Saturday, July 27, 2024
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सामूहिकता से ही संभव है खेती के संकट का समाधान : विनीत तिवारी

अशोकनगर। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) एवं प्रगतिशील लेखक संघ की अशोकनगर इकाई द्वारा 2 नवंबर, 2022 को एक महत्त्वपूर्ण गोष्ठी का आयोजन किया गया। दो सत्रों में विभाजित इस गोष्ठी के प्रथम सत्र में कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी (इंदौर) ने भारत में खेती की समस्या विषय पर  व्याख्यान दिया  तथा दूसरे सत्र में […]

अशोकनगर। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) एवं प्रगतिशील लेखक संघ की अशोकनगर इकाई द्वारा 2 नवंबर, 2022 को एक महत्त्वपूर्ण गोष्ठी का आयोजन किया गया।

दो सत्रों में विभाजित इस गोष्ठी के प्रथम सत्र में कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी (इंदौर) ने भारत में खेती की समस्या विषय पर  व्याख्यान दिया  तथा दूसरे सत्र में उपस्थित स्थानीय कवियों ने अपनी प्रतिनिधि कविताओं  का पाठ किया।

गोष्ठी की शुरुआत में वरिष्ठ कवि एवं रंगकर्मी हरिओम राजोरिया ने विषय प्रवर्तन करते हुए आमंत्रित अतिथि का परिचय दिया।

विनीत तिवारी ने अनौपचारिक माहौल में परिचर्चा की शुरुआत की। अशोकनगर जैसे छोटे शहर के लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से खेती किसानी से जुड़े हुए हैं, इसलिए खेती की समस्या पर आधारित ये परिचर्चा उनके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी। विनीत तिवारी खेती के सवाल को लेकर पिछले एक दशक से लगातार काम कर रहे हैं। लिहाजा उनके अनुभव और अध्ययन उल्लेखनीय हैं।

कृषि क्षेत्र भारत की अर्थव्यस्था के बड़े हिस्से को प्रभावित करता है। लेकिन भूमि सुधार और देश में खेती के क्रमिक विकास के बाद भी कृषि से जुड़े बहुसंख्यक वर्ग की स्थिति बेहद दयनीय है। विनीत तिवारी ने तथ्यात्मक बात करते हुए खेती की वास्तविक समस्याओं से अवगत कराया। उन्होंने खेती के अंतर्गत आने वाले भूमिहीन मजदूर और सीमांत किसानों से लेकर मझोले और बड़े किसानों/ जमींदारों की संरचना और उनके आपसी सम्बन्धों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि खेती की बात करना लोगों की बात करना है। मजदूर, किसानों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए 1991 से शुरू हुई उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने विदेशी कंपनियों के लिए द्वार खोल दिये। शोषण की नयी व्यवस्था पर उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला। इस भूमंडलीकरण का प्रभाव सबसे ज़्यादा खेती पर पड़ा। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण किसानों ने पिछले 30 सालों में 4 करोड़ हेक्टयर जमीन गँवायी है। बेहतर रोज़गार और जीवन-यापन की तलाश में करोड़ों लोग गाँवों से शहरों की ओर विस्थापित हुए। परिणामस्वरूप पहले गाँवों में 80 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी रहती थी, जो अब घटकर 50 फ़ीसद रह गई है। जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत हुआ करती थी वो अब 20 फ़ीसदी बची है। इसी के साथ ही एक समस्या हमेशा से महिलाओं के श्रम की अनदेखी करना है। इसका कारण पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की नगण्य सामाजिक स्थिति है।

गोष्ठी में मौजूद लोग

पूँजीवाद और शोषण पर आधारित कॉरपोरेट कंपनियों के दुष्चक्र में भूमिहीन मज़दूरों से लेकर बड़े किसान भी फँस गए। इन्होंने संगठित मजदूर-किसानों की जड़ें भी कमजोर कीं, फलस्वरूप मजदूरों को उनके उत्पादन और श्रम का वास्तविक मूल्य देने की बजाय केवल न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिए भुगतान किया जाने लगा। ग्रामीण भारत में क़रीब 65 करोड़ आबादी रहती है जिसमें से क़रीब साढ़े पाँच करोड़ (8.2 प्रतिशत) लोग भूमिहीन हैं, मतलब खेती तो छोड़िए, उनके पास घर की भी ज़मीन नहीं है। 32% लोगों के पास केवल घर की और बहुत थोड़ी एक एकड़ से भी कम ज़मीन है तथा 44% किसानों के पास एक हेक्टयर यानी ढाई एकड़ से कम ज़मीन है। वे सीमांत किसान हैं। विसंगति का आलम यह है कि 93 प्रतिशत लोगों के पास खेती की लगभग 50 प्रतिशत ज़मीन है और बाक़ी 50 प्रतिशत ज़मीन पर मात्र सात प्रतिशत किसान परिवारों का क़ब्ज़ा है।

विनीत तिवारी ने यूरोप के बारे में बताया कि औद्योगिक क्रांति से बहुत से किसान बेकार हुए, उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया। करोड़ों लोग मारे गए। खेती के संकट का मतलब लोगों का संकट है। इसे हल करने की कोशिश कभी मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवाद नहीं करता। इसे केवल समाजवादी व्यवस्था लोगों के पक्ष में हल करने की कोशिश करती है। रूस, चीन, क्यूबा आदि जगहों पर हुई समाजवादी क्रांतियों के बाद खेती के संकट को हल करने की दिशा में गंभीर प्रयास हुए। भारत मे सरकारों का हाल यह है कि पिछले 30 वर्षों में 5 लाख से अधिक किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं लेकिन सरकारों और मीडिया ने तब तक इस दिशा में कोई ध्यान नहीं दिया जब तक हाल के किसान आंदोलन ने उसे मजबूर न कर दिया।

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उन्होंने भारत के किसान आंदोलन के बारे में समझाया कि बेशक आंदोलन की शुरुआत में बड़े किसान थे जिन पर तीनों काले कृषि कानूनों का सबसे सीधा असर पड़ता, लेकिन बाद में खेत मज़दूरों से लेकर छोटे किसान और शहरी कामगार तबके भी आंदोलन से जुड़े और इसे मजबूती दी।

समाधान की बात करते हुए विनीत तिवारी ने केरल की महिलाओं द्वारा संचालित कुदुम्बश्री (Kudumbashree) सामूहिक खेती का उदाहरण देकर महिलाओं की संपन्नता पर बात कही जो कि सामूहिकता से ही सम्भव हो सकी है। इस योजना से खेती में दो लाख से ज्यादा महिलाओं ने मिलकर सवा लाख एकड़ बंजर और पड़ती की ज़मीन को उपजाऊ बनाया है। भारत में खेती के संकट का समाधान सामूहिक खेती या साझा खेती से ही निकल सकता है।

इस तरह विनीत तिवारी ने अपनी विस्तृत जानकारी के साथ भारतीय खेती की वास्तविक और अदृश्य समस्याओं के हल के लिए सामूहिकता और सांगठनिकता को महत्त्वपूर्ण बताया।

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व्याख्यान के बाद गोष्ठी के दूसरे चरण में स्थानीय साथियों का कविता पाठ हुआ। उल्लेखनीय है कि गोष्ठी में उपस्थित सदस्यों में से लगभग आधे साथियों ने अपनी कविताएँ पढ़ीं। इनमें विनीत तिवारी, हरिओम राजोरिया, अभिषेक अंशु, भानु प्रकाश रघुवंशी, संजय माथुर, डी.एस. संधु, अरबाज खान, हरगोविंद पूरी, अनूप शर्मा, गिरिराज कुशवाह, प्रकाश, नीरज कुशवाह, निहाल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

गोष्ठी में रतन लाल, सुरेंद्र रघुवंशी, सीमा राजोरिया, अर्चना शर्मा, जसपाल बांगा, सत्येंद्र रघुवंशी, ब्रजेंद्र शर्मा, विनोद शर्मा, रामबाबू कुशवाह, पंकज दीक्षित, नंदकिशोर पटवा, खुशी विश्वकर्मा, कुश कुमार, प्रशांत धुरेंटे, नित्या माथुर आदि लेखक , कवि, कलाकर, रंगकर्मी और छात्र उपस्थित रहे।

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