गर्मी अपने प्रचंड पर है। तापमान रोज़ ब रोज़ नये रिकॉर्ड बना रहा है। डॉक्टर सलाह दे रहे हैं- ख़ूब पानी पियें और मौसमी फलों का सेवन अधिक करें। मौसमी फल यानी तरबूज़, खरबूजा, खीरा, ककड़ी आदि। गाँव के तिराहे-चौराहे से लेकर शहर के चौक-चौबारों तक, फुटपाथों, ठेलों और दुकानों पर क़िस्म-क़िस्म के तरबूज सज़े हुए हैं। सबके दाम भी अलग-अलग हैं। मज़े की बात यह है कि इन तरबूजों के व्यापारियों के अपने नाम हैं, मनमोहक नाम। वहीं, किसानों के अपने नाम हैं, देशज भाषा और पहचान वाले नाम।
मो. वसीम खान यूनिवर्सिटी, कटरा रोड पर फुटपाथ पर तरबूज की दुकान लगाते हैं। उनकी दुकान पर पीले रंग का तरबूज और अलग क़िस्म का खरबूज़ा देखकर आने-जाने वाले अनायास ही ठहर जाते हैं। …और यह चीज क्या है, इस भाव बोध से किलो-दो-किलो चखने को ख़रीद ले जाते हैं। मो. वसीम का तरबूज बेचने में अपना अलग अंदाज़ भी है। वह बताते हैं कि ये पीले छिलके वाला तरबूज ताइवान बीज से है। ‘ताइवान बीज़ का क्या मतलब हुआ।’ वह बताते हैं कि ये तरबूज ताइवान में होते हैं। इनके बीज ताइवान से लाकर महाराष्ट्र के उस्मानाबाद, सोलापुर में उगाये जाते हैं। इनकी खासियत क्या है, पूछने पर वो बताते हैं कि ये बेहद स्वादिष्ट होते हैं और मीठे की गारंटी होती है। ताइवान बीज के बग़ल एक दूसरी वैरायटी का तरबूज रखा हुआ है, गाढ़े हरे रंग का। मो. वसीम बताते हैं कि इसका नाम शुगर किंग है और ये चाइनीज वैरायटी है। ये बेहद मीठा होता है। ताइवान बीज का दाम 20 रुपये किलो और चीनी क़िस्म शुगर किंग का दाम 15 रुपये किलो है। जबकि ताइवान खरबूज जिसका नाम बॉबी है, उसकी क़ीमत 30 रुपया किलो है। कोई देसी क़िस्म नहीं रखे। पूछने पर मो. वसीम बताते हैं कि देसी क़िस्म एक ही आ रही है रामधारी या माधुरी, लेकिन उसकी डिमांड नहीं है। क्योंकि वो कम मीठा होता है और अंदर से कई बार सफ़ेद निकल जाता है। ऐसे में ग्राहक खुद को ठगा हुआ पाता है।
सहसों बाज़ार में दुकान सजाये कुलभूषण बैठे हैं। कचहरी तारीख से लौटा एक ग्राहक दुकानदार से पूछता है हरमाना (हिरमाना) कैसे दिये? वहां मौज़ूद सब हँसने लगते हैं। दुकानदार कहता है- “हरमाना सपन होइ गवा हो भइया।” दरअसल गांव के उम्रदराज लोग तरबूज को हरमाना ही कहते हैं। बता दें कि हरमाना एक देसी क़िस्म थी तरबूज की। इसमें धारियां होती थीं। ये आकार में गोल और बहुत बड़ी होती थी। पूरी तरह से पक-बढ़कर तैयार हिरमाना 35-50 किलो का होता था। पाली ग्रामसभा के किसान दूधनाथ पटेल बताते हैं कि इलाहबाद से रिक्शा चलाकर जब वो शाम को अपने गांव-घर लौटते तो 8 पसेरी (40 किलो) का एक हरमाना ख़रीदते और कंधे पर रखकर घर पहुँचते। हिरमाना कटता तो तीनो भाईयों का पूरा परिवार जी भरकर खाता। फिर खाना नहीं बनता सब हिरमाना खाकर ही सो जाते। दरअसल, हिरमाना संयुक्त परिवार का फल था। संयुक्त परिवार टूटे तो हिरमाना का अस्तित्व भी मिट गया। दुकानदार बताते हैं कि उसके पास फिलहाल दो क़िस्म के तरबूज हैं। आंध्रा और माधुरी क़िस्म। आंध्रा क़िस्म 15 रुपया किलो और माधुरी 12 रुपये किलो है। ये तरबूज मुंडेरा मंडी से ख़रीदकर लाते हैं।
बाज़ार और मंडी घूमने के बाद हमने गंगा किनारे कछार का रुख किया जहां तरबूज और खरबूज की खेती की जाती है। हड़िया तहसील का कोटवा गाँव बिल्कुल गंगा किनारे बसा हुआ है। 43.6 डिग्री तापमान के बीच दोपहर में वहां पहुंचने पर गंगा के चमकते बलुवार मैदान के बीच-बीच में सरपट और कासा के बाड़ से घिरा हरियरापन आंखों को सुकून देता है। हर बाड़े में एक छोटी-सी कास और सरपट की मड़ई व मचान में बैठे किसान अपने फसलों की रखवाली कर रहे हैं।
कोटवा गांव निवासी गुरुचरण मड़ई के भीतर बलुई ज़मीन पर लेटे हुए थे। एक तरबूज के दो टुकड़ों में टूटी मड़ई के बाहर फेंकी पड़ी है। बाहर मड़ई से सटी साईकिल खड़ी थी। मैं और साथी धर्मेंद्र यादव उनकी मड़ई में जाकर बैठ गए। गुरुचरण से उनके खेत की जानकारी लेते हुए उसी ओर निकल पड़े। गुरुचरण के खेत में दो क़िस्म के तरबूज थे। एक किनारे कद्दू भी बोये गये थे। पेड़ में भी पके कद्दू के बड़े-बड़े फल लगे थे। एक कद्दू अनुमानतः 8-10 किलो का होगा।
खेत में एक-दो जगह गहरा गड्ढा खोदा गया था। गंगा का पानी रिसकर गड्ढे में भर जाता है। किसान इसी पानी से तरबूज के पौधों की सिंचाई करते हैं। साथी धर्मेंद्र छोटे से एक तरबूज़ जिसका डंठल सूखकर पौधे से अलग हो गया है, उसे उठाते हैं और मुक्के से तोड़कर खाने लगते हैं। वह बताते हैं कि गर्म तो है पर मीठा है। जगह-जगह कई तरबूज पेड़ में लगे हुए ही आधे खा लिये गये थे। धर्मेंद्र बताते हैं कि इन्हें रात में सियारों ने खाया है। तरबूज के खेतों में घूमने के बाद हम गुरुचरण के मड़ई में वापस आ गए। जहाँ वह तरबूज़ की खेती, लागत आदि के बारे में विस्तार से बात करने लगे।
गुरुचरण बताते हैं कि उन्होंने दो क़िस्म के तरबूज अपने खेतों में बोये हैं। चित्तिया और कैप्सूल। यह नाम किसानों ने ही दिया है। चित्तिया का वैधानिक नाम आस्था है। इसके बीज़ आस्था नाम से ही बिकते हैं। इस तरबूज में ऊपर चित्ती-चित्ती निशान होता है इसलिए किसान इसे चित्तिया या तिलरवा नाम से बुलाते हैं। वहीं, दूसरा तरबूज कैप्सूल आकार का होता है इसलिए किसान इसे कैप्सूल या कैप्सुलवा कहते हैं।
क्या रेट बिक रहा है इस सीजन में? पूछने पर गुरुचरण बताते हैं कि व्यापारी उनसे तिलरवा, चित्तिया 6 रुपये और कैप्सूल 8 रुपये प्रति किलो की दर से ख़रीदकर ले जाते हैं। हमने जब उन्हें बताया कि बाज़ार में ठीक दोगुना दाम में बिक़ रहा है ये पता है आपको। इस पर गुरुचरण के चेहरे पर एक दर्दभरी मुस्कान तैर जाती है।
तरबूज की खेती में कितनी लागत आती है? इस पर विस्तार से वह बताते हैं। कहते हैं कि एक समय उनका खुद का खेत होता था पर 10 साल पहले उनका 2 बीघा खेत बाढ़ में चला गया। उनके खेतों पर अभी गंगा बह रही हैं। इसीलिए गुरुचरण पांच-छह हज़ार रुपये प्रति बीघे की दर से दूसरे की ज़मीन लेते हैं। यहां ये बता दूं कि ये खेत उस तरह के नहीं हैं जैसा कि समतल खेत होता है। ये गंगा का पेटा है। जहाँ बारिश के बाद गंगा पूरे उफान पर बहती है। फिर नवंबर या दिसंबर लगते-लगते जब गंगा की धारा सिकुड़कर कम हो जाती है तब इन्ही पाटों पर तरबूज के बीज की बुआई होती है।
गुरुचरण की उम्र 69 साल है। उनको एक बेटा और पोता है। बेटा भी खेती में हाथ बंटाता है। बाप-बेटे पूरी तरह से खेती में ही लगे हुए हैं।गुरुचरण आगे बताते हैं कि तिलरवा का बीज़ 800 रुपये और कैप्सूल का बीज़ 1700 रुपये में 50 ग्राम मिलता है। एक बीघा खेत में 500 थाला (पौधे) बनता है। यानी 500 पौधे उगाये जाते हैं। गुरुचरण ने 1200 थाला तरबूज के बोये हैं और 100 थाला कद्दू। अगहन (दिसंबर) महीने में वह तरबूज की बुआई करते हैं। एक पौधे में कितने तरबूज फलते हैं। पूछने पर वह बताते हैं कि एक थाले में लगभग 50 किलो फल मिलता है।
वो थाला बनाने के बारे में बताते हैं। सबसे पहले गड्ढा खोदा जाता है, उसमें एक पलड़ा देसी खाद डाला जाता है। फिर पोटाश, डाई, यूरिया सब मिलाकर एक-एक मुट्ठी की मात्रा में डालते हैं। फिर एक-एक थाले में बीज बोते हैं। गुरुचरण बताते हैं कि केवल दो लोग मिलकर पूरे थाले नहीं बना सकते, इसलिए मज़दूर भी लगाना पड़ता है। इस सीजन में मज़दूरों ने थाला बनाने के लिए 500 रुपये दिहाड़ी ली। वो आगे बताते हैं कि एक आदमी पूरे दिन भर में 25-30 थाला ही बना पाता है। अगर मज़दूर न लगायें तो बाप-बेटे को मिलकर थाला बनाने में महीनों लग जायेंगे। इतना समय नहीं होता।
1200 थाले तरबूज की खेती में कुल लगभग कितनी लागत लग गई। सब जोड़कर गुरुचरण बताते हैं मोटी-मोटा 25 हजार रुपये। एक तूर में कमाई कितनी हो जाती है? पूछने पर वह बताते हैं लगभग एक लाख रुपये की। ऊपरी तौर पर देखने पर ऐसा लग सकता है कि गुरुचरण को 75 हजार रुपये मुनाफ़ा हुआ। लेकिन ऐसा नहीं है। गुरुचरण बाप-बेटे बारी-बारी से चौबीसों घंटे खेत में दिन में मड़ही में और रात में मचान पर पड़े रहकर फसल की रखवाली करते हैं। इसके अलावा सिंचाई, निराई गुड़ाई तमाम काम रहते है। दिसंबर में तरबूज के बीजों की बुआई से लेकर मई तक यानी पूरे छह महीने बाप-बेटे ने तरबूज के खेत में जो श्रम किया है, उस श्रम की क़ीमत लागत में नहीं जुड़ी है।
गुरचरण बताते हैं- थालों में पौधे के उगने के बाद से ही उसे बहुत सहेजना पड़ता है, रखवाली करनी पड़ती है। पौधे की पत्तियों को कीड़ों से बहुत नुकसान होता है। इसके अलावा बेसमय बारिश और ओलावृष्टि से भी नुकसान होता है। पौधों को आवारा पशु चर जाते हैं। फिर फल लगना शुरु होते ही अन्य जानवरों का हमला भी शुरु हो जाता है। सांड़, सुअर, सियार, नीलगाय सब खेतों में घुस आते हैं। कुछ फल खाते हैं कुछ पेड़ ही उखाड़कर खा जाते हैं।
यह भी पढ़ें…
आपका परिवार पूरी तरह खेती पर निर्भर है। जब तरबूज का सीजन खत्म हो जाता है तब क्या करते हैं? गुरचरण बताते हैं कि उखड़ा पर दूसरों का खेत लेते हैं। उसमें धान, गेहूं, साग, सब्ज़ी उगाते हैं। दूध के लिए दो जर्सी गाय पाल रखे हैं। गुरुचरण इंटरमीडिएट पास हैं। उनका बेटा ग्यारहवीं तक ही पढ़ाई कर पाया। पोते पढ़ रहे हैं। बेटे से बड़ी तीन बेटियां थीं, सबका शादी-ब्याह कर चुके हैं।
वर्ण ब्यवस्था में इसी लिए सारे उत्पादक सबसे नीचे रखे गाए हैं व्यापार करने वाला उससे ऊपर जगह पाता है
बहुत सुंदर आलेख