Saturday, July 27, 2024
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नस्लीय आरक्षण पर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सामाजिक न्याय की मुहिम पर क्या असर पड़ेगा

बीते 30 जून को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक ऐसा फैसला आया है, जिसे सुनकर विविधतावादी स्तब्ध हैं। इस फैसले का सम्बंध अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जारी नस्लीय आरक्षण से है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक और विवादित फैसला सुनाते हुए विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए नस्ल और जातीयता के आधार पर आरक्षण […]

बीते 30 जून को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक ऐसा फैसला आया है, जिसे सुनकर विविधतावादी स्तब्ध हैं। इस फैसले का सम्बंध अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जारी नस्लीय आरक्षण से है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक और विवादित फैसला सुनाते हुए विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए नस्ल और जातीयता के आधार पर आरक्षण को ख़त्म कर दिया है। इससे अमेरिका में जारी अफरमेटिव एक्शन (सकारात्मक विभेद) की व्यवस्था को बड़ा झटका लगा है। इस फैसले ने जहां दुनिया भर के समतावादियों को गहरा आघात पहुँचाया है, वहीं अमेरिका दो फाड़ होता नज़र आ रहा है। स्मरण रहे कि 1960 के दशक के नागरिक अधिकार आंदोलन की पृष्ठभूमि में साल 1978 में अमेरिका के विश्वविद्यालयों में जाति और नस्ल के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। इसका उद्देश्य समाज के वंचित और भेदभाव के शिकार वर्गों  को लाभ पहुंचाना था। यह नीति अश्वेत, हिस्पैनिक (नस्ल की परवाह किए बिना क्यूबा, ​​​​मैक्सिकन, प्यूर्टो रिकान, दक्षिण या मध्य अमेरिकी या अन्य स्पेनिश संस्कृति या मूल के व्यक्ति) और अन्य अल्पसंख्यक छात्रों को ज्यादा से ज्यादा उच्च शिक्षा में मौके देने के लिए शुरू की गई थी। सकारात्मक विभेद नीति के तहत छात्रों के ग्रेड, टेस्ट स्कोर और पाठ्यक्रम की गतिविधियों सहित हर पहलू का ध्यान रखा जाता था। इस नीति के फलस्वरूप अमेरिका में नस्लीय असमानता में भारी सुधार हुआ, किन्तु लगता है डोनाल्ड ट्रंप के राज में अमेरिकी अदालतों में जिन दक्षिणपंथी जजों का वर्चस्व कायम हुआ, उन्हें यह समानता रास नहीं आई, इसलिए मौका पाकर विश्वविद्यालयों में लागू अफरमेटिव अर्थात सकारात्मक विभेद पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

[bs-quote quote=”पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, जो बाईडेन के बयानों के बाद यह तय है कि अमेरिकी अल्पसंख्यकों सहित पूरी दुनिया के आरक्षण समर्थक इस फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगे। जिस तरह फ्लॉयड की जघन्य हत्या के बाद न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों में लोग सड़कों पर उतरे थे, जिस तरह हॉलीवुड स्टूडियो (डिज्नी, वार्नर ब्रदर्स, पैरामाउंट, नेटफ्लिक्स, अमेज़न) ने फ्लॉयड की हत्या के विरुद्ध धिक्कार ध्वनि गुँजित की थी, वैसे ही दृश्य की पुनरावृति अमेरिकी कोर्ट के आरक्षण-विरोधी फैसले के खिलाफ हो सकती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि कॉलेज एडमिशन के दौरान नस्ल और जातीयता को आधार बनाना असंवैधानिक है। मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट ने बहुमत के आधार पर लिए फैसले में लिखा कि ‘सकारात्मक विभेद सही नीयत के साथ लागू किया गया था, जो हमेशा नहीं चल सकता, यह अन्य छात्रों के साथ असंवैधानिक भेदभाव है। छात्रों को उनके अनुभव और काबिलियत के आधार पर मौके मिलने चाहिए ना कि नस्ल के आधार पर।’ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के विपरीत पीठ में शामिल न्यायमूर्ति ब्राउन जैक्सन ने कहा है कि निश्चित तौर पर यह फैसला हम सबके लिए त्रासदी है। एक अन्य न्यायमूर्ति सोनिया सोतोमयोर ने लिखा, ‘यह फैसला दशकों की मिसाल और महत्वपूर्ण प्रगति को पीछे ले जाता है। यह मानता है कि महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए कॉलेज प्रवेश में दौड़ का अब सीमित तरीके से उपयोग नहीं किया जा सकता है। जाति को नजरअंदाज करने से समाज में समानता नहीं आएगी।’ बहरहाल, अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अफरमेटिव एक्शन पर रोक लगाने वाले इस फैसले के पृष्ठ में स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशंस संस्था है। यह संस्था सकारात्मक विभेद नीति की घोर विरोधी है और इसकी स्थापना रूढ़िवादी कार्यकर्ता एडवर्ड ब्लम ने की थी। इस संस्था ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय और उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय की प्रवेश नीति में नस्ल और जाति के आधार पर गैरकानूनी भेदभाव का आरोप लगाया था। दोनों विश्वविद्यालयों की प्रवेश नीति को लेकर संस्था ने अलग-अलग मामले कोर्ट में दायर किए थे। संस्था का कहना था कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश नीति में एशियाई-अमेरिकी नागरिकों के साथ गैरकानूनी भेदभाव किया जाता है। इसी तरह उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय में श्वेत और एशियाई-अमेरिकी आवेदकों के साथ गैरकानूनी भेदभाव किया जाता है। संस्था ने कोर्ट में कहा था कि हार्वर्ड की नस्ल पर आधारित प्रवेश नीति 1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम के शीर्षक VI का उल्लंघन करती है, जो नस्ल, रंग या राष्ट्रीयता के आधार पर भेदभाव को रोकता है। बहरहाल, अमेरिका में अफरमेटिव एक्शन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है, उसके पृष्ठ में भारतीय मूल के छात्रों की भी भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती। सूत्रों के मुताबिक, अमेरिका के सकारात्मक विभेद कानून का विरोध करने वालों में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के छात्र भी शामिल हैं। मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि जिस समूह ने सकारात्मक विभेद नीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, उसके कई सदस्य भारतीय मूल के युवा भी हैं। इन युवाओं का मानना है कि सकारात्मक विभेद नीति के तहत उन्हें उच्च शिक्षण संस्थानों में एडमिशन मिलने के मौके कम मिलते हैं, क्योंकि शिक्षण संस्थान एडमिशन में सकारात्मक विभेद नीति के तहत भेदभाव करते हैं। ऐसा लगता है जैसे भारत में सवर्ण हजारों साल के वंचित समूहों (दलित, आदिवासी, पिछड़ों) का हक़ मारकर सभी क्षेत्र में कब्ज़ा जमाए हुए हैं। वैसे ही वे चाहते हैं कि अमेरिकी अल्पसंख्यकों को आरक्षण से वंचित कर स्थानीय गोरों के साथ मिलकर अपना कब्ज़ा कायम कर लें।

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पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि ‘सकारात्मक कार्रवाई नीतियों ने उन्हें और उनकी पत्नी मिशेल सहित ‘छात्रों की पीढ़ियों को’ यह साबित करने की अनुमति दी थी कि हम उनके हैं। ऐसी नीतियां यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक थीं कि नस्ल या उसकी परवाह किए बिना सभी छात्रों को सफल होने का अवसर मिले। अधिक न्यायपूर्ण समाज की दिशा में सकारात्मक कार्रवाई कभी भी पूर्ण उत्तर नहीं थी, लेकिन उन छात्रों की पीढ़ियों के लिए, जिन्हें अमेरिका के अधिकतर प्रमुख संस्थानों से व्यवस्थित रूप से बाहर रखा गया था, इसने हमें यह दिखाने का मौका दिया कि हम मेज पर एक सीट के हकदार थे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर, अब हमारे प्रयासों को दोगुना करने का समय आ गया है।’ उनकी पत्नी और पूर्व प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने एक अलग बयान में कहा है, ‘किसी भी युवा व्यक्ति के लिए मेरा दिल टूट जाता है, जो सोच रहा है कि उनका भविष्य क्या है और उनके लिए किस तरह के मौके खुले होंगे? मैं उन बच्चों के अंदर छिपी ताकत और धैर्य को जानती हूं, जिन्हें समान सीढ़ियां चढ़ने के लिए हमेशा अधिक पसीना बहाना पड़ता है। मुझे आशा है और मैं प्रार्थना करती हूं कि हममें से बाकी लोग भी थोड़ा पसीना बहाने के लिए तैयार हों। आज का दिन एक अनुस्मारक है कि हमें न केवल समानता और निष्पक्षता के हमारे मूल्यों को प्रतिबिंबित करने वाली नीतियां बनाने के लिए काम करना है, बल्कि हमारे सभी स्कूलों, कार्यस्थलों और पड़ोस में उन मूल्यों को वास्तव में वास्तविक बनाना है।’ किन्तु अफरमेटिव एक्शन अर्थात डाइवर्सिटी के समर्थकों को सर्वाधिक राहत राष्ट्रपति जो बाईडेन के बयान से मिली है। जो बाइडन ने कोर्ट के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा है कि,  ‘अमेरिका में भेदभाव अभी भी मौजूद है। कोर्ट का फैसला इसमें कोई बदलाव नहीं करता है। मेरा मानना ​​है कि हमारे कॉलेज तब मजबूत होते हैं, जब वे नस्लीय रूप से विविध होते हैं। हम इस निर्णय को अंतिम निर्णय नहीं मान सकते।’ प्रेसिडेंट बाईडेन के साथ कई डेमोक्रेट नेताओं ने इस फैसले से असहमति जताई है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले से पूर्व राष्ट्रपति ओबामा सहित अमेरिकी प्रेसिडेंट जो बाईडेन व्यथित हैं, उसकी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सहित रिपब्लिकन पार्टी के अन्य नेताओं ने सराहना की है। डोनाल्ड ट्रम्प ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा है कि, ‘यह वह फैसला है, जिसका हर कोई इंतजार कर रहा था, जिसका परिणाम आश्चर्यजनक था। यह हमें बाकी दुनिया के साथ प्रतिस्पर्धी भी बनाए रखेगा।हमारे महान विचारों को अवश्य संजोया जाना चाहिए और यह अद्भुत दिन यह फैसला लेकर आया है। हम सभी योग्यताओं के आधार पर वापस जा रहे हैं और ऐसा ही होना चाहिए।’ बहरहाल, डोनाल्ड ट्रंप ने इस फैसले पर जो ख़ुशी जाहिर किया है, वह कहीं से भी अप्रत्याशित नहीं है। कहा जा सकता है कि उन्होंने मेक अमेरिका ग्रेट अगेन के जरिये वंचित नस्लों के खिलाफ नफरत का जो पौधा रोपा था, वही बड़ा वृक्ष बनकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उभरा है। नरेंद्र मोदी के अमेरिकी क्लोन डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह अमेरिकी अल्पसंख्यकों  को अमेरिका के गोरों की प्रगति में बाधक बताते हुए ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया था, उससे प्रायः 70 प्रतिशत आबादी के स्वामी बहुसंख्य गोरों में अमेरिकी अल्पसंख्यकों में नफ़रत का ऐसा भाव पनपा कि अश्वेत नस्लीय हिंसा का शिकार होने के साथ ही उद्योग-व्यापार, फिल्म-टीवी से बहिष्कृत होने लगे। बहुसंख्य गोरों की नफरत के चलते ऑस्कर प्रायः पूरी तरह से व्हाईट हो गया था।

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ट्रंप एरा में ऐसा लगा जिन गोरों ने अपने सामाजिक विवेक का परिचय देते हुए हेरिएट स्टो के जमाने से वंचित कालों के हित में प्रचुर  साहित्य रचा, बेशुमार अर्थदान किया, जिन गोरों के सामाजिक विवेक के चलते 1970 में लागू डाइवर्सिटी पालिसी से अमेरिकी अल्पसंख्यकों को सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म-टीवी सहित अमेरिका के छोटे-बड़े तमाम शिक्षण संस्थानों में छात्रों के प्रवेश, शिक्षकों की नियुक्ति में संख्यानुपात में आरक्षण मिला। अमेरिकी प्रभुवर्ग का वह सामाजिक विवेक ट्रंप की नफरती राजनीति के भेंट चढ़ चुका है, किन्तु 25 मई, 2020 को जब मिनीपोलिस की पुलिस हिरासत में एक श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की घुटने से गर्दन दबाकर हत्या किए जाने वाला वीडियो सामने आया। अमेरिकी प्रभुवर्ग का सुप्त सामाजिक विवेक जाग उठा और वे उस जघन्य घटना के खिलाफ कालों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सड़कों पर उतर आए थे। अमेरिकी प्रभुवर्ग के आक्रोश से स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि नफरती राजनीति के बादशाह ट्रंप को अपने बीवी-बच्चों के साथ बंकर में पनाह लेना पड़ा था। अमेरिकी प्रभुवर्ग के जाग्रत विवेक के चलते ट्रंप अपने इंडियन क्लोन नरेंद्र मोदी की भांति सत्ता में वापसी न कर सके और जो बाईडेन उनकी जगह काबिज हुए। उसके बाद ऑस्कर सहित हर जगह नस्लीय विविधता का प्रतिबिम्बन होने लगा। 30 जून को आए रेसियल डाइवर्सिटी विरोधी फैसले ने अमेरिकी प्रभुवर्ग के सामाजिक विवेक को एक बड़ी परीक्षा के सम्मुखीन खड़ा कर दिया है।

पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, जो बाईडेन के बयानों के बाद यह तय है कि अमेरिकी अल्पसंख्यकों सहित पूरी दुनिया के आरक्षण समर्थक इस फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगे। जिस तरह फ्लॉयड की जघन्य हत्या के बाद न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों में लोग सड़कों पर उतरे थे, जिस तरह हॉलीवुड स्टूडियो (डिज्नी, वार्नर ब्रदर्स, पैरामाउंट, नेटफ्लिक्स, अमेज़न) ने फ्लॉयड की हत्या के विरुद्ध धिक्कार ध्वनि गुँजित की थी, वैसे ही दृश्य की पुनरावृति अमेरिकी कोर्ट के आरक्षण-विरोधी फैसले के खिलाफ हो सकती है। आरक्षण के मॉडल देश अमेरिका के इस फैसले का असर भारत सहित पूरी दुनिया में पड़ सकता है, लेकिन इसका प्रभावी विरोध तभी हो सकता है, जब अमेरिकी प्रभुवर्ग इसके खिलाफ अपने जाग्रत विवेक का उग्र प्रदर्शन करे। जैसा कि उसने मई, 2020 के बाद मिनीपोलिस की घटना के खिलाफ किया था। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि क्या अमेरिकी प्रभुवर्ग अल्पसंख्यकों के आरक्षण के खिलाफ आए फैसले पर अपने जाग्रत विवेक का परिचय देगा?

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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