न्याय के अनेक रूप होते हैं। यह इस वजह से भी कि जिनके उपर इसकी जिम्मेदारी होती है, उनकी प्रतिबद्धताएं अलग-अलग होती हैं। इसे चाहें तो सापेक्षवाद के सिद्धांत का असर भी कह सकते हैं। मतलब यह कि न्यायकर्ता की प्राथमिकता इस बात पर निर्भर करती है कि न्याय की आकांक्षा रखनेवाला कौन है और यह भी कि अन्यायी पक्ष कौन है। फिर इस मामले में यह बात भी महत्वपूर्ण होती है कि सत्ता की रज़ा क्या है। तब जाकर एक न्यायकर्ता काम करता है। हालांकि एक और पक्ष है, जिसकी चर्चा सामान्य तौर पर न्यायपालिका में नहीं की जाती है, लेकिन वह भारतीय समाज का सहज सत्य है। और यह है जातिवाद। कहने का मतलब यह कि न्यायकर्ता की अपनी जाति, धर्म व लिंग का महत्व भी कम नहीं होता है। इन सभी को हम चाहें तो न्यायपालिका के सूत्र के वैरिएबुल्स की संज्ञा दे सकते हैं।
थोड़ा इस विषय पर विचार करते हैं। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में सत्ता को एक नियत वैरिएबुल मान लेते हैं, जिसके केंद्र में हिंदुत्व है और वह हर हाल में अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए प्रतिबद्ध है। वह इतना प्रतिबद्ध है कि वह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को राज्यसभा भेजने की रिश्वत दे सकता है और मुख्य न्यायाधीश भी सत्ता के हितों का ख्याल रखते हुए फैसला सुना सकता है। उदाहरण के लिए हम चाहें तो रंजन गोगोई का नाम ले ही सकते हैं। बाबरी विध्वंस मामले में उनकी अध्यक्षता वाली खंडपीठ का फैसला एक नजीर है।
अब जो दूसरे वैरिएबुल्स हैं, उनके उपर विचार करते हैं। एक गणितीय सूत्र मेरी जेहन में आ रहा है– abc+de+2x + fg = Justice.
इसमें a धर्म, b पीड़ित की जाति, c वर्ग, d जज की जाति, e लिंग, f को आरोपी की जाति, g को आरोपी का धर्म और x को सत्ता माना जा सकता है। इस सूत्र को समझना बेहद आसान है। मसलन, अखलाक के परिजनों का उदाहरण ले सकते हैं। अखलाक एक व्यक्ति का नाम है, जिसकी हत्या गोकशी के आरोप में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर कर दी गयी। इसमें तबरेज अंसारी का उदाहरण भी एकदम सटीक बैठता है। इन दोनों के मामले में मौजूदा आरएसएस की सत्ता के हिसाब से धर्म यानी a का मान 1 है। क्योंकि आरएसएस केवल हिंदू धर्म को ही धर्म मानता है। शेष धर्मों के लिए उसका मान केवल एक है। वैसे भी आरएसएस एक देश और एक धर्म की बात कहता है। लेकिन अखलाक और तबरेज के मामले में उसकी जाति का मान ऋणात्मक है। ऐसे में c के मान कोई खास महत्व नहीं रह जाता है। इसलिए इसे शून्य मान लेना ही बेहतर है। यदि वह अशराफ होता तो a, b और c का गुणनफल का कोई सकारात्मक मान होता। वहीं d, e, f और g तीनों का मान सकारात्मक है। इस लिहाज से न्याय का निर्धारण किया जा सकता है। अखलाक के मामले में तो उसकी हत्या के बाद उसके परिजनों पर मुकदमा चलाया गया और तबरेज के मामले में उसके हत्यारे को भाजपा के नेताओं ने अदालत द्वारा न्याय के बाद फूल-मालाओं से लाद दिया था।
[bs-quote quote=”मौजूदा परिप्रेक्ष्य में सत्ता को एक नियत वैरिएबुल मान लेते हैं, जिसके केंद्र में हिंदुत्व है और वह हर हाल में अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए प्रतिबद्ध है। वह इतना प्रतिबद्ध है कि वह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को राज्यसभा भेजने की रिश्वत दे सकता है और मुख्य न्यायाधीश भी सत्ता के हितों का ख्याल रखते हुए फैसला सुना सकता है। उदाहरण के लिए हम चाहें तो रंजन गोगोई का नाम ले ही सकते हैं। बाबरी विध्वंस मामले में उनकी अध्यक्षता वाली खंडपीठ का फैसला एक नजीर है।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उपरोक्त सूत्र के आधार पर आप चाहें तो धर्म: रक्षति रक्षत: का अर्थ भी बखूबी समझ सकते हैं। मतलब यह कि धर्म की रक्षा करनेवाले की रक्षा ही धर्म कर सकता है। अब दलित, पिछड़े, आदिवासी और पसमांदा मुसलमान तो धर्म की रक्षा करने से रहे।
अलबत्ता नुपूर शर्मा वाले मामले में ही देखें। कल सुप्रीम कोर्ट के अवकाशकालीन न्यायाधीशद्वय न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला ने नुपूर शर्मा के मामले में अपनी तरह का न्याय किया। मतलब यह कि उनकी खंडपीठ ने उनकी इस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने अनुरोध किया था कि उनके खिलाफ सारे मुकदमे दिल्ली हस्तांत्तरित कर दिया जाय। खंडपीठ ने उनकी याचिका को अहंकारपूर्ण बताया कि उन्होंने अहंकारवश मजिस्ट्रेटों को कमतर आंका और सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।
सनद रहे कि यह वही खंडपीठ है जिसने हाल ही में शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे की याचिका को स्वीकार कर लिया था और अपना फैसला भी सुनाया था, जिसके बाद उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और शिंदे महाराष्ट्र के बीसवें मुख्यमंत्री बन गए। उस मामले में उपरोक्त जजों को अहंकार नजर नहीं आया था। हालांकि तब भी महाराष्ट्र हाईकोर्ट तक को नजरअंदाज किया गया था। इस मामले में हुए ‘न्याय’ को उपरोक्त गणितीय समीकरण के आधार पर समझा जा सकता है।
[bs-quote quote=”कल न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की खंडपीठ ने यह टिप्पणी की कि उनके विवादित बयान से देश में आग लग गयी और उदयपुर की घटना के लिए भी वही जिम्मेदार हैं। खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस को भी डांट लगायी कि उसने नुपूर शर्मा को गिरफ्तार क्यों नहीं किया और उनके लिए रेड कारपेट क्यों बिछाया।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मुझे स्मरण हो रहा है कि न्यायमूर्ति सूर्यकांत की मजलिस को देखने का मौका मुझे भी मिला है। वह 2018 का साल था और तब न्यायमूर्ति सूर्यकांत पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायाधीश हुआ करते थे। उन दिनों हरियाणा के डाडम इलाके में अवैध पत्थर खनन को लेकर एक मामला था, जिसकी जमीनी रिपोर्टिंग करने गया था। संयोग ही था कि एक दिन बाद ही मामले की सुनवाई हाईकोर्ट में तय थी। हालांकि तब न्यायमूर्ति सूर्यकांत का रूख राज्य सरकार के सापेक्ष ही था। यह इसके बावजूद कि उनकी अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने खनन कंपनी को डांट लगायी थी कि खनन के दौरान पर्यावरणीय मानदंडों का ध्यान क्यों नहीं रखा जा रहा है।
खैर, नुपूर शर्मा वाले मामले पर लौटते हैं। कल न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की खंडपीठ ने यह टिप्पणी की कि उनके विवादित बयान से देश में आग लग गयी और उदयपुर की घटना के लिए भी वही जिम्मेदार हैं। खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस को भी डांट लगायी कि उसने नुपूर शर्मा को गिरफ्तार क्यों नहीं किया और उनके लिए रेड कारपेट क्यों बिछाया।
मगर न्याय? खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस को यह आदेश नहीं दिया कि नुपूर शर्मा को अविलंब गिरफ्तार करे। खंडपीठ ने ऐसा आदेश नहीं दिया तो यह समझने के लिए उपरवर्णित न्याय के गणितीय सूत्र का अवलोकन करें। हां, वैरिएबुल्स का मान आपको खुद निर्धारित करना होगा।
[…] न्याय और अन्याय इस गणितीय प्रमेय से सम… […]
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