मानव सभ्यता के इतिहास का अध्ययन ये बताता है कि हानि-लाभ के तमाम गुणा-गणित के बावजूद मनुष्य लगातार बेहतर हुआ है, उसने प्रकृति के साथ तालमेल के अपने काम को लगातार परिष्कृत किया है, एक समाज के रूप में अपने रहन-सहन को भी लगातार बेहतर किया है, इस आधार पर ये आशा की जाती है कि आज की तमाम चुनौतियों और कठिनाइयों के बावजूद मनुष्य एक समाज के रूप में अपने को आज से बेहतर करेगा और बेहतरी की ओर मनुष्य का ये सफ़र लगातार जारी रहेगा। लेकिन मानव सभ्यता के विकास का अध्ययन ये भी कहता है कि मनुष्य की दुनिया में प्रगतिशील और प्रतिगामी ताकतें एक ही साथ और हमेशा ही मौजूद रहती हैं, कभी प्रगतिशील ताकतें बलवती हो जाती हैं तो कभी प्रतिगामी ताकतें।
एक और बात पर ध्यान देना चाहिए कि प्रतिगामी ताकतों की जीत वक्ती तौर पर हो जाये तो भी अंतिम हार उन्हीं की होती है, ये भी कि जो ताकतें आज प्रगतिशील हैं, वो कल को प्रतिगामी भी हो सकती हैं। प्रगतिशील धारा के साथ खड़े हुए लोगों को हर काल में लड़ते रहना होता है, वे जब अल्पसंख्यक होते हैं तब भी लड़ते हैं और जब उनकी ताक़त बेहतर हो जाती है तब भी लड़ते हैं, वो पहले समाज को बेहतर करने के लिए लड़ते हैं और जब अपना मकसद पूरा कर लेते हैं तो उस समाज को मज़बूत करने के लिए लड़ते हैं। मानव सभ्यता के विकास में ये अन्तर्द्द्वंद्व हमेशा चलता रहता है। प्रगतिशील ताकतों के लिए ये ज़रूरी होता है कि वो तत्कालीन समाज की मुश्किलों को पहचानें, उन्हें दूर करें, दूर करने में आने वाली कठिनाइयों की पहचान करें, इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए ज़रूरी ताक़त इकठ्ठा करें और समाज को बदल डालें। ये एक लम्बी और सतत चलने वाली प्रक्रिया है।
ये बात साफ़ है कि देश की अर्थव्यवस्था संकट में है, देश की जनता की बुनियादी ज़रुरतें पूरी नहीं होगीं ये निश्चित है, अभी लोग जो दिक्क़तें अनुभव करते हैं ये और बढ़ेगी ही, ऐसा होने पर लोगों में गुस्सा पैदा होगा, ये गुस्सा बग़ावत में भी बदलेगा, लेकिन अगर लोग मुसलमानों के प्रति नफ़रत से भर दिए जाएँ, तो उनके गुस्से को बार-बार मुसलमानों की ओर मोड़कर पूँजीवादी लूट को सुरक्षित कर लिया जायेगा।
28 जून, 2022 को उदयपुर में दो धर्मांध मुसलमान नौजवानों ने एक हिन्दू व्यक्ति कन्हैया लाल की हत्या कर दी। कन्हैया लाल सिलाई का काम करते थे। हाल ही में नूपुर शर्मा के पैगम्बरे इस्लाम पर अमर्यादित टिप्पणी से मुसलमान नाराज़ हैं और जो लोग नूपुर शर्मा का समर्थन कर रहे हैं उनकी नाराज़गी उनसे भी हो जा रही है, ये दोनों नौजवान जिन्होंने कन्हैया लाल की हत्या की, वो कन्हैया लाल की ऐसी ही एक व्हाट्सएप पोस्ट से नाराज़ थे।
इस घटना की जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई, उसकी पड़ताल से देश के सियासी हालात को समझा जा सकता है, यही नहीं प्रगतिशील और प्रतिगामी ताकतों की भी पहचान हो सकती है और प्रगतिशील खेमे की जो चुनौतियाँ हैं, उन्हें भी पहचाना जा सकता है। इस लेख में फ़िलहाल हम इसी की कोशिश कर रहे हैं।
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आज के समय में भारत में संसदीय सियासत की मुख्य धारा हिन्दुत्व है, आरएसएस समूह सवर्ण हिन्दुओं के हितों पर आधारित सियासत करता है जिसे सामान्य टर्म में हम हिन्दुत्व कहते हैं। हिन्दुत्व की सियासत ने कभी अपना मंतव्य पूरी तरह साफ़ तो नहीं किया लेकिन इतना स्पष्ट है कि उनकी सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था जाति व्यवस्था पर आधारित होगी, यानि एक समूह जो उत्पादन करेगा लेकिन सम्पदा और सम्मान पर यहाँ तक कि खुद के शरीर पर भी उसका हक़ नहीं होगा, दूसरा समूह उपभोग करेगा लेकिन कम से कम शारीरिक श्रम तो नहीं करेगा, सम्मान और सम्पदा पर इसी समूह का हक़ होगा। देश की अर्थव्यवथा पर कुछ चुनिन्दा पूँजीपतियों का अधिकार होगा। ये समाज आज भले ही बहुत लोगों का सपना हो लेकिन इतिहास दृष्टि यही कहती है कि ये पूरा नहीं होगा लेकिन इस सपने को पूरा करने की कोशिशों में देश को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
जाति व्यवस्था पर आधारित कोई भी राजनीतिक एकता आज के दौर में तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक परस्पर विरोधी और असमान अवस्था वाले सभी जाति के लोग राजनीतिक रूप से एक साथ न आयें, ये तभी संभव है जब हिन्दुत्व के सामने एक बाहरी दुश्मन खड़ा किया जाए। भारत में मुसलमान इसी तरह का दुश्मन है।
आरएसएस समूह जिस सियासी धारा को लगातार आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है उसे अमूमन हम उग्र हिन्दुत्व कहते हैं, लेकिन दूसरे संसदीय दल इसका विरोध नहीं करते, बल्कि इसी में तलछट बंटोरने की कोशिश करते हैं, ऐसा करने के पीछे दो कारण होते हैं, पहला ये कि हिन्दुत्व अब हिन्दू समूह के बड़े हिस्से में स्वीकार्य हो गया है, अगर कोई संसदीय दल इसका विरोध करेगा तो उसे बहुमत की नाराज़गी झेलनी पड़ेगी। दूसरे, आरएसएस समूह के सामने खड़ी तमाम पार्टियों के पास कोई राजनीतिक एवं आर्थिक विकल्प नहीं है जिसे वो जनता के सामने रखें और जनसमर्थन हासिल करें।
यहीं पर एक और सवाल खड़ा होता है कि देश के करोड़ों लोग क्या बेवक़ूफ़ हैं जो उन्हें अपना हित या अहित नज़र नहीं आ रहा है? इस सवाल पर दो तरह से सोचने की ज़रूरत है। एक तो जनता के सामने सच में कोई ऐसा विकल्प फ़िलहाल नहीं है जिसे वो अपने लिए बेहतर समझें। आरएसएस समूह के हार्ड हिन्दुत्व के सामने कांग्रेस और दूसरे दलों का सॉफ्ट हिन्दुत्व कोई विकल्प नहीं है। इसलिए जनता की समझदारी पर सवाल उठाने के हालात तो बिलकुल भी नहीं है। दूसरे, संसदीय दल, मीडिया और धर्म के धंधे में लगे हुए लोग लगातार प्रचार के ज़रिये जनता की चेतना को प्रतिगामी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि पहले ही आजाद भारत में जनचेतना को उन्नत करने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
[bs-quote quote=”कन्हैया लाल की हत्या के विरोध में देश के कई इलाक़ों में हिन्दू समुदाय की ओर से प्रदर्शन हुए, इनमें फिर से मुसलमान, इस्लाम और पैगम्बरे इस्लाम के विरुद्ध अपमान जनक नारे लगाये गये, लेकिन लेख लिखने तक इन विरोध-प्रदर्शनों में शामिल किसी व्यक्ति पर कानूनी कार्यवाही की कोई ख़बर नहीं है। ये भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि दर्जनों मुसलमानों की हत्या में शामिल हिन्दू अतिवादियों के तार किसी दूसरे देश या किसी आतंकवादी संगठन से नहीं जोड़े गये लेकिन कन्हैया लाल के मामले में ऐसा किया गया, यहाँ तक पुलिस अधिकारी देवेन्द्र सिंह जो एक आतंकवादी को साथ लेकर घूम रहा था, उसके तार भी पाकिस्तान से नहीं जुड़े।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…
यहाँ एक और पहलू पर ध्यान देना होगा, इस वक़्त पूँजीवादी लूट चरम पर है, हज़ारों करोड़ के घोटाले लगातार होते ही रहते हैं, बैक फ्रॉड करके कितने ही लोग देश छोड़ चुके हैं, लाखों-करोड़ रुपये काले धन में बदल कर देश या देश के बाहर किसी बैंक में जमा हो चुका है, लाखों-करोड़ों का क़र्ज़ NPA हो चुका है, यानि लगभग डूब चुका है, देश के बड़े पूँजीपति लगातार बैंकों में रखे आम आदमी के पैसे को इस्तेमाल कर रहे हैं और ये पैसा वापस आ ही जायेगा, इस बात की फ़िलहाल कोई गारंटी नहीं है, देश के सबसे बड़े उद्योगपति गौतम अडानी फ़िलहाल सबसे बड़े कर्ज़दार भी हैं। उनकी कंपनियों पर 2.22 लाख करोड़ का फ़िलहाल क़र्ज़ है और देश की संपत्तियां औने-पौने दाम पर बेचने का सिलसिला चल ही रहा है।
नतीजे में आम लोगों का जनजीवन इससे बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, इस दौरान अगर लोगों को धर्म या ऐसे ही किसी जज़्बाती मुद्दे में न उलझाया जाए तो उन्हें ये लूट दिखाई देने लगेगी, हालांकि धर्म की ओट में ये लूट बहुत दिनों तक जारी नहीं रह पायेगी, लोग ज़ल्दी ही इसे पहचान लेंगे, लेकिन पूँजीवादी लूट फ़िलहाल सुरक्षित है, कल जब धर्म की ओट भी काम न करेगी तो इनका थिंक टैंक मुमकिन है कोई और उपाय ढूँढ लेगा।
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ये वो सूरते हाल है, जिसमें साम्प्रदायिक सियासत परवान चढ़ रही है। अब भारतीय जनमानस पर साम्प्रदायिक सियासत के असर की पड़ताल की जाये। इसके लिए उदयपुर के कन्हैया लाल की हत्या की प्रतिक्रिया के विश्लेषण को हम विमर्श का जरिया बनायेंगे। हत्या के आरोपियों को तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया, मुस्लिम समुदाय ने हत्या के आरोपियों को हीरो नहीं बनाया, जैसा कि शंभू रैगर को हिन्दू अतिवादियों ने बनाया था, मुसलमानों ने इनके परिवारों के आर्थिक मदद का भी आह्वान नहीं किया जैसा कि शम्भू रैगर के मामले में हिन्दुओं की ओर से हुआ था, इन्हें मुस्लिम समाज की ओर से किसी तरह का सम्मान भी नहीं मिला। इसके विपरीत मुस्लिम समुदाय इनके साथ सख्त कार्यवाही की मांग कर रहा है।
प्रशासन ने यहाँ जो तत्परता दिखाई है वैसी ही तत्परता अमूमन उन आरोपियों पर नहीं दिखाई जाती जो मुसलमानों की हत्या करते हैं। याद रहे अभी तक नूपुर शर्मा के ख़िलाफ़ कोई कानूनी कार्यवाही नही की गयी है, जबकि उनकी वजह से कई जानें जा चुकी हैं। ये भी देखना होगा कि हर उस अपराधी के समर्थन में लोग खड़े हुए जिसने किसी मुसलमान की साम्प्रदायिक आधार पर हत्या की, जबकि आरोपी के मुसलमान होने की स्थिति में एक भी मुसलमान आरोपी के समर्थन में नहीं आया, बावजूद इसके मुसलमान, इस्लाम और पाकिस्तान को लेकर लगातार बहस जारी है।
कन्हैया लाल के परिवार को सरकार 50 लाख की आर्थिक सहायता दे रही है, ट्विटर पर पढ़े-लिखे उच्च-पदस्थ हिन्दुओं की एक ऑनलाइन मीटिंग में शामिल हुआ, वो मृतक के परिवार के लिए एक करोड़ का फंड जुटा रहे हैं, अब दूसरा पहलू देखिये, अफाराजुल को शम्भू रैगर ने मारा था, वो हत्या भी इसी तरह बेहद नृशंस तरीक़े से की गयी थी, लेकिन मृतक के परिवार को कोई सहायता नहीं मिली थी। हाँ, शम्भू रैगर को ज़रूर मुसलमानों से नफ़रत करने वाली जनता ने आर्थिक सहयोग दिया और भगवान राम की तरह उसकी झांकी भी बनाई। आसिफा के बलात्कार और हत्या के आरोपियों के पक्ष में भी तिरंगा यात्रा निकाली गयी थी, इसी तरह अख़लाक़ के हत्यारों के लिए नौकरी का इंतजाम किया गया था। इस तरह के और भी कई उदाहरण हैं। यानि मुसलमानों के लिए नफ़रत देश की जनता के एक बड़े हिस्से में बैठाई जा चुकी है। यहाँ ये भी देखने की ज़रूरत है कि जिस तरह आज इस्लाम और मुसलमान को इस हत्या के सन्दर्भ में डिस्कस किया जा रहा है इसी तरह दर्जनों मुसलमानों के हिन्दू अतिवादियों द्वारा क़त्ल पर हिन्दू समाज या हिन्दू धर्म पर बहस नहीं की गयी। कई मामलों में तो मीडिया ने मुद्दे को भटकाने की भी भरपूर कोशिश की।
कन्हैया लाल की हत्या के विरोध में देश के कई इलाक़ों में हिन्दू समुदाय की ओर से प्रदर्शन हुए, इनमें फिर से मुसलमान, इस्लाम और पैगम्बरे इस्लाम के विरुद्ध अपमान जनक नारे लगाये गये, लेकिन लेख लिखने तक इन विरोध-प्रदर्शनों में शामिल किसी व्यक्ति पर कानूनी कार्यवाही की कोई ख़बर नहीं है। ये भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि दर्जनों मुसलमानों की हत्या में शामिल हिन्दू अतिवादियों के तार किसी दूसरे देश या किसी आतंकवादी संगठन से नहीं जोड़े गये लेकिन कन्हैया लाल के मामले में ऐसा किया गया, यहाँ तक पुलिस अधिकारी देवेन्द्र सिंह जो एक आतंकवादी को साथ लेकर घूम रहा था, उसके तार भी पाकिस्तान से नहीं जुड़े। इससे एक बात तो साफ़ है कि सभी सियासी दल भले ही उनका नारा, उनका झंडा और उनके घोषित उद्देश्य कुछ भी हों, मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक साथ खड़े हो जाते हैं क्यूंकि सभी की निगाह बहुसंख्यक वोट बैंक पर ही होती है।
जो लोग सत्ताधारी दल के मुखर आलोचक हैं, वो भी इस्लाम और मुसलमान के भीतर कन्हैया लाल के क़त्ल की वजह ढूँढ रहे हैं। ये कोई पहली बार नहीं हो रहा है। हिन्दू समुदाय के उन्मादियों को ‘बहका हुआ’, ‘भटका हुआ’, ‘मानसिक रूप से बीमार’ आदि कहते हुए उनके प्रति सॉफ्ट रहने की कोशिशें पहले भी हुईं हैं। लेकिन उन्मादी अगर मुसलमान हुआ तो दुनिया भर के मुसलमान उस उन्मादी के कृत्य के लिए जिम्मेदार ठहरा दिए जाते हैं।
सोशल मीडिया में प्रबुद्ध समझा जाने वाला वर्ग लगातार इसी तरह विमर्श कर रहा है। यहीं पर ज़रूरी है कि ये भी देख लिया जाए कि प्रतिगामी और प्रगतिशील ताकतें कौन हैं। फ़िलहाल देश की प्रतिगामी सियासत की प्रतिनिधि ताक़त आरएसएस समूह है और उनका मुख्य सियासी टूल मुसलमानों के प्रति नफ़रत है। इसलिए देश की जनता, तमाम सियासी लोग, लेखक, कवि, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी अगर मुसलमानों के प्रति नफ़रत से भरे हुए हैं तो वे आरएसएस के साथी हैं।
बहुत से लोगों को ये बात बुरी लगेगी, खासतौर पर जो लोग सत्ताधारी दल के आलोचक हैं, जो दूसरे संसदीय दालों के पैरोकार हैं या स्वतंत्र बुद्धिजीवी हैं, वो मेरे इस निष्कर्ष से सहमत नहीं होगे। लेकिन यहीं पर सोचिये कि जब मुसलमानों को सामने रखकर आपसे कहा जाता है कि इनके विरोध में वोट दें, तो आप चूंकि मुसलमानों से नफ़रत करते हैं इसलिए आसानी से हिन्दू साम्प्रदायिकता आपका चुनाव बन जाता है। यही कारण है कि बेरोजगार नौजवान, परेशान किसान, संघर्ष करता हुआ कर्मचारी सरकार से लगातार लड़ रहा है लेकिन वोट भी सत्ताधारी दल को ही दे रहा है। इससे ये स्पष्ट है कि देश के जागरूक लोगों में अधिकतर लोग प्रतिगामी धारा के साथ खड़े हैं, आम जनता के लिए भी महंगाई, बेरोज़गारी, महँगा इलाज आदि सियासी मुद्दा नहीं बन पाया है लेकिन मुसलमानों को सबक सिखाना सभी ज़रूरी समझते हैं।
सोशल मीडिया में कुछ बुद्धिजीवी इस्लाम में हिंसा के तत्व खोज रहे थे, यहाँ स्पष्ट कर दूं कि मेरी समझ है कि दुनिया के सारे ही धर्म सामान रूप से अच्छे या बुरे हैं, आपका मन करे तो इन्हें मानिये वरना इन्हें छोड़ कर आगे बढ़ जाइये। आप तकनीक की दुनिया में लगातार अपडेट होते रहते हैं इसलिए जब आप मूल्य, विचार और दर्शन की दुनिया में अपडेट नहीं होते तो ये आपकी समझ पर एक बड़ा प्रश्न बन जाता है। कुछ लोग धर्म में सुधार की बात बार-बार करते हैं, उन्हें लगता है कि हिन्दू धर्म में तो बड़ा सुधार हो रहा है लेकिन इस्लाम में नहीं हो रहा है।
एक तो हिन्दू धर्म अन्य धर्मों जैसा धर्म नहीं है, हिन्दू शब्द खुद मुसलमानों ने दिया है, यहाँ वैदिक धर्म हुआ है, जैन और बौद्ध धर्म भी हुए हैं। वैदिक धर्म की भी ढेर सारी शाखाएं हैं, आम हिन्दू जो जीवन जीता है वो मनुस्मृति से संचालित है। इसलिए हिन्दू समुदाय में रोज़ नये-नये बदलाव होते रहते हैं, कुछ अच्छे होते हैं कुछ नहीं भी होते, लेकिन इस्लाम जिसकी एक किताब है, जिसका एक ख़ुदा है और जिसका एक रसूल है, वहां बदलाव की ज़्यादा गुंजाइश नहीं होती। दूसरे धर्म में बदलाव ही क्यों ज़रूरी है? आपको जो करना है कीजिये, धर्म जहाँ हैं वहीँ रहने दीजिये, यहाँ एक बात और सपष्ट कर दूं कि बैलगाड़ी में मर्सडीज़ का इंजन लगाने की ज़रूरत पर जो बल देगा, उसे आप शायद मनोरोगी कहें, आप कहेंगे कि जब मर्सडीज़ मिल ही गयी है तो बैलगाड़ी क्यों ढोना चाहता है? अफ़सोस, साधारण-सा दिखने वाला ये तर्क भारत के मुसलमान विरोधी बुद्धिजीवी नहीं समझते।
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अगर धर्मों में कहीं कोई बात लिखी है जिससे हिंसा को बल मिल सकता है तो महज़ इतने से कोई हिंसात्मक तो नहीं हो जाता है! हिन्दू धर्म के सभी देवी-देवताओं के हाथ में हथियार हैं, पौराणिक कहानियों की मानें तो सभी ने इन हथियारों का इस्तेमाल भी किया है, तो क्या सारे हिन्दू हथियार लेकर चलते हैं? तो क्या सारे हिन्दू लोगों की हत्या करने की कोशिश करते हैं? ज़ाहिर-सी बात है नहीं, लेकिन मुसलमान विरोधी सियासत हिन्दू नौजवानों को एक हथियार बंद दस्ते में बदलने की कोशिश ज़रूर कर रही है, ये हमने हाल में ही रामनवमी और हनुमान जयंती के जुलूसों में देखा है।
मैंने कहा है कि देश की सभी सियासी पार्टियाँ हिन्दुत्व की ही सियासत करती हैं, इनमें एक धड़ा हार्ड हिन्दुत्व का है जिसकी पैरोकारी आरएसएस समूह करता है जबकि दूसरी सभी पार्टियाँ सॉफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति करती हैं। इस तरह देश में फ़िलहाल प्रगतिशील धारा का प्रतिनिधुत्व करने वाली कोई देशव्यापी पार्टी नहीं हैं। इस कारण भी बहुत से लोग जाने अनजाने सॉफ्ट हिन्दुत्व के साथ खड़े हो जाते हैं। यहाँ एक और बात पर ध्यान देना ज़रूरी है, बहुत से लोग जो आज प्रतिगामी धारा के साथ या जो सॉफ्ट हिन्दुत्व की सियासत करते हैं उनके साथ खड़े हैं। उनके कल प्रगतिशील धारा के साथ आ जाने की ज़्यादा संभावना है, बहुत से लोग वहां हैं ही इसलिए कि उनके सामने प्रगतिशील मूल्यों की सियासत करने वाली कोई पार्टी नहीं है।
आप कहाँ खड़े हैं, इसकी जाँच आप अभी कर सकते हैं। अगर आप आरएसएस समूह के समर्थक हैं तो आप मुसलमानों को एक अलग लेकिन बुरे समूह के रूप में देखते ही होंगे, लेकिन अगर आप कांग्रेस या अन्य किसी दल के समर्थक हैं या समय समय पर अपनी पसंद बदलते रहते हैं तो भी देखिये कि क्या आप उन्हीं में से किसी दल के साथ खड़े होते हैं जिन्हें मैं सॉफ्ट हिन्दुत्व का प्रतिनिधि कह रहा हूँ? अगर ऐसा है तो आप एक दर्जन किन्तु परन्तु के साथ मुसलमानों में मीन-मेख निकालेंगे ही। अगर आप इन दलों के साथ हैं तो आप पूँजीवादी लूटतंत्र के पक्ष में ही खड़े हैं।
एक मासूम सवाल आपकी ओर से यहाँ आ सकता है कि जो लोग मुस्लिम धर्मान्धता के साथ खड़े हैं वो कहाँ हैं? दरअसल, वो भी प्रतिगामी धारा के साथ ही खड़े हैं, लेकिन यहाँ एक बात का और ध्यान रखना होगा कि अल्पसंख्यक की साम्प्रदायिकता फ़ासीवादी राजनीति का आधार नहीं बनती। हाँ, बहुसंख्यक की साम्प्रदायिकता को अगर सत्ता एवं जनता का सहयोग लगातार मिलता रहे तो अल्पसंख्यक की साम्प्रदायिकता आतंकवाद में बदल सकता है, जिसका ख़तरा फ़िलहाल भारत में पैदा हो चुका है।
अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी..
अब सवाल पैदा होता है कि अगर सभी संसदीय दल प्रतिगामी धारा के साथ बह रहे हैं तो प्रगतिशील धारा क्या है और कहाँ है! दोस्तों आज के दौर में प्रगतिशील धारा वही हो सकती है जो समतामूलक समाज के लिए लड़ रही है, जो एक न्यायपूर्ण समाज बनाना चाहती हो, जो हर तरह के अन्याय और शोषण का अन्त चाहती है, जो पूँजीपतियों के मुनाफ़े को समर्पित अर्थव्यवस्था को ख़त्म कर दे और सबकी ज़रुरत पूरी हो ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण करे। जो ऐसा राज क़ायम करे कि देश के हर नागरिक की बुनियादी ज़रुरतें आसानी से पूरी हो सकें, और ये मुमकिन है क्योंकि देश में न तो प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और न ही भौतिक संसाधनों की, बस इसे मुनाफ़े की व्यवस्था से निकाल कर सबकी ज़रुरत पूरी करने वाली व्यवस्था में बदलना होगा. भले ही इस मकसद को पूरा करने वाली देश के पैमाने पर आज कोई ऐसी पार्टी नहीं है लेकिन हमारी और आपकी तरह सोचने वाले देश में करोड़ों लोग हैं, एक रोज़ ये करोड़ों लोग एक साथ जरूर आएंगे।
अंत में ये बात साफ़ है कि देश की अर्थव्यवस्था संकट में है, देश की जनता की बुनियादी ज़रुरतें पूरी नहीं होगीं ये निश्चित है, अभी लोग जो दिक्क़तें अनुभव करते हैं ये और बढ़ेगी ही, ऐसा होने पर लोगों में गुस्सा पैदा होगा, ये गुस्सा बग़ावत में भी बदलेगा, लेकिन अगर लोग मुसलमानों के प्रति नफ़रत से भर दिए जाएँ, तो उनके गुस्से को बार-बार मुसलमानों की ओर मोड़कर पूँजीवादी लूट को सुरक्षित कर लिया जायेगा।
चार लाइन में कही गयी ये बात इस पूरे विमर्श का सार है। आपको तय करना है कि मुसलमानों में उलझ कर अपना और देश का भविष्य बर्बाद करना है या पूँजीवादी लूट को समझ कर, अपना भविष्य सोचकर व्यापक एकता कायम करते हुए जीवन को बेहतर बनाने की लड़ाई लड़नी है!
सलमान अरशद स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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