Sunday, June 2, 2024
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इस दर्द को कब समझेंगे आप

दिसंबर के पहले हफ्ते की शाम और रात भोपाल में अमूमन बहुत ठंडी नहीं होती, बस ऐसी होती है कि आप न तो रज़ाई ओढ़ सकते हैं और न ही चद्दर से काम चला सकते हैं। उस साल भी रात कुछ ऐसी ही थी लेकिन ठण्ड सामान्य से थोड़ा ज्यादा थी। जे पी नगर और […]

दिसंबर के पहले हफ्ते की शाम और रात भोपाल में अमूमन बहुत ठंडी नहीं होती, बस ऐसी होती है कि आप न तो रज़ाई ओढ़ सकते हैं और न ही चद्दर से काम चला सकते हैं। उस साल भी रात कुछ ऐसी ही थी लेकिन ठण्ड सामान्य से थोड़ा ज्यादा थी। जे पी नगर और आसपास के निवासियों के लिए भी वह एक जाड़े की सामान्य-सी रात ही थी। लेकिन वहां और भोपाल के निवासियों को सपने में भी अंदेशा नहीं था कि आज के बाद यह रात इतिहास में एक ऐसी काली रात के रूप में दर्ज हो जाएगी जिसे आने वाली पीढ़ियां भी भूल नहीं पाएंगी।

यादों में भी सिहरन पैदा कर देती है वह रात 

3 दिसंबर 1984 की सुबह अपने साथ एक ऐसी भयावह परिस्थिति लाएगी, अगर इसका अंदेशा भोपाल के लोगों को होता तो शायद वे अपने कैलेण्डर से इस तारीख को पहले ही मिटा चुके होते। लेकिन समय पर किसका बस चलता है।  2 दिसंबर को क़ाज़ी कैम्प और जे पी नगर (आज का आरिफ़ नगर) और उसके आसपास के इलाके के लोग रात का भोजन करके सो गए। घरों में सोये पुरुषों और महिलाओं ने अगली सुबह के बारे में कुछ योजनाएं बनाई होंगी और पता नहीं कितने युवक और युवतियों ने अपने प्रेम की कुछ बातों के लिए अगले दिन को चुना होगा। रविवार होने की वजह से बच्चे रोज से कुछ ज्यादा ही खेलकूद कर थके होंगे और उनकी माओं ने उनको किसी तरह खिला-पिला कर सुलाया होगा कि कल फिर खेल लेना। कुछ युवाओं और युवतियों के लिए आने वाला सोमवार (3 दिसंबर) रोजगार के कुछ अवसर प्रदान करने वाला रहा होगा। और कुछ को उस दिन साक्षात्कार देना रहा होगा जिससे कि वह अपने बुजुर्ग माता पिता और परिवार के लिए सहारा बन सकें। कुछ घरों में मेहमान भी उसी रात आये थे और उन घरवालों को भी यह भान नहीं रहा होगा कि यह मेहमान अब वापस नहीं जा पायेगा। उस इलाके में कुछ शादियां भी उस दरम्यानी रात को हो रही थीं और कुछ दूल्हा-दुल्हन भी प्रथम मिलन की आस लिए ही दुनिया से कूच कर गए।

आधी रात के बाद जब पुराना भोपाल, चंद पुलिसवालों, चौकीदारों और बीमारी से खांसते-खंखारते बुजुर्गों को छोड़कर गहरी मीठी नींद में सोया हुआ था तो किसी को खबर भी नहीं थी कि आरिफ़ नगर की यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री उनके लिए जीने का नहीं बल्कि मरने का सबब बन जायेगी। उस फैक्ट्री में मौजूद तमाम गैस के टैंकों के नंबर भले ही उस समय के कुछ कर्मचारियों और कंपनी के अधिकारियों को याद रहे हों लेकिन आगे चलकर टैंक नंबर ई-610  इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया और भोपाल के लोग चाहकर भी इस नंबर को भूल नहीं पाएंगे। यह वही दुर्भाग्यशाली टैंक था जिससे गैस लीक हुई थी।

यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री,भोपाल

चाहे दुनिया की कोई भी कंपनी हो और वह लोगों के भलाई की कितनी ही बात करे, उसके लिए कहीं भी अपनी फैक्ट्री लगाने के पीछे सबसे अहम कारण वहां से मिलने वाला मुनाफा ही होता है। यह बात हर देश में भी लागू होती है, चाहे वह विकसित हो या विकासशील हो. बस विकसित देशों में इंसान की जिंदगी को तवज्जो दी जाती है और ऐसे कारखाने जो इंसानों या समाज के लिए खतरनाक होते हैं, उनको आबादी से दूर बनाया जाता है। भोपाल में भी यूनियन कार्बाइड ने जब अपनी फैक्ट्री क़ाज़ी कैम्प के पास 1969 में शुरू की थी, तब यह जगह भी आबादी के बीच में ही थी, फर्क़ बस इतना था कि हिन्दुस्तान विकासशील देश था और यहाँ पर इंसानों की जिंदगी की कीमत कुछ खास नहीं थी। यूनियन कार्बाइड वहां पर कीटनाशक दवाएं बना रही थी, लेकिन मुनाफ़े की चौंध में अनेक चेतावनियों के बावजूद लीकेज को लेकर बरती जा रही लापरवाही से इंसान भी कीट-पतंगों की मानिंद उस हादसे में मारे गए। इस देश में पैसे के बल पर कहीं भी कुछ भी किया जा सकता है और प्रशासन ऐसे उद्योगपतियों के क़दमों में अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तत्पर था, क्योंकि उनको मुंहमांगी कीमत मिल रही थी।

ऐसा नहीं है कि किसी को इसका अंदेशा नहीं था, उस दुर्भाग्यपूर्ण रात के पहले भी कई बार छोटे-मोटे हादसे उस कारखाने में हो चुके थे। गैस लीक की छोटी-मोटी घटनाएं हुई थीं, एकाध मजदूर उसमें मारे भी गए थे। अख़बारों में यूनियन कार्बाइड कारखाने की जगह पर कई बार सवाल खड़े किये जा चुके थे लेकिन न तो किसी को फर्क़ पड़ना था और न पड़ा। कारखाना अपनी गति से चलता रहा और शायद अगले कई सालों तक ऐसे ही चलता रहता, अगर उस रात वह हादसा नहीं हुआ होता। सुरक्षा के मानकों को दरकिनार करके मुनाफा बढ़ाने की प्रवृत्ति के चलते कारखाने में कभी भी कोई दुर्घटना घट सकती थी लेकिन किसी का भी ध्यान उसकी तरफ नहीं था। सन 1979 में मिथाइल आइसोसाइनाइट के उत्पादन के लिये नया कारखाना खोला गया और पांच साल बाद ही वह एक ऐसी भयावह त्रासदी भोपाल के लोगों को देकर गया जिसे इतिहास में सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी माना जाता है।

भारत में औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी 

आज सन 2021 में, त्रासदी के 36 साल बाद भी जे पी नगर, आरिफ़ नगर और आस-पास के मोहल्लों में लोग उस दिन को याद करके सिहर जाते हैं। उस त्रासदी से बच निकले कुछ लोगों से बातचीत हुई तो उन्होंने जो विवरण दिया, उसे सुनकर दिल दहल जाता है। संजय मिश्रा जो आज एक सफल व्यवसायी हैं। उस समय लगभग 16 साल के युवा थे और उस दरम्यानी रात को घोड़ा नक्कास के अपने घर में परिवार के साथ सोये हुए थे। रात में गैस ने जैसे-जैसे अपना असर बहती हवा के साथ फैलाना शुरू किया, उनके इलाके में भी शोर मचने लगा। जो लोग खुले में थे या बाहर सो रहे थे, उनको घबराहट, बेचैनी और सांस में रुकावट महसूस हो रही थी। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह किस वजह से हो रहा है और हर व्यक्ति परेशान हाल दूसरों से कारण जानने की कोशिश कर रहा था।

तभी कहीं से खबर आयी कि कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस लीक हो गयी है और यहाँ से भागने में ही भलाई है। उनके परिवार के सब लोग उठे, सबने जो कपड़ा मिला उसे अपने नाक और मुंह पर बाँधा और फिर वहां से लाल परेड मैदान की तरफ दौड़ लगायी। उनको याद भी नहीं है कि उन्होंने अपने घर में ताला बंद किया था या नहीं, बस जान बचाने के लिए पूरा परिवार भाग रहा था। रास्ते में उनको जगह-जगह सड़क पर, गलियों में गिरे लोग और जानवर दिखाई पड़ रहे थे जो सांस लेने के लिए छटपटा रहे थे।  भागते-भागते उनका पूरा परिवार लाल परेड मैदान पहुंचा और उससे आगे जाने की उन लोगों में क्षमता नहीं बची थी। धीरे धीरे उनको महसूस हुआ कि वहां सांस लेने में ज्यादा दिक्कत नहीं हो रही थी और आँखों में जलन भी कम थी तो सारा परिवार वहीँ पूरी रात पड़ा रहा।

कुछ ही देर में पूरा लाल परेड मैदान लोगों से भर गया, हर तरफ लोग कराह रहे थे, कुछ जिनका परिवार बिछड़ गया था, वह उनको याद करके रो पीट रहे थे। उन बिछड़े लोगों को यह एहसास हो गया था कि जो भी पीछे रह गया, वह शायद ही अब उनसे दुबारा मिल पाएगा। उनकी आशंका निर्मूल नहीं थी। भले सरकारी आंकड़ों में 4000 से भी कम लोग मरे दिखाए गए हों, 50000 से ज्यादा लोग उस हादसे में अगले कुछ दिनों में काल कलवित हो गए थे। विजय मिश्रा ने एक बात और बताई। उस रात ठण्ड और दिनों की अपेक्षा ज्यादा थी और इसी वजह से गैस ऊपर आसमान में नहीं जा पा रही थी। हलके पीले रंग की गैस की परत चारों तरफ फैली हुई थी और इस वजह से भी बहुत ज्यादा लोग प्रभावित हुए और मौत के घाट उतर गए।

मौत का खौफ़नाक मंज़र

एक और प्रत्यक्षदर्शी की जुबानी उस रात का खौफनाक मंजर कुछ ऐसा था। अमन शर्मा उस समय लगभग 24 वर्ष के युवक थे और अपने परिवार के साथ रेलवे कॉलोनी में रहते थे। उस रात किसी परिचित की शादी थी तो बारात से खा-पीकर आने में रात के बारह बज गए और उसके बाद वह भी परिवार के साथ सो गए। पिताजी रेलवे में थे और उनकी रात की पाली नहीं थी, इसलिए वह भी घर पर ही थे। रात जब शोर मचना शुरू हुआ तो सब लोग जागकर बाहर आये। बाहर यूनियन कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस लीक होने की खबर मिली तो पूरा परिवार घर के दो स्कूटर से वहां से भागा। एक स्कूटर पर अमन अपने पिता अपने परिवार के  एक और सदस्य को लेकर मंडीदीप की तरफ भागे तो दूसरे स्कूटर पर उनके बड़े भाई अपनी माँ, बहन और अन्य सदस्यों को लेकर टी टी नगर की तरफ भागे।

अमन बताते हैं कि मंडीदीप पहुँचते-पहुँचते उनकी हालत स्कूटर चलाने जैसी नहीं रह गयी और वह एक दुकान के सामने स्कूटर लेकर लुढ़क गए। गैस लीक होने की खबर वहां भी पहुँच चुकी थी लेकिन वहां उसका असर बहुत कम था।  वह आज भी वहां के दुकानदारों और मौजूद लोगों का आभार करना नहीं भूलते जिन्होंने उनको और इनके परिवार को झटपट घर के अंदर खींच लिया और पानी के साथ साथ बेनाड्रिल सिरप पिलाने लगे। कुछ देर में उन लोगों को राहत मिली और उनको लग गया कि फिलहाल मौत का साया उनके सर से हट गया है। बस एक अफ़सोस उनको आज भी है कि भागने के दरम्यान जब वह स्कूटर से पुल पार कर रहे थे तो कुछ लोगों के हाथ या पैर के ऊपर से उनका स्कूटर गुजर गया था।

अमन के बड़े भाई टी टी नगर पहुँचते पहुँचते बेदम होने लगे और वह भी सड़क के किनारे फुटपाथ पर गिर पड़े। इस तरफ भी गैस का असर कम था और वहां मौजूद लोगों ने उन लोगों को अपने घर में पनाह दे दी। और इस तरह उनका पूरा परिवार इस हादसे से बाल बाल बच गया, ये दीगर बात है कि उनकी माँ को सांस लेने में तकलीफ उसके बाद आजीवन रही। एक और बात उन्होंने बताया कि इस हादसे के बाद रेलवे स्टेशन या आस पास भिखारी अगले कुछ महीनों तक दिखाई नहीं दिए, जितने थे वह सब इस गैस काण्ड के चपेट में आकर मौत के घाट उतर गए थे।

वैसे तो कोई भी दुर्घटना अपने पीछे बहुत सारा दर्द और तकलीफ छोड़ जाती है और भोपाल गैस त्रासदी तो इतिहास की सबसे भीषण त्रासदियों में से एक थी। अधिकांश लोगों को इसके चलते बहुत आर्थिक क्षति उठानी पड़ी तो कुछ लोगों को इससे अपना जाती फायदा भी हुआ था। गैस काण्ड के अगले दिन एक स्थानीय नेता लोगों का हुजूम लेकर यूनियन कार्बाइड की तरफ बढ़े, उन्होंने लोगों को उनका हक़ दिलाने की भी बात की। लेकिन उसी दरम्यान एक अफवाह बहुत तेजी से फ़ैल गयी कि यूनियन कार्बाइड कारखाने में आग लगा दी गयी है और अब जहरीली गैस का बहुत ज्यादा असर फैलने वाला है। इससे उस पूरे इलाके में भगदड़ मच गयी और इसके बाद खूब जमकर घरों और दुकानों को उपद्रवियों द्वारा लूटा गया। उस राजनेता को राजनीति की दुकान इसके बाद चल निकली।

आपदा में अवसर फर्ज़ के लिए कुर्बानी 

रेलवे के दो अधिकारियों का भी किस्सा भी लोगों ने बताया।  एक अधिकारी जो शराब पीने के लिए बहुत बदनाम थे, वह घर पर शराब पीकर सो रहे थे। जब चारों तरफ हल्ला मचा तो वह भी घर से बाहर निकले और चारों तरफ घूम-घूम कर लोगों से पूछने लगे। इसी दरम्यान शायद गैस की वजह से या किसी और वजह से वह गिर पड़े और जब तक उनको घर ले जाया जाता, उनकी मौत हो गयी। लेकिन घरवालों ने उनको ले जाकर उनके ऑफिस में बैठा दिया और बाद में उनकी मौत को ड्यूटी पर हुई मौत बताया गया। लड़के को भी नौकरी मिल गयी और मौत का मुआवजा अलग से मिला।

दूसरे अधिकारी उस समय ड्यूटी पर ही थे और उनको भी खबर लग गयी थी कि गैस त्रासदी हो गई है। लेकिन उन्होंने अपनी ड्यूटी नहीं छोड़ी और स्टेशन पर मौजूद लोगों के सलामती के लिए लगे रहे।  उसका नतीजा उनको आगे भुगतना पड़ा। उनकी पत्नी और बेटी दोनों गैस के चलते अगले दो दिनों में दुनिया में नहीं रहे। बेटा बाहर था तो वह बच गया लेकिन कुछ सालों बाद वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठे।  आज भी वह भोपाल रेलवे स्टेशन पर पागलपन की अवस्था में घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं।  मेरी भी मुलाकात उनसे एक बार स्टेशन पर ही हुई थी और उनसे जुड़े किस्से के बारे में मुझे बाद में पता चला।

तमाम अखबार, पत्रिकाएं और सरकारी अमला इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि उस कांड का असर आज भी मौजूद है। बहुत से बच्चे आज भी अपंग या मानसिक रूप से कमजोर पैदा हो रहे हैं और पिछले 36 वर्षों में कितने ही लोगों ने धीरे धीरे कैंसर और अस्थमा जैसे स्वांश रोगों से अपनी जान गँवा दी है। लोगों को मुआवजा तो मिला है लेकिन उतना नहीं जितना मिलना चाहिए था। और जिन लोगों को इस हादसे में उनसे छीन लिया है, उनका दर्द तो कभी भर ही नहीं सकता.  आज यूनियन कार्बाइड का कारखाना उजाड़ पड़ा है लेकिन जहरीले पदार्थों का अवशेष अब भी वहीँ मौजूद हैं। क्या हमारे देश ने इस हादसे से कोई सबक लिया है? भारत में खतरे के निशान से ऊपर जा रहे पर्यावरण के प्रति जनसाधारण के रवैये में कोई गुणात्मक परिवर्तन आया है?

विनय सिंह युवा कहानीकार हैं। फिलहाल उज्जैन में रहते हुए बैंक में पदस्थ हैं ।

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