वीपी सिंह जी की पुण्यतिथि पर विशेष


प्राचीनकाल से लेकर अर्वाचीन भारत में शम्बूक वध का दृष्टान्त, एकलव्य के दाहिने हाथ का अंगूठा द्रोणाचार्य द्वारा दक्षिणा में कटवा लेने का उदाहरण, शिवाजी के राज्यभिषेक में दक्षिण भारत के ब्राह्मणों द्वारा प्रचण्ड विरोध का इतिहास, काशी में बाबू जगजीवन राम द्वारा सम्पूर्णानन्द की प्रतिमा का अनावरण के उपरान्त कट्टरपंथी ब्राह्मणों द्वारा गंगाजल से मूर्ति का प्रक्षालन, डा.अम्बेडकर के नाम पर औरंगाबाद में मराठावाड़ा विश्वविद्यालय के नामकरण का विरोध, अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लोगों के मंदिर प्रवेश का विरोध, वर्षो पूर्व शूद्रों द्वारा यज्ञोपवीत धारण का विरोध, शूद्रों और पिछड़ों पर अमानुषिक अन्याय-अत्याचार तथा उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक हत्यायें, और उनकी बहू बेटियों के साथ व्यक्तिगत या सामूहिक बलात्कार की घटनायें, क्या किसी आर्थिक सिद्धान्त पर आधारित हैं? हरगिज नहीं, हरगिज नहीं ।


भारत में सामाजिक संस्तरण/स्तरीकरण (social status/stratification) अति प्राचीन काल से वर्ण पर आधारित था। जब वर्णों से जाति व्यवस्था का विकास हुआ तो जाति ही संस्तरण (status) का आधार बन गया। पश्चिमी देशों में वर्ग ही सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण का आधार है, परन्तु भारत में ऐसा नहीं है। जब तक इस देश में विषमतामूलक पीड़ादायिनी जातिप्रथा कायम रहेगी, तब तक वर्ग की बात चलाना या आरक्षण आदि में आर्थिक आधार की बात करना एक फिजूल की बकवास होगी।
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