मीराबाई चानू की सफलता के पीछे भगवान नहीं  डायरी (25 जुलाई, 2021)

नवल किशोर कुमार

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दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र में मेरे हिसाब से अंतर है। हालांकि दोनों के बीच इतनी निकटता है कि सामान्य तौर पर इसे अलग नहीं समझा जा सकता। जो धर्म है, वही दर्शन है और जो दर्शन है, वही धर्म है। परंतु, यह सत्य नहीं है। धर्म से दर्शन की उत्पत्ति होती है। जब एक बार आदमी किसी धर्म को मान लेता है, तो वह उसके दर्शन को भी स्वीकार कर लेता है। ऐसा नहीं हो सकता है कि आदमी किसी धर्म को माने और उसके दर्शन को न माने। लेकिन मूल बात यह है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। धर्म के बिना दर्शन नहीं और दर्शन के बिना धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है।

भारतीय दर्शन के मूल में क्या है? यह सवाल जेहन में तब नहीं आया था जब मैं कंप्यूटर साइंस का छात्र था। तब होता यह था कि न्यूटन के गति के नियमों और आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत के आधार पर हर घटना का मूल्यांकन करता रहता था। यह भी नहीं जानता था कि दर्शन का मतलब क्या होता है। इसके पहले जब विज्ञान की समझ भी नहीं थी, तब तो जो मेरी आंखों के सामने गुजरता, उसके पीछे भगवान का खेल समझता था।

मेरा जन्म बेहद गरीब और अभावग्रस्त लेकिन एक खुशहाल परिवार में हुआ। घर में शिक्षा नहीं थी। मम्मी और पापा को बेटों को पढ़ाने का शौक था। बेटियों की शिक्षा में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। तो हुआ यह कि मेरी बहनें अनपढ़ रह गयीं और हम दोनों भाई पढ़-लिख गए। ऐसे परिवारों में भगवान बहुत महत्वपूर्ण होता है। यहां तक कि यदि कोई बीमार पड़ जाय तो उसके पीछे भी भगवान और ठीक हो जाय तो उसके पीछे भी भगवान।

बचपन में मैं बीमार बहुत पड़ता था। पापा आज भी मुझे सुनाते रहते हैं कि मुझे पालने में उन्होंने एक बोरा रुपया खर्च किया है। इतने रुपए में वह चाहते तो पांच बीघा जमीन खरीद सकते थे। हालांकि मुझे इस बात से संतोष मिलता है जब वह कहते हैं कि मेरे लिए एक बोरा रुपए खर्च करने का उन्हें कोई अफसोस नहीं है। उन दिनों थोड़ा-सा भी गिजा-विजा खाने का असर मुझपर होता था। तब डाक्टर भी बहुत नहीं थे। कुल मिलाकर दो डाक्टर थे मेरे बचपन में। इनमें से एक डा. राम प्रसाद सिंह थे जो मेरे ही गांव के रहनेवाले थे। गांव में रिश्ते के हिसाब से मेरे दादा लगते थे। उनकी मूँछें बड़ी घनी थीं। वे होमियोपैथी के डाक्टर थे। हर दूसरे सप्ताह पापा या मम्मी को मुझे उनके पास ले ही जाना पड़ता था। वह कोइरी जाति के थे। लेकिन जाति का भेद नहीं मानते थे। उनकी दवाइयां मीठी होती थीं और दवाइयों से अधिक मीठी उनकी बातें होती थीं। वह दवाई की पुड़िया देने के पहले भगवान को याद करते थे और शायद कोई मंत्र पढ़ते थे।

भारतीय दर्शन के मूल में क्या है? यह सवाल जेहन में तब नहीं आया था जब मैं कंप्यूटर साइंस का छात्र था। तब होता यह था कि न्यूटन के गति के नियमों और आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत के आधार पर हर घटना का मूल्यांकन करता रहता था। यह भी नहीं जानता था कि दर्शन का मतलब क्या होता है। इसके पहले जब विज्ञान की समझ भी नहीं थी, तब तो जो मेरी आंखों के सामने गुजरता, उसके पीछे भगवान का खेल समझता था।

 

ऐसे ही थे डाक्टर फणिभूषण। अनीसाबाद में बैठते थे। वे बंगाली थे। लेकिन लगते एकदम अंग्रेज थे। खूब गोरे थे। बूढ़े तो थे ही। मां जब भी मुझे उनके पास ले जातीं, वे मुझे तो प्यार करते लेकिन मां को डांटते थे कि तुम अपने बच्चे का ख्याल क्यों नहीं रखती। मां चुपचाप सुनती और घर लौटकर पापा को सुना देती। डाक्टर फणिभूषण काली के पक्के भक्त थे। दवाई की फांकी बनाने के बाद पहले उसे काली के चरणों में रखते।

उन दिनों मैं पापा से पूछता भी कि डाक्टर साहब दवाई देने के पहले पूजा क्यों करते हैं? पापा कहते कि सब भगवान की माया है। आदमी दवाई से ठीक नहीं होता। ठीक होने के लिए भगवान की कृपा बहुत जरूरी है। यह बात जेहन में बैठ गयी थी। मैं सोचता भी ऐसे ही था। मेरी बड़ी दीदी के ससुर सरयुग बाबू मुझे बहुत पसंद करते थे। वह भी निरक्षर थे लेकिन हिंदू ग्रंथों के रसिया थे। उनके घर में रामायण, महाभारत, गीता और सुखसागर हुआ करता था। मैं उन्हें रोज पढ़कर सुनाता रहूं, इसके लिए वे मुझे अपने यहां महीना भर तक रोक लेते। पापा को भी आपत्ति नहीं होती थी।

दीदी का घर दियारा इलाके में था। गांव का नाम था गोसाईंटोला। आने-जाने के लिए दानापुर से नाव का सहारा लेना पड़ता था। मुझे याद है जब उनका गांव गंगा में विलीन हो गया और उनका पूरा परिवार दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो गया तब भी सरयुग बाबू यही बोलते थे कि सब भगवान की माया है।

भगवान मेरे पीछे पड़ा रहता था। बचपन में बीमार पड़ता तो मां मनौती मानती और जब मैं ठीक हो जाता तब मुझे साथ लेकर मंदिर जाती और भगवान को लड्डू चढ़ाती। आज भी मेरे घर में यह जारी है। मेरी मां के बाद मेरी पत्नी ने भगवान को अपना लिया है। हमदोनों के बीच टकराव के अहम बिंदुओं में सबसे महत्वपूर्ण बिंदू यही है। लेकिन अब हमदोनों ने यह मान लिया है कि हम अलग-अलग हैं। फिर बेशक हमदोनों के बीच प्यार है और साझा जीवन जी रहे हैं।

भारतीय दर्शनशास्त्र को अंधेरा कुआं बनाकर रखा जाता है। जनसत्ता अपवाद नहीं है। सब भाग्य और भगवान को हर कीमत पर बचाकर रखना चाहते हैं। मीराबाई चानू की कानों की बालियों के बारे में एक जानकारी यह भी कि उनकी मां ने बालियां 2016 में रियो ओलंपिक के पहले दिया था। तब शायद बालियों में भाग्य और भगवान नहीं था।

भाग्य और भगवान के फेर में फंसे होने के लिए मैं अपने परिजनों को दोष नहीं देता। वे दुनिया से अलहदा नहीं हैं। इसका कारण अशिक्षा मात्र नहीं है। मेरे शिक्षक थे अरविंद प्रसाद मालाकार। वे नक्षत्र मालाकार हाई स्कूल के प्रिंसिपल थे। वे बिना माथा पर लाल टीका लगाए नजर ही नहीं आते थे। हालांकि वे एक सजग इंसान थे। वह शायद मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के लागू होने के कारण देश में राजनीतिक बदलाव का दौर था। अरविंद सर विश्वनाथ प्रताप सिंह की टोपी पहनते थे। एक साल उन्होंने नक्षत्र मालाकार, जो कि बिहार के प्रसिद्ध आंदोलनकारी थे, उन्हें अंग्रेजों ने जेल में रखा और आजाद भारत के हुक्मरानों ने भी, की जयंती भी मनाई थी।

दरअसल, भाग्य और भगवान की चर्चा आज इसलिए कि मेरे सामने दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता है। पहली खबर है – पहले ही दिन भारत की चांदी। इस शीर्षक को मुख्य शीर्षक बनाया गया है। इसे बोल्ड और बड़े फांट आकार में दिखाया गया है। इसके पहले एक और शीर्षक है – तोक्यो ओलंपिक में मीराबाई चानू ने रचा इतिहास। इसके लिए फांट का आकार छोटा रखा गया है। इसके पीछे की साजिश को समझना मुश्किल नहीं है। यदि मीराबाई चानू महिला न होकर पुरुष होतीं और वह पूर्वोत्तर (मणिपुर) की न होकर हिंदी प्रदेशों की होतीं तो उनका नाम मुख्य शीर्षक में होता।

भाग्य और भगवान के फेर में सबसे अधिक नुकसान भारत के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और महिलाओं को हो रहा है। मैं आशावादी आदमी हूं सो उम्मीद है कि एक दिन भाग्य और भगवान के बजाय श्रम भारतीय दर्शनशास्त्र के केंद्र में होगा।

जनसत्ता में आई खबर

जनसत्ता ने अपने पहले पृष्ठ के बॉटम में मीराबाई चानू की मां लीमा को केंद्र में रखकर खबर प्रकाशित किया है। इसका शीर्षक है – मीराबाई के कानों में बालियां देख भावुक हुई मां। खबर के अनुसार करीब 26 साल की मीराबाई चानू भारोत्तोलन में रजत पदक जीतने में कामयाब अपनी प्रतिभा के कारण नहीं हुईं। उनकी कामयाबी के पीछे उनकी मां लीमा के द्वारा तोहफे में दिए गए कानों की बालियां हैं, जो उनकी मां ने अपने गहने बेचकर बनवाए थे। तोक्यों में प्रदर्शन के दौरान मीराबाई चानू ने उसी बाली को पहना था।

यही वह साजिश है जिसके जरिए भारतीय दर्शनशास्त्र को अंधेरा कुआं बनाकर रखा जाता है। जनसत्ता अपवाद नहीं है। सब भाग्य और भगवान को हर कीमत पर बचाकर रखना चाहते हैं। मीराबाई चानू की कानों की बालियों के बारे में एक जानकारी यह भी कि उनकी मां ने  बालियां 2016 में रियो ओलंपिक के पहले दिया था। तब शायद बालियों में भाग्य और भगवान नहीं था।

बहरहाल, भाग्य और भगवान के फेर में सबसे अधिक नुकसान भारत के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और महिलाओं को हो रहा है। मैं आशावादी आदमी हूं सो उम्मीद है कि एक दिन भाग्य और भगवान के बजाय श्रम भारतीय दर्शनशास्त्र के केंद्र में होगा।

हां, मैं गालिब की तरह नहीं सोचता जो यह कहते थे –

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,

दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं

1 Comment
  1. Yogesh Nath Yadav says

    प्रेरक आलेख।

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