किसी भी संज्ञा के आकलन के लिए कुछ पारामीटर आवश्यक हैं और आकलन जरूरी होते हैं क्योंकि आकलन नहीं करने का मतलब यह होता है कि आपका उस संज्ञा पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा। यानी वह संज्ञा आपके लिए कोई महत्व नहीं रखता। लेकिन जैसे ही किसी संज्ञा का प्रभाव आपके जीवन पर पड़ता है, आप उसका आकलन करते ही हैं। साहित्य, संस्कृति और राजनीति में भी यही होता आया है।
संज्ञा और प्रभाव से एक बात याद आयी। उन दिनों मैं दूसरी कक्षा का छात्र था। स्कूल का नाम था – नक्षत्र मालाकार उच्च विद्यालय, बेऊर मोड़, पटना। मेरे घर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर। पापा मेरे लिए पजेसिव रहते थे। शायद इस वजह से कि मैं अपने माता-पिता की आखिरी संतान हूं। मैंने इसका लाभ भी खूब उठाया है और इस कारण परेशानियां भी खूब हुई हैं।
खैर, इस बारे में तो कभी और लिखूंगा। फिलहाल यह कि स्कूल में भी मैं सबसे छोटा ही था। मेरे सहपाठी मुझे ‘छटंकिया’ कहते थे तो कुछ ‘बड़का दिमाग वाला’ भी। उन दिनों मैं अपनी कक्षा का प्रमुख था। वजह यह कि प्रमुख का निर्धारण वार्षिक परीक्षा में प्राप्तांक के आधार पर तय होता था और इसी आधार पर अटेंडेंस रजिस्टर में नाम का क्रम भी। मेरा नाम सबसे पहले बोला जाता। गर्व की अनुभूति होती थी जिसने बाद में मेरे अंदर अहंकार को भी जन्म दिया।
[bs-quote quote=”कंवल भारती एक सुदंर कवि हैं और विद्रोही भी। यह उनकी कविताओं में साफ-साफ दिखता है। विद्रोही तेवर के उर्मिलेश भी हैं लेकिन उतने नहीं जितने कि कंवल भारती। रही बात डॉ. कुमार विमल की तो वे तो आजीवन विद्रोही ही रहे। सरकारी पदों पर रहते हुए साहित्यिक संदर्भों में अपने इस तेवर से कभी समझौता नहीं किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो उन दिनों होता यह था कि मेरी जिम्मेदारियों में एक खास जिम्मेदारी छड़ी का इंतजाम करना होता था। शिक्षक महोदय को हम छात्रों को सजा देनी होती थी और इसके लिए छड़ी कहां से आएगी, इसकी जिम्मेदारी मेरी। मेरे स्कूल के आसपास उन दिनों खूब घना बगीचा था। खूब सारे आम के पेड़ थे। अब तो गिनती के दो-चार ही बचे हैं। लेकिन उन दिनों आम के पेड़ के साथ ही खजूर के पेड़ भी थे। खजूर के बीज बरसात के बाद जमीन पर नजर आते। तब उनका आकार छोटा होता था। इतना छोटा कि उसकी टहनियों को ब्लेड से काटकर छड़ी बनायी जा सकती थी। इस तरह की छड़ी बहुत मारक होती थी। हाथ पर लगते ही मन छनछना जाता था। कई बार मैंने भी इस छड़ी की असर को झेला है। किस शिक्षक के लिए कैसी छड़ी चाहिए, इसका निर्धारण मैं अपने विवेक से करता था। मतलब यह कि अजीत सर जो कि गणित के शिक्षक थे, बड़े गुस्सैल थे। इसलिए उनके हाथ में ऐसी छड़ी का प्रबंध करता जिससे असर कम हो। मतलब यह कि एकदम कमजोर। एक-दो के हाथ पर पड़ते ही टूट जानेवाली छड़ी। अंग्रेजी की शिक्षिका शैलजा मैम को दिखावे के लिए छड़ी की आवश्यकता होती थी तो उनके लिए मोटी छड़ी भी अच्छी थी। वजह यह कि वह मारती कम थीं।
खैर, बचपन की बातें अब इतिहास हैं। कल देर रात उर्मिलेश जी की किताब गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल और कंवल भारती की किताब दलित निर्वाचित कविताएं को पढ़कर खत्म किया। कंवल भारती एक सुदंर कवि हैं और विद्रोही भी। यह उनकी कविताओं में साफ-साफ दिखता है। विद्रोही तेवर के उर्मिलेश भी हैं लेकिन उतने नहीं जितने कि कंवल भारती। रही बात डॉ. कुमार विमल की तो वे तो आजीवन विद्रोही ही रहे। सरकारी पदों पर रहते हुए साहित्यिक संदर्भों में अपने इस तेवर से कभी समझौता नहीं किया। अन्य किसी संदर्भ में किया हो तो मैं नहीं कह सकता।
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एक खास बात यह कि मुझे इन तीनों से उनके घर पर मुलाकात करने का अवसर मिला है। कंवल भारती जी से तो हाल ही में मिलने रामपुर गया था। तब मेरे साथ फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक अनिल वर्गीज और लेखक डॉ. सिद्धार्थ भी थे। कंवल भारती और डॉ. कुमार विमल के बीच एक समानता यह कि किताबें दोनों के लिए सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति रही। डॉ. विमल के पास एक बड़ा घर था और दो मंजिले मकान के निचले तल पर उनका संसार। चार कमरे, बाहर का एक ओसारा और ड्राइंग हॉल का 80 फीसदी हिस्सा किताबों से अटा रहाता था। उनके अध्ययन कक्ष में केवल दो लोगों के बैठने के लिए जगह होती। वैसे जगह तो केवल डॉ. विमल के ही होती, लेकिन किसी के आ जाने पर वह जगह बनवा देते थे। यही हाल कंवल भारती जी का है। किताबें, किताबें और केवल किताबें। कंवल भारती जी का घर छोटा है। छोटा मतलब कम जमीन में बना हुआ तीन मंजिला मकान। घुटनों के दर्द से परेशान रहते हैं तो उनका जीवन अब निचले तल पर ही बीत जाता है। कम जगह होने के बावजूद कंवल भारती नयी किताबों के लिए अपना दिल उदार रखते हैं। किताबों को बेतरतीब ढंग से नहीं रखते। मैंने उनके यहां हर किताब पर कुछ विशेष नंबरों को देखा। ऐसे ही नंबर पुस्तकालयों में इस्तेमाल किए जाते हैं।
[bs-quote quote=”कंवल भारती की हर रचना के केंद्र में दलित-बहुजन विमर्श है। वे अपनी इस लाइन को नहीं बदलते हैं। वे कटु से कटु आलोचना भी करते हैं तब भी उनका मकसद यही होता है कि वंचित समाज के हित में हो। डॉ. विमल और उर्मिलेश जी दोनों वंचितों के संसार के परे भी एक संसार की बात करते हैं। मतलब यह कि डॉ. विमल को हमेशा यह लगता था कि द्विज उन्हें मान्यता दें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उर्मिलेश जी से उनके घर पर मेरी पहली मुलाकात किताबों के संदर्भ में ही हुई थी। तब फारवर्ड प्रेस के द्वारा महिषासुर : मिथक और परंपराएं का प्रकाशन हुआ था। उर्मिलेश जी से किताब देने के बहाने कुछ सीखने की इच्छा थी, इसलिए उनके घर जाने की योजना थी। उन्हें फोन किया तो उन्होंने घर आने का निमंत्रण दे दिया। वे वैशाली में ही रहते हैं। हालांकि तब मैं दिल्ली में नया-नया था तो परेशानी भी होती थी। परंतु उर्मिलेश जी ने बड़ी सहायता की। उन्होंने एक तरह से गाइड ही किया कि कैसे आना है। उनके पास अपना फ्लैट है। हम बातचीत कर रहे थे। इस बीच उन्हें किताबें दी।
दरअसल, मैं उनके लिए फारवर्ड प्रेस की कुछ और किताबें भी ले गया था। उनमें से दो किताबों का चयन उन्होंने किया। इनमें से एक महिषासुर :मिथक और परंपराएं थीं। महत्वपूर्ण रही उनकी यह टिप्पणी कि उके पास किताबों को रखने के लिए जगह नहीं है और इस कारण वे कम से कम किताबें खरीदते और स्वीकार करते हैं।
डॉ. विमल और कंवल भारती इस मामले में उर्मिलेश जी से अलग हैं।
खैर, तीनों के बीच अंतर और भी हैं। कंवल भारती साहित्य के हर विधा में नित दिन प्रयोग करते रहते हैं। फिर चाहे वह कविताएं हों, उनकी रागिनियां हों, समालोचनात्मक आलेख हों, अनुवाद हो या फिर सम-सामयिक विषयों पर उनकी टिप्पणियां। डॉ. विमल समालोचना के क्षेत्र में ही प्रतिबद्ध रहे। कविताई करते थे, लेकिन बहुत अधिक नहीं। उर्मिलेश जी वर्तमान में पत्रकार और विमर्शकार हैं। साहित्यिक समालोचना के मामले में भी उन्होंने हाथ आजमाया है। परंतु मुझे लगता है कि वे एक शानदार पत्रकार हैं। साहित्य एक तरह का आभूषण है उनके व्यक्तित्व का, जिसका अपना भी एक खास महत्व होता है।
एक और बात। कंवल भारती की हर रचना के केंद्र में दलित-बहुजन विमर्श है। वे अपनी इस लाइन को नहीं बदलते हैं। वे कटु से कटु आलोचना भी करते हैं तब भी उनका मकसद यही होता है कि वंचित समाज के हित में हो। डॉ. विमल और उर्मिलेश जी दोनों वंचितों के संसार के परे भी एक संसार की बात करते हैं। मतलब यह कि डॉ. विमल को हमेशा यह लगता था कि द्विज उन्हें मान्यता दें। वामपंथ के प्रति भी उनका विशेष झुकाव था। एक खास घटना का जिक्र उन्होंने मुझसे किया था। वह यह कि 1956-57 में जब वे पटना विश्वविद्यालय में अध्यापक बने तब पहली तनख्वाह का उन्होंने कैसे उपयोग किया। उनके मुताबिक, उन्होंने पहली तनख्वाह से एक ओवर कोट बनवाया था। ठीक वैसा ही जैसा कि कार्ल मार्क्स पहनते थे। ओवरकोट खरीदने के बाद उन्होंने उसे सुरक्षित रख दिया था। उसका उपयोग उन्होंने करीब 22 साल के बाद तब किया जब वे जर्मनी गए। वहां कार्ल मार्क्स के स्मारक पर जाने के समय उन्होंने उस ओवरकोट को पहना और लौटकर आने के बाद अपने अध्ययन कक्ष में कार्ल मार्क्स की किताबों के साथ रखा।
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डॉ. विमल को हमेशा अपेक्षा रहती कि वामपंथी अपनी जातीय संकीर्णताओं को त्यागें और उनके योगदानों को देखें। कंवल भारती में मुझे ऐसी कोई लालसा नहीं दिखी। हां, उर्मिलेश जी के मामले में यह भाव मैंने कई बार देखा है। पहली बार शायद 2015 में जब पटना में बागडोर नामक एक संगठन ने मंडल चौपाल नामक कार्यक्रम का आयोजन किया था। उर्मिलेश जी मुख्य वक्ता थे। अपने संबोधन में उन्होंने एक बात कही और इसकी व्याख्या भी कि उनकी मित्रमंडली में अधिकांश सवर्ण क्यों हैं।
अपनी नवीनतम किताब गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल (जो कि अघोषित रूप से उनकी बायोग्राफी ही है) में उन्होंने इसकी पुष्टि भी की है। वे जिन शख्सियात को याद करते हैं उनमें राजेंद्र यादव और तुलसीराम को छोड़ सभी द्विज हैं। फिर चाहे वह महादेवी वर्मा हों गोरख पांडे हों, पीएन सिंह हों, डी प्रेमपति हों, एम जे अकबर हों या फिर अमिताभ बच्चन।
बहरहाल, कल एक कविता जेहन में आयी। यह कविता तीनों महानायकों के नाम।
बंदूक से केवल गोलियां नहीं निकलतीं
और मरने वाला भी केवल एक आदमी नहीं होता
गोलियों से पहाड़ों को तोड़ा जा सकता है
नदियों के उपर बांध बनाए जा सकते हैं
खेतों में फैक्ट्रियां लगायी जा सकती हैं
और बंदूक की नलियों से निकाली जा सकती है धुन-
जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता…
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं