधिनियम 1927 तथा वन्य प्राणी संरक्षण कानून 1972 के तहत दर्ज किए गए हैं।

जिन वन अपराधों के लिए आदिवासियों पर मुकदमे दायर किए गए हैं, वे सभी वनाधिकार कानून के अंतर्गत अपराध नहीं रह गए हैं, क्योंकि आदिवासियों के साथ सदियों से किए जा रहे ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए वनों पर और वनों के उपयोग और प्रबंधन से संबंधित सभी अधिकार आदिवासी समुदाय को दे दिए गए हैं। इसके साथ ही, वनाधिकार कानून में यह प्रावधान किया गया है कि यदि अन्य किसी भी प्रचलित कानून के प्रावधान इस कानून से टकराते हैं, तो वनाधिकार कानून को सर्वोच्चता दी जाएगी। इसलिए जिन वन अपराधों पर आदिवासियों के खिलाफ मुकदमे बनाए गए हैं, वे अवैध है और सभी 5.2 लाख मुकदमे वापस लिए जाने की/निरस्त किए जाने की जरूरत है। वे सभी मुकदमे, जो वनाधिकार कानून लागू होने के बाद आदिवासियों पर थोपे गए हैं, उसके लिए प्रशासन के अधिकारी पूरी तरह से दोषी हैं और फर्जी मुकदमे थोपे जाने के अपराध में संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने की जरूरत है।

किसानों और आदिवासियों के लिए एक बड़ी समस्या आवारा पशुओं और जंगली जानवरों, विशेषकर सुअरों से खेती बाड़ी की रक्षा करना है। मध्यप्रदेश और पूरे देश में ही किसान समुदाय इस समस्या का सामना कर रहा है, लेकिन सरकार और प्रशासन को आदिवासियों के खेतों और खेती को हो रहे नुकसान से कोई लेना-देना नहीं है। हां, इन जंगली पशुओं के हमलों का सामना करते हुए अपनी खेती और जीवन की रक्षा के लिए यदि कोई पशु मारा जाता है, तो वन विभाग का अमला आदिवासियों को सजा देने के लिए जरूर सक्रिय हो जाता है।

लेकिन सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है, जबकि वनाधिकार कानून जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों को मालिकाना हक देता है? इसका उत्तर भी बहुत सीधा है : आज केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारें जल, जंगल, जमीन, खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों को नहीं, कॉरपोरेटों को स्वामित्व देना चाहती है, ताकि वे इन संसाधनों का दोहन करके अपनी तिजोरियों को भर सकें। इस लूट का एक हिस्सा भाजपा और संघी गिरोह के पास भी जा रहा है। इसलिए वन भूमि पर काबिज आदिवासियों को पट्टा देकर मालिकाना हक देने के बजाए उन्हें अपने दमन उत्पीड़न का शिकार बना रहे हैं, ताकि उन्हें आसानी से वन भूमि से विस्थापित होने के लिए मजबूर किया जा सके।

यह केवल मध्यप्रदेश की कहानी नहीं है। यह छत्तीसगढ़ की भी कहानी है। यहां अडानी को कोयला खनन के लिए हसदेव का जंगल देने के लिए फर्जी ग्राम सभाएं आयोजित होती हैं, जिस वन भूमि के पट्टे आदिवासियों को दिए भी गए हैं, उन्हें छीना जा रहा है। आरएसएस-भाजपा प्रायोजित सलवा जुडूम अभियान के बारे में तो पूरा देश जानता है, जिसके जरिए आदिवासियों को सैकड़ों गांवों को खाली करने के लिए मजबूर किया गया था और अंततः सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही इस मुहिम पर रोक लगी थी।

अमूमन पूरे देश के आदिवासी आज कॉरपोरेटों के निशाने पर है और इन्हें भाजपा सरकार का पूरा समर्थन-संरक्षण हासिल हैं। सरकारों की इस कॉर्पोरेटपरस्ती के खिलाफ आम जनता के सभी तबकों की लामबंदी सुनिश्चित करनी होगी और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए एक व्यापक संघर्ष छेड़ना होगा। देश पर कॉर्पोरेट-निजाम थोपने वाली संघ-भाजपा और उसकी सहयोगी ताकतों के खिलाफ जन पक्षधर विकल्प के आधार पर राजनैतिक-सामाजिक ताकतों की कतारबंदी और जुझारू जन संघर्ष ही इसका मुकाबला कर सकती है।

संजय पराते
संजय पराते
लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

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