वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे आगे चलकर एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध हुये। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और भोगा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है किकिस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी कर्मचरियों की भर्ती के लिए बने बैंक प्राधिकरण के इंटरव्यू बोर्ड में सम्मिलित होने पर अनुसूचित जाति का कोटा पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उल्लेखनीय है कि तेजपाल जी बारह बार इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य रहे।
जिम के आ जाने से आज भले ही कुश्ती का चलन बहुत कम हो चुका हो लेकिन आज से 30-40 वर्ष पहले गाँव में जगह-जगह अलग-अलग पहलवान गुरुओं के अखाड़े हुआ करते थे और गाँव के शौकीन और जुनूनी युवा पहलवानी करने जाया करते थे। अखाड़ों के बीच इवेंट की तरह कुश्तियाँ हुआ करती थीं। ग्रामकथा में आज मधेपुरा के इसरायंणकलां गाँव की कहानी -
मिर्ज़ापुर जिले की चुनार तहसील के कई गाँवों में रामविलास बिन्द किंवदंती के पात्र हैं। बरसों पहले 1974 में एनकाउंटर में मारे जा चुके रामविलास अभी भी बहुत से लोगों की यादों में हैं। लोग कुछ न कुछ बता ही देते हैं। कुछ कहते हैं कि वह सामंतवाद के खिलाफ उठी आवाज थे लेकिन बहुत से लोग कोई टिप्पणी नहीं करते। किरियात में स्थित उनके गाँव मढ़िया समेत कई गाँव के लोगों से मिलकर लिखी गई ओमप्रकाश अमित की यह रिपोर्ट पढ़ी जानी चाहिए।
कहीं भी सड़क बनाने से पहले कुछ मानकों का पालन करना चाहिए। लेकिन राजस्थान के उदयपुर शहर के मनोहरपुरा गाँव में कई बातों को नजरंदाज कर दिया गया।जैसे सड़क के किनारे नाली न होने के बावजूद सड़कें बना दी गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि नालों का पानी सडकों पर बजबजा रहा है और लोगों को आने जाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
वाराणसी जिले का घोड़हा गाँव में इसके बसने को लेकर कई तरह की किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि इस गाँव के कुएँ में एक अंगेज़ घोड़े सहित गिरकर मर गया था। उस जगह को लोग घोड़हा बाबा का स्थान कहने लगे और इसी पर गाँव का नाम पड़ गया। अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ ही घोड़हा के लोगों ने शिक्षा के महत्व को समझा है। अब लगभग हर घर के बच्चे स्कूल जाते हैं। लड़के-लड़की में पहले की तरह भेदभाव करने की परंपरा कमजोर पड़ती गई है। अब लड़के ही केवल दुलरुआ नहीं हैं, बल्कि लड़कियां भी दुलारी हैं।
रेणी गाँव के लोग निराश हैं। गाँव में गौरा देवी की आदमकद प्रतिमा थी जो अब वहाँ से हटा दी गयी है। नेताओं को इसका कोई दर्द नहीं कि एक आदिवासी महिला, जिसने हमारे देश को दुनिया के पर्यावरणवादियों की नज़र में ऊंचा स्थान दिलवाया उसका गाँव ख़त्म होने वाला है। वह जगह हमारे नक़्शे से गायब हो सकती है जहाँ से दुनिया को चिपको का सन्देश मिला।