हमने मण्डल से कमंडल को मात देने की कोशिश की तो कमंडल और चौड़ा हुआ
जनकवि रामकुमार कृषक से रविशंकर सिंह की बातचीत
पुरानी बात है। 2014 में एकदिन अचानक कवि रामकुमार कृषक का फोन आया कि वे अगस्त में रानीगंज आना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें एक सेमिनार में हिस्सा लेने के लिये कोलकाता आना है। कोलकाता में सेमिनार एटेंड करने के बाद उन्होंने रानीगंज आने और यहाँ दो-तीन दिन रुककर शांतिनिकेतन तथा चुरुलिया में कवि काजी नजरूल इस्लाम के गाँव देखने की इच्छा प्रकट की।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रामकुमार कृषक की रचनाओं को पढ़ने के कारण एक गीतकार, ग़जलगो और कवि के रूप में उनसे परिचय तो था ही, अलाव पत्रिका के एक दो अंक देखकर एक संपादक के रूप में भी मैं उन्हें जानता था, लेकिन उनके बारे में एक अच्छे इंसान के रूप में संजीव भाई से उनकी चर्चा सुनकर उनसे मिलने की बड़ी इच्छा हो रही थी। संजीव भाई अक्सर उनके शे’र हमें सुनाया करते थे, जिसे उन्होंने धनबाद में सड़क पर चलते-चलते मौसम के मिजाज को देखकर कहा था –
लघु पत्रिकाओं का सवाल एक लेखक की तरह आपकी चिंताओं में शामिल है, क्योंकि लघु पत्रिकाओं की समस्याएँ लेखक और पाठक की भी समस्याएँ हैं। साहित्य के संदर्भ में लघु पत्रिका, लेखक और पाठक तीनों का सहकार जरूरी है। यह है भी, पर एक सीमा तक ही। अर्थाभाव इसमें सबसे बड़ी बाधा है। अर्थाभाव लघु पत्रिकाओं के आधार पर चोट करता है। न वे अपने लेखकों को मानदेय दे पाती हैं, न प्रचार-प्रसार के दायरे को बढ़ा पाती हैं। इससे हमारे विचार की सृजनात्मक यात्रा, अपनी जनपक्षधर संस्कृति के बावजूद दूर तक नहीं जा पाती है।
‘बरसात हो रही है, बरसात हो रही है,
धरती की आसमाँ से बात हो रही है।
तारों से जुगनुओं से, रिश्ता है इक पुराना,
डरने की बात क्या है, गर रात हो रही है।’
वह प्रतिक्षित दिन भी आया, जब कृषक जी के मुबारक कदम रानीगंज की धरती पर पड़े। मैं अपने बेटे के साथ उनकी अगवानी के लिये स्टेशन पर था। बेटे ने पूछा, ‘आपने उन्हें पहले कभी देखा है?’ मैंने कहा- नहीं।
बेटे ने कहा, ‘फिर उन्हें पहचानेंगे कैसे?’
मैंने कहा – ‘ कवि को पहचानने में ज्यादा परेशानी नहीं होती है।’
कुछ-न-कुछ तो अलग दिखता ही है कवि के व्यक्तित्व में। वैसे मैंने उनके बारे में काफी कुछ सुन रखा है। उनकी लंबी कद-काठी और ग्रामीणों जैसा सीधा-सादा व्यक्तित्व के बारे में।’

ट्रेन आई और चली गई। प्लेटफार्म खाली हो गया। हमने देखा एक बुजुर्ग को अपनी बगल में एक अटैची दबाये चुपचाम सिमेंट की कुर्सी पर बैठा हुआ देखा। मैंने उनसे पूछा-‘आप रामकुमार कृषक हैं ?’
उन्होंने गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा-‘अरे, मैं तो आपलोगों का ही इंतजार कर रहा था। चलिये कहाँ चलना है?’
उनकी स्फूर्ति, चाल-ढाल और उनकी गर्मजोशी देखकर कौन कह सकता है कि उनकी ओपेनहार्ट सर्जरी हो चुकी है और अभी भी वे डाक्टर के द्वारा दी गई हिदायत मानकर चलते हैं।
अगले दिन उनके साथ हमलोग शांतिनिकेतन गये। वे जहाँ-तहाँ कार रुकवाकर वीरभूम के गाँव-घर, प्रकृति की तस्वीर अपने कैमरे में कैद करते रहे। परिणामस्वरूप हमलोग नियत समय पर शांतिनिकेतन नहीं पहुँच सके। खैर, जब हमलोग वहाँ पहुँचे हिन्दी विभाग के शिक्षकों और छात्र-छात्राओं ने उनका यथोचित स्वागत- सत्कार किया। वहाँ उनका एकल काव्य-पाठ हुआ। अगले दिन सुबह वे कवि काजी नजरुल इस्लाम के गाँव चुरुलिया गये। शाम में रानीगंज में उनका काव्य-पाठ हुआ। विदाई के दिन आसनसोल के हिन्दी भवन में भी उनका काव्य-पाठ हुआ। हर मंच पर उन्होंने लगभग अलग-अलग कविताएँ सुनाई। श्रोताओं ने उन्हें तन्मयता से सुना और उनकी रचनाओं की सराहना की। एक जनकवि को इससे ज्यादा क्या चाहिये था ?
वे तीन दिन और तीन रातें। कृषक जी से आत्मीय मुलाकात और ढेर सारी बातें। टुकड़े-टुकड़े में उनसे बातें करके जो बातें छनकर आई उसे मैंने दर्ज कर लेना लाजमी समझा।
कृषक जी, आप लघु पत्रिका आंदोलन से जुड़े रहे हैं। आप स्वयं अलाव जैसी लघु पत्रिका का निरंतर संपादन कर रहे हैं। ( अब तो अलाव क्या लगभग सभी हिन्दी पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं या बंद होने के कगार पर हैं।) एक संपादक होने के नाते आप अपने अनुभव बताएँ कि लघु पत्रिकाओं को किन समस्याओं से जूझना पड़ रहा है और इसका विकल्प क्या है?
कृषक जी ने अपना चश्मा साफ करते हुए कहा – लघु पत्रिकाओं का सवाल एक लेखक की तरह आपकी चिंताओं में शामिल है, क्योंकि लघु पत्रिकाओं की समस्याएँ लेखक और पाठक की भी समस्याएँ हैं। साहित्य के संदर्भ में लघु पत्रिका, लेखक और पाठक तीनों का सहकार जरूरी है। यह है भी, पर एक सीमा तक ही। अर्थाभाव इसमें सबसे बड़ी बाधा है। अर्थाभाव लघु पत्रिकाओं के आधार पर चोट करता है। न वे अपने लेखकों को मानदेय दे पाती हैं, न प्रचार-प्रसार के दायरे को बढ़ा पाती हैं। इससे हमारे विचार की सृजनात्मक यात्रा, अपनी जनपक्षधर संस्कृति के बावजूद दूर तक नहीं जा पाती है।
जहाँ तक विकल्प का सवाल है तो उसकी जरूरत बराबर बनी हुई है। सन् 1993 से ही, जबकि लघु पत्रिका-प्रकाशन को आंदोलन शब्द से जोड़ा गया। वे सांप्रदायिक फासीवाद के उभार के दिन थे। आप देखें कि आज वही उभार फिर से हमारे सामने मौजूद है। इस परिणति को हम क्या कहेंगे? संगठन बना, आंदोलन नहीं। इसके कारणों में राजनीतिक मतभेद भी रहे और उससे प्रभावित लेखक संगठनों का बँटवारा भी। यह नहीं होना चाहिए था, लेकिन वह आज भी बना हुआ है। मुझे लगता है , उसे नया करने की और अधिक जरूरत है और एक व्यापक सहमति एवं सहकार की भी। ’
साहित्य-साधकों की सूची में सबसे नीचे दरअसल उन्हीं साहित्यकारों का नाम होता है, जो धारा के विरुद्ध होते हैं। वे अपने वर्तमान में तो होते ही हैं, पर भविष्य को भी लक्षित कर रहे होते हैं। दिदरो, रूसो, माटेंस्क्यू का नाम आपने लिया। अपने यहाँ निराला को देखिये। पीछे जाकर कबीर को देख सकते हैं। इधर नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर आदि कवियों के साथ भी देर तक ऐसा ही हुआ। 1980 तक तो अज्ञेय ही ज्ञेय थे। मुक्तिबोध भी मुक्तिबोध तभी हुए जब वे इस दुनिया में नहीं रहे। तो असली, टिकाऊ प्रतिमान तो आखिर जन-स्वीकृति से ही बनते हैं। भविष्य में आज के काव्य-प्रतिमानों की क्या गत होगी, यह कौन जाने।
एक संपादक को रचना के चयन एवं संपादन में किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
समस्या रचनाओं के चयन में नहीं, उनके ‘ रचना ’ होने न होने में होती है। खासकर नए रचनाकारों के संदर्भ में, जो लघु पत्रिकाओं की साहित्यिक प्रतिबद्धता को नहीं समझते और आग्रही होते हैं। हर गंभीर पत्रिका चाहती है कि वह अच्छी सामग्री जुटाए और नए से नए लेखक को स्थान दे, लेकिन उसे अपने संपादकीय सरोकार और रचना की गुणवत्ता को तो देखना ही होता है। एक समस्या और भी है, और वह है आत्म-प्रचार के मोह में पड़ने की। लघु पत्रिका आप किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर निकाल रहे हैं, न कि अपनी संपादकीय या लेखकीय महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये। संपादक को इससे बचकर रहना चाहिये। कुछ प्रलोभन बाहर से भी आते हैं, उनका प्रतिरोध भी जरूरी है। ’
आजकल लघु पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गई है। क्या यह सब फैशन के तौर पर हो रहा है ? विचारधारा और प्रतिबद्धता लघु पत्रिका की अनिवार्य शर्त है- इस कथन से आप कहाँ तक सहमत है ?
बाढ़ किसी भी तरह की हो रविशंकर जी, वह विध्वंशात्मक ही होगी, रचनात्मक नहीं। अक्सर तो वह अच्छी चीजों को ठिकाने लगा देती है, इसलिये इससे बचे रहने या इसमें भी बचे रहने का एक ही उपाय है और वह स्वयं आपके सवाल में निहित है- विचारधारा और जन-प्रतिबद्धता। निःसंदेह यही दोनों चीजें हमें हर तरह के विचलन से बचाये रखेंगी।
आज लघु पत्रिकाओं के अंदर भी बड़ी पत्रिकाओं का चरित्र उभर रहा है। ऐसी पत्रिकाओं का अपना बाजार है। इस परिस्थिति में ‘ अलाव’ जैसी अन्य ढेर सारी पत्रिकाओं को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है ?
बाजार और लघु पत्रिकाओं का सहकार प्रायः असंभव है। सबसे पहले वह हमारी स्वायत्तता और ईमान पर हमला करता है। बड़ी पत्रिकाएँ अपना एक बाजार जरूर बना सकती है। जैसा कभी धर्मयुग, हिंदुस्तान, कादम्बिनी, सारिका आदि ने बनाया था, पर वे कल्पना, नवनीत, प्रतीक आदि नहीं हो सकतीं। यहाँ तक कि पहल, हंस, आलोचना, वसुधा, वागर्थ, कथादेश, नया पथ, समयांतर और कथन जैसी भी नहीं। अलाव जैसी अनेक पत्रिकाओं का तो कोई बाजार है ही नहीं और न होगा। दिल्ली सरकार के सूचना एवं प्रचार निदेशालय ने पाँच साल तक करीब बत्तीस पत्रिकाओं को हिन्दी के बड़े साहित्यकारों पर केन्द्रित उनका ‘पुण्य स्मरण’ करते हुए जो विज्ञापन जारी किया, वह एक महत्वपूर्ण कदम था और जिससे अलाव को भी पहली बार निरंतरता मिली, लेकिन एक साल हो गया, उस योजना का पुनर्नवीकरण नहीं हो सका और आगे भी उम्मीद कम है। इसलिये अलाव जैसी पत्रिकाएँ फिर से अनियतकालीन होने की राह पर हैं। …. तो यह चुनौती है कि ऐसे में लघु पत्रिकाओं को किस तरह जीवित रखा जाये।
एक प्रतिबद्ध संपादक के रूप में अपना निजी अनुभव बताएँ।
जहाँ तक निजी अनुभव की बात है तो वे अनेक हैं और अनेक प्रकार के हैं। एक रचनाकार मित्र की इच्छा थी कि एक अंक उनपर केन्द्रित करूँ। एक सज्जन अपना पूरा उपन्यास पत्रिका में छपवाना चाहते थे। बदले में अपनी संस्था के खर्च पर पाकिस्तान-यात्रा का प्रलोभन भी था। एक मित्र अपनी ग़ज़लों पर विशेष खंड चाहते थे और एक पहल में प्रकाशित अपनी कविता को लेकर मेरे संपादकीय में उस पर चर्चा के आग्रही थे। …..तो ये हाल तो रविशंकरजी जी तब है, जब ऐसे तमाम लोग मेरी रचनात्मक प्रतिबद्धता को जानते हैं, लेकिन समझते नहीं हैं। ऐसा करते हुए अपनी लेखकीय नैतिकता के कपडे़ तो वे उतारते ही हैं, संपादक की नैतिकता से भी खेलना चाहते हैं। शेष अनुभवों का क्षेत्र दूसरा है और वह मेरी जनोन्मुख साहित्यिक निष्ठा और रचनात्मक सरोकारों की विभिन्न चुनौतियों से जुड़ा हुआ है। कई कहानियाँ, कई तरह के वाद-विवाद हैं, लेकिन हरेक का उद्देश्य अंततः है साहित्य ही।
एक व्यक्तिगत सवाल। बकौल सुधीर वि़द्यार्थी ‘अमरोहा के रामकुमार ’को दिल्ली जैसा महानगर कितना रास आ रहा है ? अपनी मिट्ठी से कटने की कसक आपकी रचनाओं में दिखती है –
‘ट्रेन पकड़ी जा बसा दिल्ली हुआ अच्छा,
क्या बुरा था जब जुड़ा था गाँव-गोधन से,
ढूँढने निकला वजूदे-खुद मगर कुछ यूँ,
गुम हुआ जन-संकुलों में टूटकर जन से,
कुछ तो खिलता है सरसता है कहीं भीतर,
हूँ भले ही दूर फागुन और सावन से।’
दिल्ली जैसा महानगर रास तो मुझे कभी नहीं आया। वह दिल्ली कोई और रही होगी, जिसके बारे में कभी जौक ने कहा था –‘कौन जाये जौक अब दिल्ली की गलियाँ छोड़कर।’1957 में पिताजी के साथ पहली बार दिल्ली को देखा था, आजादी मिलने के दस साल बाद, जबकि मैं तेरह-चैदह साल का था और जल्दी ही करीब छह साल बाद 1963 में रोजगार की तलाश में फिर दिल्ली आ पहुँचा। दिल्ली में यमुना है, लेकिन धीरे-धीरे वह कालीदह में तब्दील हो गई है। स्नान मैंने उसमें 1957 में ही किया था। उसके बाद नहीं। दिल्ली देश की राजधानी है, पर जो राजधानी अपने पानी तक को न बचा सके वह कृषक को कैसे रास आयेगी ? इतिहास का केन्द्र है वह, पर उसमें आम आदमी की जगह कहाँ है। मेरा एक शे’र है – हैं महाभारत में हम भी क्या हैं यह मत पूछिये/पांडवों के भी हुए तो सिर्फ लस्कर हो गए। तो यह हाल है। महानगर के जीवन को लेकर मेरी अनेक कविताएँ हैं। उस जीवन में मैंने अपने को कई तरह से तबाह होते सर्वहारा की पक्षधरता में रखकर देखा है। व्यक्ति और अपने रचनाकार दोनों को। मेरी इधर की ही अप्रकाशित कविता का एक अंश है –
धूल-मिट्टी से उठा हूँ धूल-मिट्टी हूँ,
गाँव ने भेजी शहर के नाम चिट्टी हूँ,
शब्द से नाता कहीं था संस्कारों में,
सरित-सा गतिवान, बँधकर भी किनारों में,
मैं सही मैं ही सही हूँ यह गलत शुरूआत,
कीच भी उतनी सही जितना सही जलजात,
सुन रहा हूँ गुण रहा फिर भी नहीं गुणवान,
हूँ नहीं मिलता जिन्हें वाणी का वरदान,
जो किया अर्जित किया जिसका जनक है स्वेद,
मैं श्रमिक मैं ही कृषक हूँ पर न इसका खेद,
लिख गए कितने ही पुरखे दे गये संदेश,
काव्य में ही हैं निहित हर काल के अवशेष,
खोजिये फिर खोजिये उसमें कहाँ हैं आप,
मनुजता की राह में वरदान या अभिशाप ?

कृषक जी, आपने कविता में अपनी बात कह दी। मेरे हाथ में आपके पुरस्कारों की लम्बी सूची है। आपको अपने रचनाकर्म के लिये प्रकाशवीर शास्त्री स्मृति पुरस्कार, हिन्दी अकादमी बाल साहित्य पुरस्कार – दिल्ली, सारस्वत सम्मान – मुंबई, इंडो-रशियन लिटरेरी क्लब – नई दिल्ली, साहित्यिक कृति सम्मान, हिन्दी अकादमी – दिल्ली, अदबी संगम एवार्ड – अमरोहा, नई धारा रचना सम्मान – पटना आदि अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं। इन सम्मानों का एक रचनाकार के जीवन में क्या और कितना महत्व होता है ?
किंचित मुस्कुराते हुए – सम्मान और पुरस्कारों का महत्व तो होता है, अगर ये स्वतः सहज भाव से आ रहे हों। अन्यथा पहला सवाल तो हमें स्वयं से ही करना चाहिये कि कहीं हम अपने आप ही तो अपने लिये तमगे नहीं जुटा रहे! इस संदर्भ में किसी बड़े शायर का यह शे’र सुनिये –
“अभी खरीद लें दुनिया कहाँ की मँहगी है,
मगर जमीर का सौदा बुरा-सा लगता है। ”
….तो अपनी कसौटी आप स्वयं ही हैं। ’
हमारे ब्राह्मणवादी-सामंतवादी और सवर्णवादी संस्कार, जिन्हें आज की भ्रष्ट और स्वार्थ-केन्द्रित राजनीति खाद-पानी मुहैया करा रही है। हमने मंडल से कमंडल को मात देने की कोशिश की, लेकिन परिणाम क्या निकला ? कमंडल ही और चौड़ा हुआ न ! दरअसल ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ, तथाकथित धर्म और जातिवाद, जन-विरोधी राजनीति का मूलाधार हैं। ’
कहते हैं कि फ्रांस की राज्य क्रांति के दिनों में जिन डेढ़-दो सौ साहित्यकारों की सूची बनी थी, उनमें मान्टेस्क्यू, दिदरो, रूसो का नाम सबसे नीचे था। तो अपने काल के सबसे कम महत्वपूर्ण ऐसे लोग ही इतिहास में दर्ज रह गये हैं। आखिर वे कौन-से तत्व हैं जो किसी रचनाकार को कालजयी बनाते हैं ?
साहित्य-साधकों की सूची में सबसे नीचे दरअसल उन्हीं साहित्यकारों का नाम होता है, जो धारा के विरुद्ध होते हैं। वे अपने वर्तमान में तो होते ही हैं, पर भविष्य को भी लक्षित कर रहे होते हैं। दिदरो, रूसो, माटेंस्क्यू का नाम आपने लिया। अपने यहाँ निराला को देखिये। पीछे जाकर कबीर को देख सकते हैं। इधर नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर आदि कवियों के साथ भी देर तक ऐसा ही हुआ। 1980 तक तो अज्ञेय ही ज्ञेय थे। मुक्तिबोध भी मुक्तिबोध तभी हुए जब वे इस दुनिया में नहीं रहे। तो असली, टिकाऊ प्रतिमान तो आखिर जन-स्वीकृति से ही बनते हैं। भविष्य में आज के काव्य-प्रतिमानों की क्या गत होगी, यह कौन जाने।
आपकी रचनाओं के नाम गिना रहा हूँ। बापू, ज्योति, सुर्खियों के स्याह चेहरे, नीम की पत्तियाँ, फिर वही आकाश, आदमी के नाम पर मज़हब नहीं, मैं हूँ हिन्दुस्तान, लौट आएँगी आँखें और अपजस , अपने नाम , आपके नौ कविता-संग्रह हैं। इसके अलावा नमक की डलियाँ आपका कहानी-संग्रह है। कहा उन्होंने, साक्षात्कार और दास्ताने-दिले-नादान आत्मसंस्मरण है। सवाल है कि अभिव्यक्ति के लिये कौन-सी विधा आपको ज्यादा उपयुक्त लगती है ?
कविता और संस्मरण।
आपने एक शे‘र में कहा है- “तारों का जुगनुओं से है इक रिश्ता पुराना/डरने की बात क्या है गर रात हो रही है।” घोर निराशा के इस दौर में इतना आशावादी स्वर आप कहाँ से ढूंढ लाते हैं ?
…. जीवन से। उसके संघर्ष और उसकी श्रमशील गतिशीलता से। मृत्यु से पहले तो मरण है ही नहीं। वैसे भी प्रकृति में प्रत्येक जीव मरणोन्मुख है, फिर भी वह जीवन की साधना करता है। मनुष्य सृष्टि के आरंभ से ही संघर्षधर्मी रहा है। यह नहीं होता तो वह नहीं होता। प्रकृति से संघर्ष करते हुए , प्रकृति से ही उसने आगे बढ़ना सीखा है। रात ने ही उसे दिन की पहचान कराई। आकाश में टिमटिमाते तारों और जुगनुओं ने भी उसे राह दिखाई। निराशा वैसे भी एक मनःस्थिति है, वैसे उसके परिस्थितिगत कारणों को अनदेखा नहीं किया जा सकता, लेकिन अंततः उससे पार पाना भी मनुष्य का ही कर्तव्य है। एक शे’र देखें- “वैसे भी नाउम्मीद जो होेते वो हम नहीं/देखे हैं अँधेरे में उजाले किये हुए। ”
कृषक जी, मैं आपके अतिरिक्त और दो कवियों की पंक्तियाँ पढ़ रहा हूँ। दिनकर ने कहा है- “चाहिये देवत्व,/पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर ?/वह्नि का बेचैन यह रसकोष बोलो कौन लेगा ?/ आग के बदले मुझे संतोष बोलो कौन देगा ? “
दुष्यंत कुमार कहते हैं – “हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिये। “
आपने कहा है- ” आग बिन रोटी नहीं होगी,
अन्न के सँग आग भी पैदा करें। “
आपने स्वयं से भी प्रश्न किया है – अग्निधर्मा हैं मगर इस आग का हम क्या करें ? यहाँ ‘ आग ‘ के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। एक शब्द के अर्थ में ऐसा और इतना अंतर कैसे आता है ? ’
आग शब्द को लेकर आपने अत्यन्त महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। कविता इतिहास से गुजरते हुए अपने वर्तमान तक आती हैं। शब्द उसमें वही होते हैं, लेकिन देश-काल-परिस्थिति और कवि के अपने भावलोक के अनुसार नई से नई अर्थ-व्यंजना करने लगते हैं। दिनकर के यहाँ जो आग है, उससे उन्हें असंतोष है। उसके बदले वे संतोष चाहते हैं। एक बेचैनी है और एक द्वन्द्व, जो उन्हें देवत्व की ओर नहीं जाने दे रहा है। दूसरे शब्दों में उनके समय का बाहरी यथार्थ उनके आनुभूतिक यथार्थ पर भारी पड़ रहा है। दुष्यन्त के यहाँ ऐसा कोई द्वन्द्व नहीं है। आग के प्रति सिर्फ एक कामना है, बेशक वह कहीं भी जले। और इसमें जो आकांक्षा है, बदलाव उसके मूल में है। वह अपने लिये नहीं है।
अब मैं अपनी कविता पंक्तियों पर क्या कहूँ। संकोच में डाल दिया है आपने मुझे। फिर भी कोई कविता अपने ही तक कहाँ सीमित होती है। दुष्यन्त के शब्दों में – ” मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूँ ? ”
…तो मेरी पहली दो पंक्तियों का रिश्ता उस किसान से है जो अन्न तो उगाता है दुनिया भर के लिये, लेकिन स्वयं भूखा रह जाता है। कारण, आग और अन्न के रिश्ते को उसने भुला दिया है। आग यहाँ प्रतिरोधी संघर्ष चेतना का पर्याय है और क्रांतिकारिता का भी। दूसरा उद्धरण आपने मेरी गजल से लिया है। ‘अग्निधर्मा हैं मगर इस आग का हम क्या करें?’ यह दिनकर की कविता ‘चाहिये देवत्व पर इस आग को धर दूँ कहाँ’ पर के काफी करीब है, लेकिन देवत्व की चाहत यहाँ एकदम नहीं है, बल्कि उस देवत्व, आर्यत्व या और नीचे उतरें तो उस तथाकथित हिन्दुत्ववादी अवधारणा पर प्रहार है, जो आज फिर से उठान पर है। स्मरणीय है कि गजल का यह मिसरा 1985 का है, जबकि 1984 में सिक्ख विरोधी सांप्रदायिक हिंसा का धुआँ माहौल में बाकी था और निकट भविष्य में ही बाबरी विध्वंश होनेवाला था। तो आग एक ही है, लेकिन उसकी लक्षित भूमिकाएं अनेक हैं। ’
यह बताइये कृषक जी, महात्मा बुद्ध, कबीर, महात्मा फुले, साहूजी महाराज, बाबा साहब अम्बेडकर की तमाम कोशिशों के बावजूद जातिवाद की जड़ें और गहरी होती जा रही हैं। इसकी जड़ों में कौन खाद-पानी दे रहा है ? ’
हमारे ब्राह्मणवादी-सामंतवादी और सवर्णवादी संस्कार, जिन्हें आज की भ्रष्ट और स्वार्थ-केन्द्रित राजनीति खाद-पानी मुहैया करा रही है। हमने मंडल से कमंडल को मात देने की कोशिश की, लेकिन परिणाम क्या निकला ? कमंडल ही और चौड़ा हुआ न ! दरअसल ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ, तथाकथित धर्म और जातिवाद, जन-विरोधी राजनीति का मूलाधार हैं। ’
वर्तमान दौर में आप देख रहे हैं कि अब बाजार हमारे लिये नहीं रह गया है, बल्कि हम बाजार के लिये हो गये हैं। पहले हम अपनी जरूरतों के लिये बाजार जाते थे। अब बाजार हमारे घरों में घुसकर हमारे अंदर जरूरतें पैदा कर रहा है। इस बाजारवाद से लड़ने की कोई तरकीब आपको सूझती है?’
देखिये रविशंकर जी, बाजार कबीर के जमाने में भी था और ग़ालिब के भी। पीड़ित भी उससे कुछ-कुछ दोनों नजर आते हैं। तो भी वह उनकी या हमारी जरूरतों में शामिल था, लेकिन आज की बिडम्बना तो यह है कि अब हम उसकी जरूरतों में तब्दील हो गये हैं। उसने हमें मनुष्य से वस्तु और उपभोक्ता में बदल दिया है। अब वह हमारी जेब में नहीं, हम उसकी जेब में हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी मुक्त अर्थ-व्यवस्था का मतलब है, अमीर देशों द्वारा गरीब देशों की उन्मुक्त लूट। इन लुटेरों में राष्ट्रीय लुटेरे भी शामिल हैं। इन सबको अपने-अपने हिसाब से राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पूँजी पर अधिकार चाहिये। इसी के लिये आर्थिक सुधारों के सब्जबाग दिखाए गए हैं, जबकि वास्तविक अर्थों में यह व्यवस्था बड़ी पूँजी के हाथों छोटी पूँजी की लूट को निरापद बनाती है। विकासशील देशों में किया जानेवाला कोई भी पूँजी-निवेश अंततः मुनाफे के लिये ही होता है। जनहित का उससे दूर-दूर तक संबंध नहीं होता।
आपने इससे लड़ने की तरकीब की बात की है, तो इसके लिये आज भी हमें मार्क्स और गाँधी रास्ता दिखाते हैं। मार्क्स की क्रांतिकारी राजनीति को गाँधी का नैतिक बल चाहिए। एक ठग हमारे बाहर है तो दूसरा हमारे भीतर। बाहरी ठग हमें ढोल बजाकर ठगता है तो भीतरी ठग चुपचाप, इसलिये जब तक हम इनदोनों के विरुद्ध खडे़ नहीं होंगे, तब तक बात नहीं बननेवाली। पूँजी की लूटाधारित विश्व-व्यवस्था अंततः इस दुनिया को हर विनाश की दिशा में ले जा रही है। ’
अपनी रचना के संदर्भ में बताएं कि क्या आपको ऐसा लगता है कि अभी बहुत कुछ अनकहा रह गया है ? अथवा यह कचोट होती है कि काश! अपनी बात को मैं और बेहतर कह पाता ?’
जीवन अगर गतिशील है तो उसमें नए अनुभव जुड़ेंगे ही। नए अनुभव जुड़ेंगे तो नया सृजन भी होगा। तो एक रचनाकार का बहुत कुछ अनकहा रहता ही है। एकबार बाबा नागार्जुन से पूछा गया कि बाबा, आपके अपने जीवनानुभव आपकी कविता में किस हद तक आए हैं ? तो उन्होंने दोनों हाथों को कंधों तक फैलाते हुए कहा था, जीवन इतना बड़ा है और मैंने उसमें से इत्ता-सा, यानी अंगुल-भर रचा होगा। तो यह बात है। मेरा हाल भी इससे अलग नहीं है। एक तो अनुभवों की पूँजी कम, और फिर उसे रचने की क्षमता भी। रही बात बेहतरी की तो बेहतर कहने की आकांक्षा तो बनी ही रहती है।
मुक्तिबोध कहते हैं, जनता का साहित्य का अर्थ है-जनता के लिये साहित्य। मार्क्स, एंगेल्स का साहित्य जनता का साहित्य है। आप जैसे तमाम प्रतिबद्ध रचनाकारों का साहित्य जनता का साहित्य है, लेकिन आप लोगों की रचनाएँ क्या जनता तक पहुँच पाती हैं ? ’
मार्क्स- एंगेल्स जैसे जन-दार्शनिक हों या मुक्तिबोध जैसे साहित्यकार, जनता की चिंता सभी ने की है कि उनका लिखा उस तक पहुँचे। हम जैसे रचनाकार भी यही चाहते हैं, लेकिन यह संभव कहाँ हो पा रहा है। न जनता तक हम जा रहे हैं न जनता हमारे पास आ रही है। न स्कूल-कॉलेज छात्रों को साहित्य की ओर प्रेरित और संस्कारित कर रहे हैं, न घर-परिवार। दृश्य और प्रिन्ट मिडिया में भी आज साहित्य की कोई जगह नहीं है, क्योंकि वह बाजार की सेवा जो नहीं कर सकता। हिन्दी प्रदेश अपनी सात्यिक संस्कृति से सर्वाधिक विमुख है। बंगाल की इस यात्रा में मैं कोलकाता से लेकर आपके रानीगंज, शांतिनिकेतन, महाकवि नजरूल के गाँव चुरुलिया और आसनसोल तक घूमा हूँ और हर ओर बांग्ला भाषा- साहित्य की जन-संस्कृति को महसूस किया है। काजी नजरुल इस्लाम के गाँव की दीवारों तक पर उनके चित्र और उनकी कविताओं के अंशों का शब्दांकन मौजूद है।… तो अपने कवियों और लेखकों के प्रति जनता का भी दायित्व होता है। लेकिन इस ओर हमारी जनता प्रायः उदासीन है। मेरा एक शे’र इसी संदर्भ में यह शिकायत करता है-
हमने माना कि इन्कलाब अदब से न कोई,
हमें भी कम तो नहीं आपसे गिला साथी।
‘ आपकी कुछ पंक्तियाँ पढ़ रहा हूँ –
मसें अभी भीगी थीं, सीना तनिक खुला था,
खेतों की मिट्टी की गंध बसी थी मन में,
हाथों में कच्चे चारे का मिठलौनापन,
लिपे-पुते आँगन की ठंडक थी तलुओं में। “
तारकोल की सड़कों पर एड़ियाँ घिसते हुए क्या अभी भी आपके तलुओं में लिपे-पुते आँगन की ठंडक बची हुई है ? ’
नहीं रविशंकर जी, ठंडक तो वह अब नहीं बची, लेकिन अहसास उसका अब भी बचा हुआ है। और यही अहसास मुझे उन युवाओं तक ले जाना है, जो अपने लिपे-पुते आँगन की ठंडक अपने तलुओं में लिये हुए गाँव से महानगर आते हैं और कई बार वे तारकोली, खूनी सड़कों पर दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते हैं। और ये दुर्घटनाएँ सिर्फ बाहर ही नहीं होतीं, बल्कि मनुष्य के भीतर भी होती हैं। जिस कविता से आपने मेरी कविता की पंक्तियाँ ली हैं, वह बेहद मार्मिक है और उसके दृश्यमान यथार्थ का मैं साक्षी था। काल्पनिक उसमें कुछ भी नहीं है। उसे याद करना और पढ़ना मेरे लिये आज भी कष्टकर है, जबकि मैं ही उसका रचयिता हूँ।
रविशंकर जाने-माने कहानीकार हैं।